" पापी व दुराचारी को रोकता वो द्वार "
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25-07-2016...के दिन सुबह के 7बजे, मैं और विशाल रतन जी श्री खंड यात्रा के पहले पड़ाव सिंहगाड़ में श्री खंड सेवा मण्डल लंगर के प्रबंधक गोविंद प्रसाद शर्मा जी और सतीश अग्रवाल का आभार व्यक्त कर... जांओं गाँव की ओर चल दिये, कल रात को इसी लंगर पर ही मिले एक जनाब ने हमारे साथ "साई-बधाई" लगा ली कि कल सुबह अाप मुझे अपनी गाड़ी में ले जा कर शिमला उतार देना... ऐसे ही तीन और औरतों ने मुझे रात में पूछा कि आपके पास गाड़ी है, हमें फलां-फलां जगह उतार देना.... परन्तु मैं किसी को भी साथ नही ले जाना चाहता था क्योंकि मैं अपनी मर्जी का मालिक हूँ... यहाँ मुझे पहाड़ ने रोक लिया, ना जाने कितना समय उसे खड़ा निहारता रहूँ, उस संग बातें करता रहूँ और जहाँ चाहूँ उस ओर चला जाऊँ.... किसी बंधन में नही बंधना हमें, सो उन तीनों महोतरमाओं को सुबह कहा कि हमे देर से जाना है और रात से चिपके शिमला वाले जनाब जब नहा रहे थे, उन्हें अलविदा कह लंगर से निकल लिये, हमें जाता देख उन जनाब का चेहरा ऐसा हो गया जैसे हम नही उनकी प्रथम श्रेणी की रेलगाड़ी छूट रही हो। लंगर के बाहर निकले तो बहादुरगढ़ निवासी मोटे शीशों की ऐनक वाले जनाब भी वापसी सम्बन्धी पूछताछ करने लगे, उन्हें भी टाल-मटोल कर दिया.... क्योंकि हम दोनों अपनी एकान्तता किसी संग बांटना नही चाहते थे और हमें वापसी में "निरमण्ड" के परशुराम मंदिर और भगवान शिव के गुफा मंदिर "देव-ढाँक" भी तो जाना था... यदि उन सब को गाड़ी में भर लाता, तो उन स्थानों पर कैसे पहुँच सकता था दोस्तों।
लंगर से कोई बीस कदम ही चले थे कि सामने दुःखद दृश्य दिखाई पड़ा, वह चौथी लाश थी... तीन लोग पिछले एक सप्ताह में इस यात्रा पर मर चुके थे... चौथी लाश बना सिंहगाड़ गाँव जलेबी-पकौड़ों का लंगर बनाने वाला हलवाई, जिससे हमनें यात्रा पर जाते समय खूब जलेबी-पकौड़े खा कर गए थे... उस हलवाई की कोई ज्यादा उम्र भी नही थी, उसकी मृत्यु का कारण ह्रदयघात बताया गया... अब नेपाली कुली उस लाश को लोहे के दो पाइपों के मध्य बांध कर जांओं गाँव सड़क तक पहुँचानें की तैयारी कर रहे थे ताँकि उस लाश को उसके गाँव पहुँचाया जा सके....बार-बार उस हंसमुख से चेहरे वाले पतले-दुबले हलवाई का चेहरा मेरी आँखों के आगे घूम रहा था और दिमाग़ ने दबी सी ज़ुबान में मेरे मनमौजी मन को कहा, " देखा विकास, तू बच कर जा रहा है.. तेरी बात यदि मैं ऊपर बसार गई में मान लेता यहाँ बर्फीला तूफ़ान आया था, तो ये लोहे की दो पाइपें तेरे काम भी आ सकती थी पगले...!!! "
दोस्तों, मैने अपने जीवन में घटी हुई घटनाओं से सीखा है कि जो भी आपके साथ घट रहा होता है वो मौके पर कभी आपको अच्छा नही लगता, कि मेरे साथ यह जो भी घटित हो रहा है गलत हो रहा है.... परन्तु कुछ समय बाद लगता है कि चलो जो हुआ था वो अच्छा ही हुआ, इसी में मेरी भलाई थी।
