आग और हम....!!
इस चित्रकथा को आरंभ से पढ़ने के लिए यंत्र (http://vikasnarda.blogspot.com/2018/02/1.html?m=1)स्पर्श करें।
31 दिसम्बर 2012 साल के आखिरी उजाले को अंधेरे ने मार दिया था। शुगल-मेले में शुरू की हुई हमारी करेरी झील की ट्रैकिंग अब हमारे संग ही शुगल-मेले कर रही थी। हम करेरी झील के रास्ते में ज्यादा बर्फ आने के कारण फंस चुके थे।
और, अब उस गुफा नुमा गद्दी डेरे में हम लकड़ियां इकट्ठे कर लाये हैं और उन्हें गुफा में बने चूल्हे पर जलाने का कार्यक्रम प्रगति पर है..... विशाल जी कांपते हाथों से अपने पिट्ठू बैग में से अखबार का एक टुकड़ा और माचिस निकालते हैं। मैं छोटी-छोटी सूखी लकड़ियों और घास-फूस को चूल्हे में चिन रहा हूँ, ताकि उस भयंकर ठंड से हमारी जीवन रक्षक आग जल्द से जल्द जल जाए।
आग के जलते ही मानो उस वीरान गुफा में जैसे उत्सव सा माहौल छा गया, गुफा की दीवारें आग की रोशनी से चमक उठी थी और हमें उस निर्जन जगह में आग से मिलना....ऐसे लग रहा था जैसे मेले में गुम बालक को उसका पिता मिल गया हो...!! यह गुफा और उस में जल रही आग अब हमारी ढाल बन चुकी थी क्योंकि पहने हुए कपड़ों के अलावा हमारे पास कोई भी गर्म कपड़ा नही था, जो गर्म लोईयाँ भी हमारे पास थी...उन्हें हम व्यर्थ का भार जान गाड़ी में ही फेंक आए थे।
हमारे मोबाइल फोन इतनी ऊँचाई पर आकर नाकारा हो चुके थे, क्योंकि उनकी टावर रेंज नुमा धड़कन तो सुबह धर्मशाला शहर से चंद किलोमीटर आगे आने पर ही बंद हो चुकी थी। हम दीन-दुनिया से कट चुके थे... गुफा और उस में जल रही आग ने ही, हमें उस दुनिया में वापस जाने का सहारा दे दिया था।
विशाल जी आग के बिल्कुल समीप चौकड़ी मारकर बैठ, बार-बार औसम्-औसम् बोलते हुए चहक रहे थे। जबकि मैं आग से कुछ दूर बैठा था, क्योंकि मुझे अपनी स्वर्गीय दादी जी के बोल याद आ गए जो मैं बचपन में उनके मुख से सुनता था...जब मैं रसोई घर में जल रहे चूल्हे के सामने जा बैठता तो वह अक्सर कहती कि आग ज्यादा सेंकने के बाद उतनी ही ज्यादा ठंड लगती है। सो मैं आग से एक निश्चित दूरी बना बैठा रहता हूँ।
गीले हो चुके हमारे बूट अब चूल्हे के किनारे पड़े आग की तपिश में सूख रहे हैं, जबकि जुराबों को हमारे शरीर की तपिश सुखा चुकी है। हालात अनुकूल होते ही पेट के ढोल बजने लगते हैं... तो विशाल जी अब गुफा की अलमारी में मिले चिमटे से कल सुबह के नाश्ते से बची हुई कुछ कचौरियों को पकड़कर आग पर गर्म कर रहे थे और मैं भी सुबह धर्मशाला से खरीदे समोसों में लकड़ी घुसेड़, उन्हें आग पर पनीर टिक्का की तरह भून रहा हूँ।
अब आप लोग उस आनंद को महसूस करें, जो हम दोनों सांढू़ भाइयों को उस वक्त मिल रहा था कि हम सर्दियों के मौसम में बर्फ से भरे हिमालय में एक गुफा के अंदर आग जला....जली हई कचौरियाँ, भुने हुए समोसे और गरमा-गरम पलंगतोड़ (मिल्क केक) की दावत उड़ा रहे हैं। ऐसी दावत का असली रस आप लोग शिमला के किसी पांच सितारा होटल में भी बैठ नही प्राप्त कर सकते दोस्तों।
थकान और पेट का भरना मतलब नींद पर सवारी। सो गुफा की उस छोटी सी अलमारी में मिली बोरी को हम गुफा ठंडे-ठार फर्श पर बिछा चुके हैं... जो भी मेरे पास था सब कुछ धारण कर लेता हूँ जैसे बंदर टोपी, दस्ताने आदि। तभी विशाल जी अपने बैग में से एक डिजिटल दीवार घड़ी निकाल गुफा के एक कोने में सजा देते है। मैं हैरानी से उस घड़ी को देख रहा हूँ कि इतनी बड़ी दीवार घड़ी को विशाल जी क्यों लेकर आए हैं, क्या सिर्फ समय देखने के लिए...!!! विशाल जी खुद ही बोल पड़ते है, " विकास जी, इस डिजिटल घड़ी में समय तारीख के साथ तापमान भी आता है, सो घड़ी को अपने डैडी जी के कमरे की दीवार से उतार साथ ले आया कि पहाड़ में जाकर तापमान भी देखते रहेंगे...!" और उस समय दीवार घड़ी रात के 8बजा कर तापमान 6डिग्री दिखा रही थी।
