रविवार, 4 अगस्त 2019

भाग-3 " मणिमहेश, एक दुर्गम रास्ते से...!"



भाग-3 " मणिमहेश, एक दुर्गम रास्ते से...!"

 इस चित्रकथा को आरंभ से पढ़ने का यंत्र     (http://vikasnarda.blogspot.com/2019/07/blog-post.html?m=1) स्पर्श करें।

                                  " टॉस"

                      16अगस्त 2014....भरमौर में लगे ज़बरदस्त जाम की वजह से हम भरमौर के बाहर ही होटल में रात काट,  सुबह तड़के पांच बजे ही भरमौर से वापस चल दिये चम्बे की ओर।  हम तीनों के मन बहुत भारी थे कि मणिमहेश कैलाश झील के इतने पास आकर भी, हम वहाँ नहीं जा पाये...मणिमहेश जाने के लिए "न्यौण यात्रा"  के दिनों में इतने ज्यादा लोग भरमौर-हडसर पहुँच रहे थे कि उनकी गाड़ियों की भीड़ से सड़के जाम हो चुकी थी।
                      हम तीनों चुपचाप से गाड़ी में बैठे थे,  गाड़ी दिनेश जी चला रहे थे।  मैं बाहर अंधेरे में शून्य में देख रहा था, कानों में सड़क पर दौड़ रही गाड़ी के टायरों की  'गूँज'  गूँज रही थी। मैं अपनी आँखें बंद कर सिर को सीट से टेक लेता हूँ...दिनेश जी व विशाल जी ने आगे बैठे क्या बातचीत शुरू की है, उसे अनसुना कर देता हूँ। बस दिमाग में चल रहा था कि यदि हम वापस जाने की समय-सीमा के गुलाम ना होते तो आज़ाद परिंदों की तरह पिंजरे को तोड़ (यानि गाड़ी को कहीं भी छोड़) भरमौर से किसी भी तरह हडसर पहुँच, मणिमहेश की पदयात्रा प्रांरभ कर देते।
                    गाड़ी का टायर किसी गड्ढे में गिरा तो मेरी चेतना वापस आई....आँखें खोल बाहर की तरफ देखा तो धरती के अंधेरे पर आसमान की ओर से आ रही भोर की हल्की लौ अपने पैर पसार रही थी।  करीब आधा घंटा हो चला था हमें भरमौर से चले हुए....एक मोड़ पर से मेरी निगाह पीछे छूट चुके भरमौर की ओर गई तो, सुबह होने से पहले की हल्की-हल्की रौशनी में मुझे एक बहुत खूबसूरत पर्वत शिखर नज़र आया,  जिसके शिखर बर्फ से लबालब थे।  मैंने सरसरी सी निगाह मार, उसे भी अनदेखा कर दिया।
                    परन्तु पिछले दस मिनटों से चल रहे सफ़र में पूरी " बूडिल घाटी" का आकर्षण वह हिमाच्छादित पर्वत ही बना हुआ था,  मेरी नज़र बार-बार उस पर ठहर ही जाती। चलती हुई गाड़ी से दो-तीन फोटो तो मैं उस पर्वत के खींच चुका था, जैसे ही एक बढ़िया कोण मुझे उस पर्वत का मिला.....मैने झट से गाड़ी रुकवाई और कैमरा ले बाहर निकल गया। तब विशाल जी व दिनेश जी से बोला- " मुझे यह पर्वत ही 'मणिमहेश कैलाश ' लगता है...!!"
                      अब हम तीनों ही उस पर्वत को देख रहे थे, परन्तु प्रश्नवाचक निगाहों से और इतनी सुबह हमारे इस प्रश्न का उत्तर देने वाला वहाँ कोई भी आस-पास नहीं था। सो फोटो खींच कर वहाँ से चल दिये। परंतु दोस्तों वह "मणिमहेश कैलाश पर्वत" ही था।
                      अब मन कुछ हल्का महसूस करने लगा, हम तीनों ही सामान्य बातचीत में मशरुफ़ हो गए। सूर्योदय अभी नही हुआ था फिर भी सुबह होने की रौशनी धीरे-धीरे पहाडों का हरा रंग फिर से गहरा कर रही थी, घाटी के बीचोबीच उड़ रहे बादलों की सफेदी को भी और बढ़ा रही थी।
