" ब्राह्मण हूँ ना, शिक्षा देना तो मेरे खून में ही घुला है...!"
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मैं और विशाल रतन जी पिछले 13घंटों से लगातार चलते हुए अब बराहटी नाले के ऊपर जंगल में से गुज़र रहे थे.... दिन मरणासन्न था और अंधेरे के स्याह अंकुर फूट रहे थे। पम्मा, बाबा और बहादुरगढ़ वाले जनाब हमसे आगे निकल चुके थे। रास्ते के बीचो-बीच एक गर्म टोपी गिरी हुई थी... मैने उसे उठा कर देखा तो मुझे लगा कि यह टोपी तो कलकत्ता वाले बाबा की है...परन्तु दिल्ली वासी विशाल जी ने महानगरीय तौर तरीकों से ग्रस्त मुझे एकाएक कहा, " छोड़ो विकास जी, हमे क्या लेना-देना...जिस किसी की भी हो यह टोपी..! "
और, मैं भी एक आज्ञाकारी बच्चे की भाँति उस टोपी को रास्ते किनारे पत्थर पर रख नीचे की ओर बढ़ने लगा.... बात यहाँ टोपी की नही है, हमारे उस व्यवहार की है जो हम लोग हर रोज करते है कि हमें क्या लेना-देना किसी से..... कोई सड़क पर गिरा है तो हम उसे शराबी मान कर आगे निकल जाते हैं, पर हो सकता है उसे दिल का दौरा पड़ा हो... पर हमे क्या लेना-देना, जरूरतमंद मजबूर व्यक्ति की सच्ची फ़रियाद भी हमे झूठी लगती है क्योंकि हमें क्या लेना-देना....! परन्तु मैं भी ना कम बुद्धि इंसान हूँ दोस्तों, यह भूल जाता हूँ कि हमारा समाज बगैर लेन- देन के कहाँ चलता है, जी....!!!
एक दम से हरा जंगल अंधेरे की काली चादर ओढ़ रहस्यमय रुप ले चुका था, खैर अंधेरे से लड़ने वाले हमारे नन्हें-मुन्नें सिपाही "हमारी टार्चें" हमे निर्विघ्न आगे बढ़ा रही थी.... इसी अंधकार का मारा एक बेचारा लड़का रास्ते किनारे निहत्था बैठा था क्योंकि चण्डीगढ़ से आए उस नौजवान के पास अंधेरे से लड़ने के लिए हथियार नही था..... और अब वह भी हमारे सिपाहियों के सुरक्षा घेरे में आ चुका था।
रात 8बजे हम तीनों बराहटी नाले पर लगे जूना अखाड़ा लंगर (जहाँ हमने इस यात्रा की पहली रात गुज़री थी) पर पहुँचें, तो वहाँ चाय पी रहे बाबा जी और पम्मे ने हमे आवाज़ दे रोक लिया.... बाबा जी ने हमें पूछा कि ऊपर रास्ते में कहीं आपको मेरी गिरी हुई टोपी तो नही दिखी.... मैने कहा हां, तो बाबा जी मेरे खाली हाथ देख कर इतना ही बोल चुप हो गए, " तो....फिर आप...!!!"
बाबा जी की एकाएक चुप्पी मुझ से हजारों सवाल करने लगी कि विकास तू क्या इस बूढ़े बाबे की 100ग्राम की ऊनी टोपी भी नही उठा सकता था, जब कि तेरे शहर वाला पम्मा इस बूढ़े बाबा की भारी गठरी उठा कर ला रहा है.... जो आदमी बारिश से गीला हो चुका अपना कम्बल नही छोड़ सका, उसके लिए उसकी एकमात्र टोपी भी कितना महत्व रखती होगी।
मित्रों, यह बात तो कुछ भी नही है, शायद वो बाबा भी चंद क्षणों के बाद अपनी टोपी को भूल गए होंगे, परन्तु मुझे यह बात नही भूल रही कि यदि मैं वो टोपी उठा लाता तो जरूरतमंद बाबा के हंसते चेहरे और अपनी मन के संतोष को तमाम उम्र एक मीठी याद की तरह याद रखता, याद तो अब भी रहेगी परन्तु एक चुभती सी याद।
कुछ मिनट जूना अखाड़ा लंगर बराहटी नाला पर रुकने के उपरांत पम्मा और बाबा जी भी हमारे साथ ही हो लिये...... बराहटी नाले के बाद एक दम खड़ी चढ़ाई आती है, जिसे पार करने के बाद... पिछले दो घंटे से हमारे साथ चिपके उस चण्डीगढ़िये लड़के (जिसके पास टार्च नही थी) को अपनी रक्सक से टार्च निकाल कर थमाई... टार्च देख कर उस लड़के का मुझे अजीब ढंग से देखना जायज़ बनता था, निश्चित है उसके दिमाग़ में यह सवाल उपजा होगा कि कैसा अजीब पागल दिमाग आदमी है, जब इसके पास एक और टार्च थी... तो मुझे पहले क्यों नही दी, खामखां पिछले दो घंटों से मैं अपनी आँखें फाड़-फाड़ कर उनके पीछे चल रहा हूँ।
मैने उसके कुछ बोलने से पहले ही बोल दिया, " यदि मैं चाहता तो तुम्हें यह टार्च उसी समय दे देता जब तुम हमे मिले ही थे... पर नही दी क्योंकि मेरी इच्छा है कि तुम सारी उम्र मुझे और इस अंधेरे भरे सफर को याद रखो, मैने तुम्हें रोमांच व गिरने के डर की मिश्रित अनुभूति दिलवाई है, यदि यह टार्च तुम्हें पहले दे देता तो तुम ना मुझे याद रखते और ना ही इस सफर को.....!!! "
वह लड़का कुछ ना बोला, मेरे पीछे चलने की बजाय वह अब मुझ से आगे हो गया......शायद वो मन ही मन मुझे दुआऐं या फिर गालियाँ ही दे रहा होगा। पर क्या करूँ भाई लोगों... मैं ऐसा ही हूँ, ब्राह्मण हूँ ना...शिक्षा देना तो मेरे खून में ही घुला है.......!!!!!