विशाल जी को जैसे जलते चूल्हे से मुहब्बत हो चुकी हो....!!! वे उस के पास ही लेट जाते हैं और मैं उनकी बगल में गुफा के मुहाने की तरफ। बस इतनी सी ही जगह थी उस गुफा में कि दो व्यक्ति लेट सकें.... उस 4 किलो के डंडे को भी मैं अपने साथ ही लिटा लेता हूँ।
रह-रहकर सर्द हवा के झोंके मुझसे आकर टकरा रहे थे.... मेरे लिए वह जलती आग अब बीरबल की खिचड़ी साबित हो चुकी थी। जलते चूल्हे की गर्मी और मेरी ओट में लेटे विशाल जी झट से ही गहरी नींद में जा पहुँचें और छेड़ दी तानें व अलाप निद्रा-राग की..... लो मैं फिर फंस गया, उड़ गई सारी नींद...!!!!
ऊपर से सर्द हवा थोड़ी-थोड़ी देर बाद आ मुझे थप्पड़ लगा जाती और नीचे गुफा का फर्श इतना ठंडा था कि जैसे मैं बर्फ पर लेटा हूँ। लेटते ही मेरा मन स्थिर हो जाता है और दिमाग दौड़ने लगता है कि विशाल जी ने बड़ी समझदारी से निर्णय लिया जो इस गुफा में रुक गए....यदि हम ऊपर जाते हुए अंधेरे में फंस जाते, तो...!!!!!!
मेरा विचार-मगन दिमाग स्वयं से ही प्रश्न पूछ रहा है कि क्यों हम दोनों पहाड़ों में नववर्ष मनाने के लिए इस वीरान जगह पर आ गए....जबकि हम भी उन अधिकांश लोगों की तरह शिमला-डलहौजी-मंसूरी जैसे पर्वतीय स्थलों पर जा बर्फबारी का आनंद ले, बड़े मजे से इस नव वर्ष को मना सकते थे। आखिर क्यों मेरे दिमाग में इस ट्रैकिंग का कीड़ा आ घुसा।
हुआ कुछ इस तरह कि इस ट्रैकिंग पर आने से 4 दिन पहले विशाल जी मेरे पास गढ़शंकर आए थे, सो मैं उन्हें लेकर 10 किलोमीटर दूर डल्लेवाल गाँव में अपने फार्म हाउस (जोकि शिवालिक की पहाड़ियों में है ) पर घुमाने ले जाता हूँ। फिर वहीं से कुछ किलोमीटर और आगे जा झुग्गियां नामक गाँव में उन्हें अपने मनपसंद पकौड़े खिलाता हूँ.....क्योंकि जो भी मेहमान मेरे खेतों पर जाता है, मैं उसे झुग्गियां जरूर ले जाता हूँ, बिंदु चाट वाले के पकौड़े खिलाने और या यह कह लो खुद खाने..... अरे भाई आप सब जानते ही हो कि पकौड़े मेरी दुखती रग है..!!
वहीं बैठे-बैठे मैं विशाल जी को कहता हूँ कि चलो आपको 1000 साल पुराना मंदिर भी दिखा लाता हूँ.... विशाल जी बेहद हैरानी से पूछते हैं कि क्या सच में, मैं तो सोच भी नही सकता कि गढ़शंकर क्षेत्र में इतना पुरातन मंदिर भी होगा। मैं अपने तर्क देता हूँ, " जी हां जी जनाब, इस मंदिर को पुरातत्व विभाग ने अपने अधिकार में ले रखा है जी।"
कुछ देर बाद हम भवानीपुर गाँव में टीले पर बने हरि देवी मंदिर की सीढ़ियां चढ़ रहे थे। टीले पर बने इस मंदिर की भव्यता का अनुमान बस वहाँ पड़े चंद अवशेषों से ही ज्ञात होती है। कुछ पुरानी मूर्तियों को फिर से चूने से बनी दीवारों में चिन, शायद सौ साल पहले एक सादा मंदिर फिर से खड़ा किया गया है।
हरि देवी मंदिर प्रांगण में खड़ा हो, मैं विशाल जी को दूर दिखाई देती एक बहुमंजिला इमारत दिखा कर कहता हूँ, " यह गुरु रविदास जी की चरण छू भूमि पर बना गाँव खुराली का गुरुद्वारा है...मैं यहाँ बहुत बार पैदल जा चुका हूँ। पैदल जाने की बात सुन विशाल जी बोले, " क्यों वहाँ सड़क नही जाती क्या...!"