                        मणिमहेश झील का जल संग ले बह कर आ रहा " बूडिल नाला" एक तंग दर्रे से गुज़रता हुआ "रावी नदी" में आ मिलता है। उस तंग सी घाटी जिसमें  बूडिल नाला और सड़क से गुज़रने योग्य ही जगह है,  हम कुछ क्षणों के लिए उसे देखने के लिए अपनी गाड़ी से उतर आये और वहीं से हमें "खड़ा-मुख" गाँव दिख रहा था...जहाँ बूडिल और रावी नदी का संगम होता है। खड़ा- मुख में रावी पर बने बांध के कारण नदी एक झील का रूप ले लेती है जो उस ऊँचाई से देखने में बहुत खूबसूरत लग रही थी और उससे भी सुंदर रावी नदी पर बने पुल की लाइटें लग रही थी, जो अभी बुझाई नहीं गई थी।
                      यात्रा का सुखद एहसास फिर से तन-मन पर छाने लगा,  मैंने सलाह दी- "समय-सीमा के अनुसार हमारे पास अभी घूमने के लिए पूरे दो दिन बचते हैं...कोई गम नहीं रहा कि हम मणिमहेश नहीं जा पाए, परंतु इन पहाड़ों में ही हैं...किसी और जगह चलते हैं, जहाँ हम गाड़ी ले जा सकते हो।"
                      और,  एकदम से बोला- " चलो, चम्बा से 'सच-पास' चलते हैं...!"
               सच-पास का नाम मैंने अपनी पिछली भरमौर यात्रा के दौरान जून 2010 में डलहौजी के "पंचपुला" दर्शनीय स्थल पर एक रेहड़ी वाले से पहली बार सुना था,  जिसके पास हम 'कथित पहाड़ी व्यंजन' मैगी खाने के लिए रुके थे। भरमौर जाने के बारे में उस से पूछताछ की तो वह बोला-" भरमौर क्या जाना, आप सच-पास जाकर देखो..!"
                 "सच-पास यह कौन सी जगह और कहाँ है भाई...?"
                  "चम्बा से नया रास्ता निकला है, बहुत जबरदस्त इलाका है झरनों और बर्फ से भरा हुआ।"
                    परन्तु मैं सच-पास नहीं गया क्योंकि मेरी दौड़ अभी मशहूर पर्वतीय स्थलों जैसे मसूरी, डलहौजी, शिमला, मनाली तक ही सीमित थी। सो डलहौजी से खज्जियार-चम्बा घूमते हुए भरमौर आ पहुँचे।
                       हम तीनों में एकदम से ठान लिया, हाँ सही है सच-पास ही चलते हैं।
                     रास्ते की खूबसूरती को रावी नदी में गिर रहे उस खूबसूरत झरने ने और बढ़ा दिया,  जो शायद जाते वक्त हमारी आँखों से छूट गया था। खड़ा-मुख से हम दस किलोमीटर चल चुके थे कि सड़क किनारे दीवार की तरह खड़े चट्टानी पहाड के शिखर से गिर रहे झरने पर आ रुके। दिनेश जी वहाँ अपना " पंच तरणी स्नान" में व्यस्त हो गए और मैं खुराफाती सोच का बंदा उस खड़ी दीवार नुमा चट्टान पर झरने के साथ-साथ ऊपर चढ़ने लगा। तभी सड़क से एक स्थानीय पिकअप जीप वाले ने रुक कर कहा-"यहाँ ऊपर से पत्थर गिरते हैं, यह खतरनाक जगह है।"
                     तो विशाल जी और दिनेश जी ने मुझे रोका.... नहीं तो मैं शायद "ऊपर" ही पहुँच जाता....!!!!!
                      गाड़ी फिर से चम्बा की ओर भागने लगी  सच-पास जाने के लिए,  मैं अपने पास मौजूद हिमाचल प्रदेश के नक्शे को खोलकर सच-पास के लिए रास्ता खोजने लगता हूँ।  तब हम घुमक्कड़ों का प्रिय ऐप "गूगल मैप" कहाँ हमारी पकड़ में था, हमारी पहुँच तो कागज़ पर अपने नक्शों या फिर रोड एटलस तक ही सीमित होती थी। यह "नेस्ट एड विंग्स" का फोल्डेबल नक्शा है, जो मैंने 2004 में अपनी शादी की सालगिरह पर सबसे पहले ट्रिप मनाली यात्रा की वापसी पर 'हिलौंगी माता' स्थल पर मौजूद एक दुकान से खरीदा था। मेरे हिमाचल भ्रमण का मुख्य स्रोत यह नक्शा ही है, जो आज भी मेरे पास मौजूद है।
                     परंतु तब उस समय मुझे मेरे नक्शे पर सच-पास का रास्ता ही मौजूद नहीं मिला, हो सकता है जब यह नक्शा छपा हो तब सच-पास का रास्ता ही ना बना हो। 