सिंहगाड़ से कुछ पहले रास्ते में आए लंगर पर मैं बासी ठंडे पकौड़े खाए ही जा रहा था, क्योंकि पांच दिनों के बाद मुझे अपना मनपसंद व्यंजन जो मिला था.....खैर रात साढे नौ बजे हम श्री खंड यात्रा के प्रथम पड़ाव सिंहगाड़ में "श्री खंड सेवा मण्डल " अरसू की ओर से चलाये जा रहे लंगर के आगे खड़े थे.... अभी सड़क तक पहुँचने के लिए 3किलोमीटर का रास्ता शेष था, और हम आज साढे पंद्रह घंटे पैदल चल चुके थे सो कुछ समय रुकने के लिए लंगर की सीढ़ियाँ चढ़ गए।
गिरचाडू देवता मंदिर के प्रांगण में लगे लंगर में हम श्री खंड जाते समय नही रुके थे, एक बड़ा सा पंडाल और खूब सजावट... लंगर छकने के लिए कुर्सी-मेज... हम एक व्यवस्थित स्थान में आ खड़े हो गए थे, अभी खड़े-खड़े हम दोनों मुआयना ही कर रहे थे कि एक सज्जन से व्यक्ति ने हमे आ कर कहा कि अपने बैग उतार कर खाना खाइये, वे लंगर प्रबंधक श्री गोविंद प्रसाद शर्मा जी थे.... " कहाँ से हो " से बातचीत का दौर चल निकला उनके संग।
श्री खंड यात्रा अधूरी रहने पर उन्होंने खूब अच्छा तर्क दिया कि यह मत सोचिये कि आपकी यात्रा अधूरी रह गई, इस क्षेत्र में पहुँचना ही क्या कम है और आपकी हाज़िरी शिव ने मंजूर कर ली है। बातों-बातों में उन्होंने बताया कि वे बहुत वर्षों से श्री खंड यात्रा के दौरान हर वर्ष यात्रियों की सुविधाओं के लिए लंगर व अन्य जरूरतों का प्रबंध करते आ रहे हैं, श्री खंड के रास्ते में पड़े कचरे को साफ करना भी इसी क्रम में आता है..... तो हमने झट से अपनी जेबों में रखी टोफियों के रैपरों को निकाल उन्हें दिखाया कि हम अपना कोई भी कचरा ऊपर नही छोड़ कर आ रहे, बल्कि उसे अपने संग वापस ही ला रहे हैं.... हमारी बात सुन गोविंद जी बेहद खुश व प्रभावित हुए और उन्होंने हम दोनों को अपने संग बिठा कर रात का भोजन करवाया।
दोस्तों, लंगर भी कम शानदार ना था...दाल, कढ़ी, सब्जी, चावल, तंदूरी रोटी, आचार व खीर जैसे किसी विवाह समारोह का भोज हो...... भोजन करने के पश्चात गोविंद जी ने अपने सहयोगी सतीश अग्रवाल जी से कहा कि चाहे आज हमारे लंगर का अंतिम दिन है, हम अपना बहुत सारा सामान समेट चुके हैं... परन्तु हमें इन दोनों(यानि हम) को सम्मानित करना है, सो तैयारी करो...!