खैर कुछ क्षणों बाद ही मेरे दिमाग़ पर हलवाई की मौत को वापसी के रास्ते पर आ रहे मनमोहक दृश्यों ने दबा दिया.... वो मिट्टी के बने पुराने घर मुझे अपने से लगने लगे, जिन्हें मैं श्री खंड जाते समय मिल कर गया था... रास्ते में गाँव के घरों के बाहर बगीचों में लगे फूल अब मुरझा चुके थे, जिन्हें 6दिन पहले हम खिलखिलातें हुए छोड़ गए थे, परन्तु जीवन चक्र का नियम बादस्तूर चल रहा था, 6दिन पहले देखी कलियाँ अब फूल बन मुस्कुरा रही थी। गाँव के बाहर जगह-जगह खुद ही उग आये जंगली डेज़ी के फूल हमें झूम-झूम कर रुख़सती दे रहे थे।
डेढ़ घंटा लगातार चलते रहने के बाद हम उस जगह पहुँचे जहाँ से श्री खंड शिला के प्रथम दर्शन होते हैं, उस जगह पहुँचते ही मैने झट से पीछे मुड़ देखा तो आनंद ही आ गया क्योंकि जाते समय बादलों के कारण हमे श्री खंड शिला के दर्शन नही हो पाये थे, परन्तु अब श्री खंड महादेव शिला आज हमें देख मुस्कुरा रही थी और एकाएक मेरे अंर्तमन में स्वर गूँजनें लगे, " विकास, मैं बोल रहा हूँ शिव.... तू मुझ तक ना पहुँचने को हार-जीत में मत तोल, बल्कि इसे सीख मान चल.... और हां एक बात और, यदि तू मान लेगा तो तेरी हार है, ठान लेगा तो तेरी जीत है... तू दोबारा से ठान कर आना, तेरा सदा स्वागत है..!!! "
श्री खंड महादेव शिला के अंतिम दर्शन पा हम दोनों अपने-आप को धन्य व शांत महसूस कर रहे थे.... दो घंटे चलने के बाद यानि 9बजे हम जांओं गाँव पहुँच गए, जहाँ पिछले 6दिनों से हमारी गाड़ी सड़क किनारे लावारिस खड़ी थी। गाड़ी को दूर से ही देख मेरा माथा खटका और पास जाने पर वही बात सिद्ध हो गई, क्योंकि हमारी गाड़ी के आगे एक महापुरुष अपनी गाड़ी ऐसे जोड़ कर खड़ी कर गया था कि हमारी गाड़ी आगे नही निकल सकती थी और गाड़ी को रिवर्स करना नामुमकिन था क्योंकि पीछे एक छोटा सा नाला, जिसमें बड़े-बड़े पत्थर और गड्ढे थे... मैं अपनी गाड़ी रिवर्स कर इस ढंग से खड़ी कर गया था कि वापसी पर इसे सीधा आगे की ओर निकाल लूँगां.... पर अब उसे आगे की ओर निकालना असंभव था, जबकि उस महापुरुष के पास आगे काफी जगह थी गाड़ी पार्क करने की... परन्तु वह अपनी गाड़ी मेरी गाड़ी के साथ जोड़ कर खड़ा कर गया।
खैर, मरता क्या ना करता... गाड़ी को स्टार्ट कर रिवर्स गेयर लगाया तो पत्थरों पर फिसल कर गाड़ी पीछे जाने की बजाय सड़क किनारे लगी हुई पत्थरों की रोक नुमा दीवार से जा टकराने लगी, उस दीवार और एक महीना पहले ली हुई मेरी नई गाड़ी में मात्र एक इंच का फासला रह गया। अजीब मुसीबत गले आन पड़ी थी, मन चंचल बोल उठा, " और जवाब दे जरूरतमंद लोगों को, कि मैं किसी को अपने साथ नही ले कर जाऊँगा...ले निकल गई तेरी अकड़ सारी, अब यहाँ बैठ माथा पीट...! " गड्ढों को पत्थरों से भर फिर एक बार रिवर्स में गाड़ी डाल रेस दी तो एक इंच का फासला अब आधा इंच रह गया दीवार से... और पत्थरों की दीवार को संभाल रही लोहे की तारों व गाड़ी की टेल-लाइट में मिलन हो गया, सो झट से अपने स्लीपिंग मैट निकाल बीच में फंसा दिया...कि गाड़ी को खरोंच ना पड़े।
बदकिस्मती ने यहाँ भी हमारा पीछा नही छोड़ा और गाड़ी के पिछले पहिये पत्थरों में धंस गए और गाड़ी फिसल कर पत्थरों की दीवार से जा चिपकी। तभी एक लड़का हमारे पास आ पहुँचा और बोला यह गाड़ी तो फला आदमी की है, मैं उसे फोन कर पूछता हूँ कि वह कहाँ है.... फोन पर बातचीत के अनुसार उसने हमें जवाब दिया कि गाड़ी वाला अभी भीमद्वारी से चला है, पहाड़ी आदमी है...शाम तक आसानी से यहाँ पहुँच जाएगा...!