                     दोस्तों,  सच-पास का रास्ता भारतीय सेना के लिए बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि पठानकोट से लेह क्षेत्र में जाने के लिए यह रास्ता छोटा पड़ता है और 1998 में इस रास्ते के निर्माण में लगे 35 हिंदू मजदूरों को आतंकवादियों द्वारा कत्ल कर दिया गया क्योंकि वे नहीं चाहते थे कि जम्मू-कश्मीर में जाने के लिए यह छोटा रास्ता बने..!
                       नक्शे पर सच-पास ना मिलने पर मैंने सरसरी नज़र हडसर से मणिमहेश झील को जाते पैदल मार्ग पर डाली, तो एकदम से चौंक गया कि नक्शा एक और जगह से भी पैदल रास्ता दिखा रहा है- "होली से मणिमहेश"
                        मुझे खुद पर ही हैरानी होने लगी कि मैंने यात्रा से पहले यह नक्शा क्यों नहीं देखा। चलो खैर जेब से मोबाइल निकाला, जो दो महीने पहले कीपैड वाले फोन से तरक्की कर टच एनड्राइड फोन में तबदील किया था। सोशल मीडिया " फेसबुक " पर इसी फोन ने मुझे जन्म दिया था।  फोन पर गूगल से प्रश्न पूछा तो उत्तर मिला कि होली से पहले "त्यारी" गाँव से पैदल रास्ता "कलाह पास " होते हुए मणिमहेश जाता है।  यह पढ़ मेरी आँखों में चमक लौट आई,  एक आस जाग सी जग उठी कि शिव भोले तुझे खाली हाथ वापस नहीं जाने देगें, विकास...!
                     मैंने उत्साहित हो गाड़ी के आगे बैठे विशाल जी और दिनेश जी को यह "खुशखबरी" सुनाई, परंतु उन्होनें मेरी इस बात पर कोई ज्यादा प्रतिक्रिया नहीं दिखाई...बस इतना कहा- "अब हम खड़ा-मुख जहाँ से होली को रास्ता मुड़ रहा था, से भी बीस किलोमीटर आगे निकल आये हैं।"  
                   मैं बोला- "तो फिर क्या हुआ, हम यहीं से वापस हो जाते हैं होली के लिए....अरे भाई हम लोग तो इन पहाड़ों में घूमने आये हैं चलो मुड़ चलते हैं, और रावी नदी के साथ-साथ होली को जाता रास्ता भी बेहद खूबसूरत होगा क्योंकि जिस घाटी के बीचो-बीच नदी बहती हो,  वहाँ दिलकश नज़ारे मिलना आम बात होती है.... होली से पहले त्यारी गाँव तक जहाँ से मणिमहेश को पैदल रास्ता शुरू होता है,  चलते हैं यदि वहाँ से सम्भव होगा तो चढ़ जाएगें मणिमहेश के लिए, नहीं तो हम घूम ही तो रहे हैं इन पहाडों में.....!!! " कह कर मैं हंसने लगा।
                          गाड़ी अब खड़ा-मुख की ओर वापस दौड़ रही थी। खड़ा-मुख पहुँच कर सुबह का नाश्ता खाकर और खाने-पीने का सामान लेकर व पूछताछ कर हम चल दिये खड़ा-मुख से होली वाली सड़क पर।  सुबह के 9बज चुके थे,  खड़ा-मुख से होली की तरफ दो-तीन किलोमीटर आगे बढ़ते ही धौलाधार और पीर पंजाल पर्वत मालाओं के बीचो-बीच रावी घाटी की खूबसूरती ने हमारा मन मोह लिया।
                गाड़ी अब मैं चला रहा था....जैसे-जैसे हम होली की ओर बढ़ते जा रहे थे,  पहाडों पर भी हुस्न चढ़ता जा रहा था। मैं अपने जीवन में पहले सबसे खूबसूरत पहाडों को देख रहा था,  पहाडों पर चढ़ा ऐसा हरा रंग मैने अपने जीवन में पहली बार ही देखा था। धौलाधार और पीर पंजाल की चोटियाँ बर्फ से सजी पड़ी थी। करीब आधे घंटे के सफर के बाद हम रावी नदी के पार " त्यारी गाँव " को जाते लकड़ी के झूलते पुल पर आ रुके।  हम असमंजस में खड़े सोच ही रहे थे कि क्या अपनी गाड़ी इस पुल पर चढ़ा दें या नहीं।  तभी दूसरी तरफ से आ रही एक कार से हमें उत्तर मिल गया कि इस पुल पर कार आ-जा सकती है।  हम तीनों गाड़ी से उतर कर पुल के छोर पर खड़े हो गए,  दूसरे छोर से आ रही कार के कारण लकड़ी से बना पुल हिल रहा था। कार के इस पार आने के बाद इस बहुत लम्बे पुल पर से एक जीप भी तेज़ रफ्तार से गुज़र गई।