महाराज, सम्मान किसे नही मीठा लगता... हम दोनों साढ़ू भाई उत्साहित हो एक-दूसरे के चेहरे की खुशी पढ़ रहे थे..... कुछ समय बाद सभा सज गई और हमे बारी-बारी "सरोपा" पहना कर सम्मानित किया गया और भजन-कीर्तन गाने शुरू हो गए, गोविंद जी ने ढोलक बजाने वाले से पूछा, " भाई हारमोनियम वाले कहाँ है " तो जवाब मिला कि वो आज गाँव चले गए है। सो मैने गोविंद जी से कहा कि एक साज मेरे पास भी है यदि आप कहे तो मैं उनकी संगत कर सकता हूँ.......गोविंद जी बोले, " जरूर जी, यह खुला मंच है यहाँ कोई भी अपनी प्रतिभा प्रदर्शित कर सकता है " ..........वे सब स्थानीय भाषा में भजन गा रहे थे जो मुझे पूरी तरह से समझ तो नही आ पाये, परन्तु दोस्तों संगीत की कोई भाषा नही होती... तो उनमें रच-बस मैं बाँसुरी बजाने लगा। मुझे उन संग बाँसुरी बजाते देख विशाल जी के मुख पर गौरवमय भाव थे और दोस्तों यह पहला अवसर था जब मैने किसी मण्डली में बैठ बाँसुरी बजाई थी। खैर बहुत आनंद आ रहा था इस लंगर पर पहुँच कर, और हम अपने-आप को कोस रहे थे कि हम श्री खंड जाते हुए यहाँ पहली रात क्यों नही रुके।
गोविंद जी ने हमारे सोने की व्यवस्था बेहद अच्छे तरीके से की, उन्होंने हमे एक अलग कमरा दिया सोने के लिए और नींद भी खूब आई....... फिर से सुबह आई और हम दोनों ने तैयार हो कर गोविंद जी और सतीश जी के पास पहुँच कर आभार व्यक्त करते हुए यथासंभव राशि का लंगर अनुदान दिया और गोविंद जी ने हमारा नाम और पता नोट किया...एक वर्ष बाद यानि इसी वर्ष हम दोनों को ही उनके द्वारा भेजा हुआ श्री खंड महादेव यात्रा का निमंत्रण- पत्र डाक द्वारा प्राप्त हुआ...... और वह कागज का एक टुकड़ा मन की बेताबी तारों संग छेड़खानी सा कर गया।
................................(क्रमश:)
बराहटी नाले के ऊपर जंगल में स्थानीय देव का मंदिर और दुकानदार की तरफ से लिया रात्रि विश्राम हेतू तम्बू। |
जूना अखाड़ा लंगर बराहटी नाले से एक दम खड़ी चढ़ाई। |
सिंहगाड़ के रास्ते में आये एक लंगर पर मैं बासी व ठंडे पकौड़े ही खाता चला गया, भाई पांच दिनों बाद मुझे मेरा मनपसंद व्यंजन जो मिल गया था। |
सिंहगाड़ से कुछ पहले... पम्मा और उसके आगे टार्च संभाले बाबा जी। |
गिरचाडू देवता मंदिर सिंहगाड़ के प्रांगण श्री खंड सेवा मण्डल द्वारा लगाया गया लंगर शिविर। |
मैं, सतीश अग्रवाल और गोविंद प्रसाद शर्मा जी। |
लंगर छकने के लिए बैठने की व्यवस्था। |
लंगर बांटते हुए स्वंय सेवक। |
गोविंद जी ने हमारे संग ही बैठ कर रात्रि भोजन किया। |
निहायत ही स्वादिष्ट था भोजन दोस्तों। |
सभा का आरंभ करते गोविंद जी। |
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और, मैं उन संग बैठ बाँसुरी बजाने लगा। |
एक झलक उस भजन की।
( इस चित्रकथा का अंतिम भाग पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें )
बहुत ही बढ़िया यात्रा विवरण गोविंद जी ने सही कहा शिव के यहा हाजरी लगाना ही बड़ी बात है
जवाब देंहटाएंजी हां लोकेन्द्र जी, बेहद धन्यवाद जी।
हटाएंविरोधाभास झल रहा है आज के लेख में..
जवाब देंहटाएंपोजिटिव बने रहने से खुशी मिलती रहेगी...
संदीप जी, क्या करे मन की चंचलता के आगे क्या जोर.... बहुत कुछ सीखा है इस अधूरी यात्रा के अनुभवों से, जी।
हटाएंबढ़िया यात्रा रही । जय भोले की
जवाब देंहटाएंबेहद धन्यवाद मुकेश जी, जय भोलेनाथ।
हटाएंटोपी न ले आए पाने का दुख दिख रहा है...तर्क भी अच्छा लगा कि इस क्षेत्र में आ गए क्या यही कम है..और वापस बांसुरी बजाने के लिए भी मिल गया मौका आपको...बढ़िया पोस्ट
जवाब देंहटाएंटोपी लाने में क्या बुराई थी ,अगर विशालजी ने मना कर दिया था तो क्या हुआ आपको अपना अधिकार यूज करना चाहिए। बांसुरी शानदार बजाई।
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