मैंने हंसते हुए कहा, "जाती है जनाब, यदि इस जगह से आप सड़क मार्ग से वाहन द्वारा खुराली गाँव जाएं तो मैं पैदल ही चल, आपसे पहले वहाँ पहुँच आपके स्वागत में खड़ा मिलूंगा... क्योंकि सड़क मार्ग से इस जगह पहुँचने में 15 किलोमीटर है और सामने दिख रही कुछ गहरी खड्ड को पार कर व्यक्ति केवल 2 किलोमीटर पैदल चल वहाँ पहुँच सकता है, चलो अब लगे हाथ इसी रास्ते से गुरुद्वारा साहिब जा माथा टेक आते हैं विशाल जी...!"
अब हम दोनों पहाड़ी से उतर खड्ड को पार करते हुए दूसरी तरफ की पहाड़ी पर चढ़ रहे थे जिस पर छोटा सा गाँव खुराली बसा है।
मान्यता है कि 15वीं सदी में इस गाँव में गुरु रविदास जी 4 वर्ष 2 महीने 11 दिन रूके थे क्योंकि तब इस रियासत का राजा वैन बहुत अहंकारी स्वभाव का था और राजा वैन मीराबाई का मौसा था।
मीराबाई के गुरु संत रविदास जी थे, सो मीराबाई के आग्रह पर संत रविदास जी मीराबाई के साथ ही सन्1515 में खुराली गाँव आए और अहंकार में डूबे राजा वैन ने भजन बंदगी में लीन गुरु रविदास जी की प्रजा में बढ़ती लोकप्रियता से ईर्ष्या कर उन्हें कारागृह में डाल दिया और बैलों से चलाई जाने वाली खरास यानि आटा पीसने वाली चक्की को बैल की जगह खुद जुतकर चक्की चलाने की सज़ा दे डाली...!!
गुरुजी ने निर्विरोध सजा स्वीकार की और अंतर्ध्यान हो एक जगह बैठ गए।
कहते हैं चमत्कार हुआ....!!!
और......चक्की बगैर बैलों के ही चल पड़ी, आटा पिसता रहा। यह चमत्कार देख अत्यंत प्रभावित राजा वैन ने गुरु रविदास जी से माफी मांगी।
:-)~~(-:
बस यही छोटी सी पदयात्रा हमारे ट्रैकिंग जीवन की नींव बन गई दोस्तों। वैसे आज गाँव खुराली का नाम "श्री खुरालगढ़ साहिब" हो चुका है.... दलित समाज से जुड़े होने के कारण पंजाब में आई हर सरकार इस पावन तीर्थ स्थल को रौशन करने के लिए तत्पर है। एक बहुत बड़े म्यूज़ियम "मीनारें बेगमपुरा" भी निर्माणाधीन है... चलो अच्छा है कि मेरा गढ़शंकर क्षेत्र भी भविष्य में पर्यटन की ऊँचाइयों को छुएगा।
तभी एक तेज़ हवा का झोंका मेरी सोच को विराम देता है....चूल्हे में आग कम हो चुकी है सो उठकर लकड़ियां डाल, फिर से लेट जाता हूँ। दिमाग शून्य होने से झट से ही मुझे नींद आ जाती है। मेरी आँखें चाहे अंधकार में जा चुकी थी, परंतु मन में प्रकाश चल रहा था "कल सुबह उठकर करेरी झील जाने का प्रकाश...!!"
करीब 2 घंटे बाद मुझे विशाल जी की ठंड से कांपती आवाज़ नींद से जगाती है क्योंकि अब आग केवल सुलग रही थी और मेरी दादी जी के कथन को भी तो सही होना था कि जो ज्यादा आग सेंकता है, उसे बाद में ज्यादा ठंड लगती है। सो अर्ध सोई अवस्था में लेटे-लेटे ही, मैं विशाल जी की दोनों टांगों को अपनी टांगों के बीच दबा लेता हूँ ताकि एक दूसरे को कुछ गर्मी मिल सके। शायद हम दोनों की थकान की वजह से नींद की नीम-बेहोशी में पड़े थे, तो किसी ने भी उठ लकड़ी आग में नही डाली।
गुफा में रखी दीवार घड़ी के घंटे बढ़ते जा रहे थे और तापमान घटता जा रहा था। बाहर बह रही लियोंड नदी में पानी गिरने की आवाज़ भी कम होती जा रही थी। आधी रात के वक्त विशाल जी लेटे-लेटे बोलते हैं, "विकास जी, हैप्पी न्यू ईयर...!!!!"