                         दिनेश जी अपना कैमरा ले पैदल ही पुल पर चल पड़े,  मैने कार स्टार्ट कर उसे पुल पर चढ़ा दिया। दिनेश जी आगे से और विशाल जी पीछे से पुल पर जा रही गाड़ी के फोटो खींच रहे थे। मेरे लिए यह एक रोमांचित अनुभव था कि मैं उफन रही नदी के ऊपर पुरातन शैली में बने लकड़ी के झूलते पुल पर से गाड़ी को पार करवा रहा हूँ।
                         गाड़ी को पुल पार करवा कर हम दूसरी तरफ चले ही थे कि हमारे आगे पैदल जा रहे दो आदमियों ने हमें हाथ दे रोक कर कहा कि हमें भी साथ ले चलो। उनके गाड़ी में बैठते ही हमारे सवाल शुरु...... तो उत्तर मिला कि वे स्वास्थ्य विभाग में फार्मासिस्ट हैं और साथ उनका चपरासी है,  हम दोनों की डयूटी " जेल-खड्ड" नामक जगह पर लगे लंगर में लगी है, जो इस तरफ से मणिमहेश जाने वालों के लिए एक मात्र लंगर व रात रुकने की जगह है।  यह जवाब सुन हम तीनों के कान खड़े होने तय थे और फिर उनसे धड़ाधड़ सवाल पूछे जाने लगे।
यह रास्ता कितना लम्बा है....?
                      19किलोमीटर लम्बा, जबकि हडसर वाला मशहूर रास्ता 13किलोमीटर लम्बा है। मतलब दो दिन में पदयात्री मणिमहेश झील पर पहुँचता है,  ऊपरी त्यारी गाँव तक कच्चा रास्ता जाता है... गाड़ी वहाँ खड़ी कर "कलाह गाँव" को पैदल रास्ता, फिर कलाह गाँव से "जेल-खड्ड" में रात्रि विश्राम,  अगली सुबह जेल-खड्ड से "सुखड़ली" से "कलाह पर्वत" पर चढ़कर मणिमहेश जाया जाता है। इस तरफ से कोई घोड़ा-खच्चर नहीं है, बस अपने दम पर ही मणिमहेश पहुँचा जा सकता है और हां कलाह जोत की ऊँचाई बहुत ज्यादा है इसलिए यह हडसर वाले रास्ते से ज्यादा कठिन रास्ता है, साँस के रोगी और उच्च रक्तचाप वालों को हम सलाह देते हैं कि वे इस रास्ते से ना जाये।
                       उच्च रक्तचाप की बात सुन दिनेश जी ने उनसे पूछा कि मेरा भी रक्तचाप बढ़ जाता है तो क्या मैं जा सकता हूँ इस रास्ते से...?
                      तब वे सज्जन बोले- "मैं आपको सलाह देता हूँ कि आप इस रास्ते से मणिमहेश ना जाकर हड़सर वाले रास्ते से घोड़े या हेलिकॉप्टर की सुविधा ले मणिमहेश जाएं तो अच्छा है।"
                      हम सब ने माथे पर हाथ मार कर कहा- "वहीं से तो धक्के खाकर इधर आये हैं...!"
हमारी बात सुन वे हमारी व्यथा समझ गए और बोले - "हाँ,  न्यौण यात्रा के दिनों में उस तरफ बहुत ज्यादा भीड़ हो जाती है, परन्तु इस प्राचीन रास्ते से कोई-कोई ही मणिमहेश जाता है।"
                           "दो दिन मणिमहेश पहुँचने में लगने थे"- इस बात पर विशाल जी बोले- "यदि हम इस रास्ते से मणिमहेश जाते भी हैं, तो दो दिन में वहाँ पहुँचेंगे और फिर तीसरे दिन हडसर....ऐसा कर हम वापसी की तय समय- सीमा से बाहर हो जाएंगे, इस रास्ते से हमारा जाना मुश्किल है...!!!"
                 मैं ऊपरी त्यारी गाँव को जाते हुए कच्चे रास्ते पर गाड़ी चढ़ा तो रहा था, परंतु मेरे दिमाग में विचारों का युद्ध भी चढ़ाई पर था।