पर शाम किसने देखी है, कौन उसका इंतजार करना चाहता था और गाड़ी इस प्रकार फंस चुकी थी कि उसे ना तो अब आगे बढ़ाया जा सकता था और ना ही पीछे, क्योंकि वह अपनी जगह पर ही पत्थरों में धंस चुकी थी, सो अब अपने जैक द्वारा गाड़ी के पिछले टायर ऊपर उठाने लगा, पर सब व्यर्थ... अब तो केवल एक ही सूरत बची थी कि गाड़ी को समानांतर दिशा में खींच कर पहले दीवार से दूर हटाया जाये।
कुछ समय बाद हमारे पास दो युवक और आ पहुँचे जो श्री खंड पद यात्रा के रास्ते पर सबसे पहले लगे लंगर (पंजाब के "गागा लहड़ी" कस्बे वालों का लंगर) पर अपने ट्रक में सामान ले कर आये थे.... उन्होंने लंगर से कई और नौजवान, जैक व रस्सी मांगवा लिये। अब हम दस-बारह लोग गाड़ी को सड़क की ओर खींच रहे थे, परन्तु गाड़ी टस से मस भी नही हुई। सब के सब ज़ोर-अज़माइश कर पीछे हट चुके थे, तो गागा लहड़ी लंगर वाले लड़कों ने कहा कि आप लोग लंगर पर आ जाए, गाड़ी को सड़क की तरफ खींचने का कोई प्रबंध वहाँ स्थानीय गाँव में जा कर करतें हैं। विशाल जी उनके साथ लंगर पर चले गए और मैं गाड़ी के पहियों के नीचे की मिट्टी खोदने लगा.... और हां, जाते हुए उस लड़के से गलत गाड़ी पार्क करने वाले महापुरुष का नम्बर भी ले लिया..... उसे फोन लगाया पर "क्षेत्र सीमा से बाहर "
खैर, अब मैं अकेला गाड़ी के नीचे घुस मिट्टी व पत्थर निकाल रहा था, एक तो पिछले 6दिन से हम नहाये नही थे और ऊपर से सूरज देव की क्रूरता मेरे दिमाग के ठंडे पारे को उबालने लगी, रसीले फलों से लदी टहनी सा मेरा व्यवहार, अब सूखी कंटीली झाड़ी में तबदील होने लग पड़ा था। सो गुस्से से बार-बार उस कथित महापुरुष को फोन पर फोन लगाता जा रहा था, परन्तु हर बार " क्षेत्र सीमा से बाहर, पुन: प्रयास करें " मीठी व बेशर्म सी घोषणा कानों के रास्ते दिमाग़ की परेशानी को और बढ़ाती जा रही थी।
दोस्तों, अब सोचता हूँ कि अच्छा हुआ उस समय मेरा फोन उस महापुरुष को नही लगा, यदि लग जाता तो मेरी पंजाबियत उस समय प्रचण्ड सीमा पर उबल रही थी, वो पंजबियत जो पूरे विश्व में बदनाम है कि हर बात पर " जी" साथ लगाने वाले पंजाबी, गुस्से में सामने वाले की माँ-बहन....!!!!!!
माफ़ करना दोस्तों, कुछ अभद्र हो गया हूँ पर उस वक्त मेरा ऐसा ही व्यवहार हो चुका था.... मैं अब थक-हार कर गाड़ी के किनारे सड़क पर ही सिर पकड़ पर बैठा था कि दूर एक ट्रैक्टर के आने की आवाज़ सुनाई दी और उस पर ड्राइवर के बगल में बैठे विशाल जी चमक व चहक रहे थे।
गागा लहड़ी लंगर वालों की रस्सी से ट्रैक्टर व गाड़ी का गठबंधन कर पहले गाड़ी का पिछला हिस्सा सड़क की ओर घसीटा और फिर आगे वाला हिस्सा....और गाड़ी को स्टार्ट कर रिवर्स गेयर लगाया, असहाय हो चुकी गाड़ी अब सड़क पर खड़ी हमारे संग हंस रही थी। पत्थरों की दीवार से गाड़ी के एक दरवाजे को खोलने वाले हत्थे पर मात्र छोटी सी चोट यानि खरोंच आई थी, हम दोनों ने अपनी सूझबूझ से गाड़ी को सुरक्षित बाहर निकाल लिया था।
चेहरों पर अत्यन्त हर्ष के भाव को हम दोनों सांढ़ू भाइयों ने एक-दूसरे को गले लगा और बढ़ाया। दोस्तों साढे तीन घंटे की मेहनत-मुशक्कत के बाद यानि दोपहर साढे बारह बजे हमारी गाड़ी बाहर निकल पाई थी...... ट्रैक्टर वाले सज्जन को असंख्य आभार और सीमित कागज़ी शुक्रानें संग हंसते-हंसते विदा किया।