हां दोस्तों, नव वर्ष 2013 चढ़ चुका था और हम दोनों सांडू़ ठंड से कांपती अपनी आवाजों से एक-दूसरे को नववर्ष की बधाई दे रहे थे। रात का डेढ़ बज चुका था और तापमान 2डिग्री। चूल्हा अब हमारे द्वारा एकत्रित की हुई सारी लकड़ी को खा चुका था। गुफा के रड़े फर्श पर लेटे मेरी कमर ठंड से अकड़ चुकी थी। शरीर अब नींद को भी नकार चुका था। उस स्याह रात में मैं लेटा हुआ बार-बार बाहर दिख रहे पहाड़ पर पड़ी बर्फ को एकटक सा देखता जाता हूँ और कभी-कभी मेरी आँखें खुद-ब-खुद बंद हो जाती थी।
अब पिछले कुछ घंटों से हम दोनों में कोई भी संवाद नही हुआ था.... क्योंकि हम दोनों ही एक-दूसरे की नींद खराब नहीं करना चाहते थे। एक आवाज़ जो पिछले कई घंटों से मैं सुनता रहा था, वह कम होते-होते अब बंद हो चुकी थी मतलब बाहर बह रही नदी का पानी भी जम चुका था। मैं उत्सुकतावश धीरे-धीरे उठ दीवार घड़ी की तरफ देखता हूँ तो रात के 3बज चुके हैं और गुफा के अंदर का तापमान 1 डिग्री हो चुका था यानि बाहर का तापमान शून्य से भी नीचे हो चुका होगा।
..............................................(क्रमश:)
गाँव भवानी पुर में टीले पर बना करीब एक हजार वर्ष पुराना "हरि देवी मंदिर " |
हरि देवी मंदिर की सीढ़ियां। |
हरि देवी मंदिर। |
कुछ पुरातन मूर्तियों को फिर से मंदिर की दीवारों में चिना हुआ है। |
मंदिर की दीवार में पुरातन मूर्तियाँ। |
पुरातन हरि देवी मंदिर की एक मूर्ति। |
पुरातन हरि देवी मंदिर के अवशेष। |
अवशेष ही बताते है कि मंदिर कितना भव्य रहा होगा। |
हरि देवी मंदिर प्रांगण से दिखता खुराली गाँव का गुरुद्वारा खुरालगढ़ साहिब। |
हरि देवी मंदिर के भीतरी कक्ष में एक गणिका की मूर्ति। |
हरि देवी मंदिर गाँव भवानीपुर। |
गुरु रविदास जी का तप स्थान.... खुरालगढ़ साहिब। |
गुरुद्वारा में स्थापित गुरु रविदास जी की मूर्ति। |
गुरुद्वारा में सुशोभित.... खरास (चक्की) जो अपने आप चल पड़ी थी। |
बहुमंजिला गुरुद्वारे की छत से दिख रहा खुराली गाँव। |
गुरुद्वारे में लगी मीराबाई भी तस्वीर। |
गुफा में जल रहे चूल्हे की आग, अब तेरा ही सहारा है...! |
छत से दिख रहे खुराली गाँव के खेत। |
खुराली गाँव..... का नाम अब श्री खुराल गढ़ साहिब हो चुका है। ( अगला भाग पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें ) |
आज कल कहा रहते हो भाई फेसबुक पर मिलते ही नहीं
जवाब देंहटाएंशर्मा जी जय हिंद, मैने पिछले दो महीनों से फेसबुक को छोड़ दिया है.... अति हर वस्तु की भयानक ही सिद्ध होती है सो मैने फेसबुक की बुरी आदत को त्यागना ही मुनासिब समझा ताकि मैं अपने जीवन में संतुलन बना सकूँ जी।
जवाब देंहटाएंजलेभुने समोसे पलंग तोड़ मिल्क केक...क्या पार्टी मना रहे ही ग़ज़ब.. गाव का फार्म हाउस और झुग्गियां के पकोड़ियां एक बार मिस कर चुका हूं अगली बार जरूर आऊंगा खाने...
जवाब देंहटाएंHaha Haha.... सुस्वागतम् प्रतीक भाई, फिर से आना पंजाब... इंतजार रहेगा जी।
जवाब देंहटाएंहमको भी कभी अपने गांव के पकोड़े खिला दो☺️ अजब गजब नया साल😂
जवाब देंहटाएंस्वागतम् जी।
हटाएं