                 एक तीखे मोड़ पर जब हमारी गाड़ी ने कच्चे रास्ते पर स्लिप मारना शुरू कर दिया तो मैंने भी गाड़ी से धक्का ना करते हुए उसे रोक लिया और वे दोनों स्वास्थ्य विभाग कर्मी हमसे विदा ले, कच्ची सड़क को छोड़ पगडंडी द्वारा ऊपर की ओर चढ़ गए। मैंने गाड़ी को मोड़ खड़ा तो कर दिया, पर उन दोनों से बोला- "हम दूसरी बार मणिमहेश के कितने पास आ कर फिर वापस जा रहे हैं, इस नामुराद समय सीमा की वजह से....इस तरफ से एक और दिन ही ज्यादा लगेगा, चलो चलते हैं मणिमहेश... जाने फिर कब इस तरफ आना हो या ना हो...!!!"
                       परंतु दोनों ने ही मेरी बात को सिरे से नकार दिया।  तब मैंने उस विचार को अपने मुख से निकाल शब्दों का रूप दे डाला जो मेरे दिमाग में पिछले दस मिनटों से उथल-पुथल मचा रहा था- "अच्छा तो,  मैं अकेला ही इस रास्ते से मणिमहेश जाऊँगा...!!"
कठोरता से भरे मेरे इस बोल में मेरा स्वार्थीपन कूट-कूट कर भर चुका था।
                     मेरे मुख से निकले ये शब्द जैसे ही दिनेश जी व विशाल जी के कानों में में पड़ेे, वह दोनों हक्के-बक्के से कभी मुझे तो कभी एक-दूसरे को देखने लगे।
                    दिनेश जी मुझे अक्सर "भाजी" कह कर सम्बोधन करते हैं।  दिनेश जी बोले- " ओ भाजी, अकेले नहीं जाने देगें तुम्हें मणिमहेश....चलो हमारे साथ, हम तो सच-पास जा रहे थे ना....!"   परंतु मैंने ना में सिर हिला कर फिर कहा- "मैं अकेला ही मणिमहेश जा रहा हूँ बस..!!"
                      अब विशाल जी बीच में बोले- " छोड़ विकास,  हम फिर से दोबारा आ जाएंगे मणिमहेश, अभी चलो हम सच-पास ही चलते हैं।"  मैने फिर एक जिद्दी बच्चे की तरह सिर हिला कर कहा - " नहीं,  मुझे तो मणिमहेश ही जाना है,  मैं आप की तरह समय-सीमा में नहीं बंधा हूँ.... आप लोग मुझे छोड़ दो,  मैं अकेला ही पहुँच जाऊँगा मणिमहेश। "
                          पांच-दस-बीस मिनट हो चले,  वे दोनों मुझे वहाँ से वापस ले जाने की बात पर अड़े थे और मैं वहाँ से अकेला ही मणिमहेश जाने की बात पर अड़ा था।
आखिर मैं एक उपाय उन्हें सुझाता हूँ कि चलो टॉस कर लो,  यदि मैं जीत गया तो आप मुझे मणिमहेश जाने से नहीं रोकेंगें और यदि आप लोग जीत गए तो मैं वापस चल दूँगा आपके साथ..... कह कर मैने अपनी इस यात्रा को किस्मत के सहारे छोड़ दिया और यदि हार भी जाऊँ,  तो मेरे अशांत मन को इतना तो संतोष मिले कि तेरी किस्मत में नहीं है मणिमहेश जाना...!!
                           अब टॉस करने के लिए सिक्का खोजा जाने लगा, क्योंकि हमारी जेबों में सिक्के तो तब हुआ करते थे जब हम छोटे बच्चे होते थे,  अब तो सरकारों ने भी सिक्कों की कीमत ही खत्म कर दी है....ये सिक्के अब सड़कों पर टोल-टैक्स के बकाया के रुप में ही मिलते हैं। सो,  गाड़ी के डैशबोर्ड से एक रुपये का सिक्का निकाला गया।
                           विशाल जी के हाथ से सिक्का हवा में उछाला गया और मैं बोला- "टेल"
             हम तीनों की ही साँस शायद उस समय तक रुकी रही,  जब तक सिक्का जमीन पर गिर कर पत्थर से टकरा, हम से कुछ दूर जा गिरा।  हम तीनों ही सिक्के के पीछे भागे और........... यह क्या!
                       दिनेश जी व विशाल जी के मुख से खुशी की विजयी चीख निकली " हेड"..........और,  मैं टॉस हार गया.....!!!!!
                                         (क्रमश:)

                                     
एक मोड़ पर से मेरी निगाह पीछे छूट चुके भरमौर की ओर गई तो, सुबह होने से पहले की हल्की-हल्की रौशनी में मुझे एक बहुत खूबसूरत पर्वत शिखर नज़र आया,  जिसके शिखर बर्फ से लबालब थे। 

वह मणिमहेश कैलाश पर्वत ही था दोस्तों।

सूर्योदय अभी नही हुआ था फिर भी सुबह होने की रौशनी धीरे-धीरे पहाडों का हरा रंग फिर से गहरा कर रही थी, घाटी के बीचोबीच उड़ रहे बादलों की सफेदी को भी और बढ़ा रही थी।

उस तंग सी घाटी जिसमें बूडिल नाला और सड़क से गुज़रने योग्य ही जगह है,  हम कुछ क्षणों के लिए उसे देखने के लिए अपनी गाड़ी से उतर आये।

खड़ा-मुख से पहले एक तंग दर्रे से गुज़रता बूडिल नाला। 

उस ऊँचाई से नज़र आता खड़ा-मुख गाँव और रावी नदी ।

उस घाटी की चौड़ाई इतनी सी ही थी,  कि भरमौर की जाती सड़क और बूडिल नाला ही गुज़र रहे थे। 

क्या खूबसूरत नज़र आ रही थी, खड़ा-मुख में रावी नदी पर बने पुल पर जग रही लाइटें......और पुल से पार जो रास्ता ऊपर जाता है, वह होली का रास्ता है। 

खड़ा-मुख से हम चम्बे वाले रास्ते पर चल पड़े, सच-पास जाने के लिए। 

बूडिल नाला और रावी नदी का संगम।

कोई गम नही रहा कि हम मणिमहेश नहीं जा पाये...रास्ते की खूबसूरती ने फिर हमारा मन बहलाना शुरु कर दिया, यात्रा की खुशी में मस्त दिनेश जी।

  रास्ते की खूबसूरती को रावी नदी में गिर रहे इस खूबसूरत झरने ने और बढ़ा दिया,  जो शायद जाते वक्त हमारी आँखों से छूट गया था।

खड़ा-मुख से चम्बे की ओर बढ़ते हुए...सड़क किनारे दीवार नुमा चट्टानी पहाड से गिर रहे जल-प्रपात ने हमें रोक लिया। 

उस जल-प्रापत पर पंच तरणी स्नान के उपरांत दिनेश जी।


और, मैं तो ठहरा ही खुराफाती सोच का बंदा....चढ़ने लगा उस दीवार नुमा पहाड़ पर बह रहे जल-प्रापत के साथ-साथ ऊपर को।


                                       
तभी वहाँ से एक स्थानीय पिकअप जीप वाले ने रुक कर कहा कि यह बहुत खतरनाक जगह है, यहाँ ऊपर से पत्थर गिरते हैं। यदि दिनेश जी, विशाल जी और जीप वाला मुझे ना रोकते,  तो शायद मैं "ऊपर" पहुँच चुका होता ।
     
वहाँ से नीचे उतरना बहुत कठिनाई भरा था दोस्तों। 

अक्तूबर 2004 में हिमाचल भ्रमण के दौरान खरीदा था यह नक्शा,
यह नक्शा ही मेरी ढेर सारी हिमाचल यात्राओं का साथी रहा।
मेरे इस नक्शे पर सच-पास का रास्ता ही नहीं मौजूद था,  हो सकता है जब यह नक्शा छपा हो तब सच-पास को सड़क ही ना हो। 



नक्शे पर होली से मणिमहेश झील को जाते पैदल मार्ग को देख मैं एकाएक चौंक गया। 

                                     
2014 में खरीदा मेरा पहला एनड्राइड फोन, जिसने मुझे सोशल मीडिया "फेसबुक " पर जन्म दिया,  और इस छोटे से टच फोन पर मैने अपनी यात्राओं की ढेर सारी धारावाहिक चित्रकथाओं को टाइप कर लिखा है। 

खड़ा-मुख से होली की ओर ज़रा सा ही चले थे कि रास्ते की खूबसूरती हमारा राह रोकने लगी। 
                                     
                                     
खड़ा-मुख से होली को जाती सड़क पर फैली सुंदरता। 

राह में आया, रावी नदी के पार एक गाँव। 

उस गाँव के बूढ़े और जवान घर। 

है कोई शब्द जो रावी घाटी की इस खूबसूरती को तोल सकें।

रावी घाटी की " निशब्द सुंदरता "

दूर एक हिमाच्छादित गिरिराज दर्शन दे रहे थे,  नाम नही मालूम.....जब दोबारा जाऊँगा तो पूछ कर आऊँगा दोस्तों। 

रावी नदी के किनारे एक छोटा सा खेत। 

रावी घाटी की खूबसूरती से आनंदित यात्री।

यह चित्र देख ऐसा लग रहा है जैसे विशाल जी किसी दृश्यालेख में खड़े हो।

पहाडों का ऐसा हरा रंग मैने अपने जीवन में पहली बार देखा था।

तू.....खींच मेरी फोटो!!!

रावी नदी पर पुरातन शैली में बना लकड़ी का झूला पुल जो त्यारी गाँव को मुख्य मार्ग से जोड़ता है।

त्यारी पुल के नीचे बह रही रावी नदी।

और, मैने पुल पर गाड़ी चढ़ा दी।

त्यारी पुल पर हमारी गाड़ी।

दिनेश जी आगे से,  तो विशाल जी पीछे से पुल को पार कर रही गाड़ी के चित्र खींच रहे थे।

ऊपरी त्यारी गाँव की ओर आता कच्चा रास्ता।
                             
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12 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही ग़ज़ब लेखन ऐसा लग रहा है लेख में आप हमसे बाते कर रहे हो...आपके टॉस हारने के बाद अगली कड़ी का इंतज़ार और बढ़ गया है....जेल खड्ड kalaaah गाव और जानकारी पढ़कर बहुत अच्छा लगा...

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    1. अरे मैं आप से ही तो बातें करता हूँ.... अपने शब्दों के द्वारा, अपनी यादों द्वारा।

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  2. भोले कुछ कुछ प्रसन्न हो रहे है ऐसा लगता हैं😀 सच पास वही जगह हैं ना जो खजियार से दिखता हैं। मैंने एक स्थानीय आदमी से पूछा था कि वो जो बर्फ के पहाड़ दिख रहे हैं वो कौन सी जगह हैं तो उसने बोला था कि ये नई जगह हैं जहां घूमने वाले सुबह निकलते हैं और रात तक वापस आते है।

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    1. क्या कहा अापने कि सच पास खज्जियार से भी दिखाई देता है, अब तो दोबारा जाना पड़ेगा खज्जियार इसे देखने के लिए जी। घूमने वाले को तो घूमने का बहाना चाहिए।

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  3. What an unteresting, gripping write up. In a hurry currently, will read other oarts next time.

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  4. Sorry, too many mistakes all because of hurry. Interesting write up, will read other parts later.

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  5. आपकी यात्राएं इतनी लुभावनी होती हैं कि ऐसा लगता है हम भी साथ-साथ उन दृश्यों को महसूस कर रहे होते हैं 😍😍😍😍😍😍😍😍....... लेकिन साढ़ू भाई...... विशाल रतन जी की फोटोग्राफी का भी कमाल ये दृश्य बयां करते हैं........ 👌👌👌👌👌👌👌👌👌👌

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