ट्रेक्टर वाले के जाने के बाद, हंसते-हंसते मेरा चेहरा एक दम से कठोर हो गया.... क्योंकि अंदर का पंजाबी फिर जाग रहा था और सड़क किनारे पड़े एक बड़े से पत्थर को उठा, उस कथित महापुरुष की गाड़ी की ओर बढ़ने लगा। विशाल जी झट से मेरी मंशा समझ गए.... मेरे हर कदम पर "नही, नही, नही विकास ऐसा मत करो..!" मैने अपनी दोनों भुजाओं को सिर से ऊपर उठा रखा था और हाथों में पत्थर लहरा रहा था व निशाना बन चुका था उस महापुरुष की गाड़ी का मुख्य शीशा।
विशाल जी लगातार चीख रहे थे, " नही विकास, नही विकास इस पागल की तरह पागल मत बनो "..........विशाल जी की बात सुन अब मेरे दिमाग़ में द्वंद्व आरंभ हो चुका था "बुरे विकास नारदा और अच्छे विकास नारदा में "......... और चंद ही क्षणों के बाद अच्छे विकास नारदा की जीत हुई। मैने अपनी भुजाओं को नीचे कर पत्थर उस महापुरुष की गाड़ी के बोनट पर रख दिया, विशाल जी की साँस में साँस अाई और तब मैं बोला यदि मेरी गाड़ी इस अनाड़ी ड्राइवर के आगे खड़ी होती तो निश्चित है विशाल जी यह बंदा मेरी गाड़ी का शीशा अवश्य तोड़ कर जाता।
चलो खैर अब हम गाड़ी ले कुछ ही दूर गागा लहड़ी वालों के लंगर पर जा रुके, जहाँ हमने उनकी रस्सी (जो अब तीन जगह से टूट चुकी थी) और जैक भी उन्हें वापस करना था। लंगर वालों के आग्रह पर वहीं दोपहर का भोजन करने के उपरांत हम चल दिये वापसी के रास्ते पर.........निरमण्ड नही रुक पाये क्योंकि हमारा सारा समय तो गाड़ी को निकालने के चक्कर में लग चुका था, सो एक-डेढ़ घंटा गाड़ी दौड़ाने के बाद करीब ढाई बजे सीधे ही देव-ढाँक जा पहुँचे।
देव-ढाँक गुफा सतलुज नदी की घाटी में ऊँचे पर्वत के मध्य प्राकृतिक रुप से बनी हुई है....गाड़ी खड़ी कर जैसे ही हम बाहर निकले, एक स्थानीय बूढ़ी माँ ने हमें पूछा कि बेटा श्री खंड जा रहे हो। मैने कहा नही माता जी, हम तो श्री खंड से वापस आ रहे हैं.... तो वे बोली, " अच्छा, वैसे हमारी रीत यह है कि जो भी श्री खंड जाना चाहता है वह पहले देव-ढाँक माथा टेक कर जाये। " हमारी अधूरी यात्रा पर वे माता जी पुन: बोली, " बेटा, शिव जी ने तुम लोगों को जीवन दान दिया है... इसलिए उसने तुम्हें वापस भेज दिया, यह उसकी लीला है जो तुम नही समझ पाये...!!! "
मैने उन संग अपनी सैल्फी खींचने के लिए उन्हें कहा, तो वह बोली, " मेरा दोहता अम्बाला में रहता है और ऐसे ही अजीब-अजीब सी शक्ल बना कर मेरे साथ फोटो खींचता है। " मैं हंसते हुए बोला, " नानी, यह आज की पीढ़ी का रंग-ढंग है, अलग- अलग शक्लें बना खुद की ही फोटो खींचना...! "
मंदिर परिसर में पहुँच हम दोनों ने सबसे पहले 6दिनों से ना नहानें के कारण, चंडाल जैसे बने रंग-रुप को स्नानघर में पहुँच "बंदों" में शामिल किया। स्नान के पश्चात हम दोनों गुफा की ओर बढ़ दिये.... पर यह क्या गुफा का प्रवेश द्वार बहुत ही संकरा था, और तभी वहीं पता चला कि देव-ढाँक की इस शिव गुफा के द्वार से केवल पुण्य कमाने वाला व्यक्ति ही प्रवेश पा सकता है पापी नही, अर्थात् स्थानीय लोगों की मानें तो यह शिव गुफा मापदंड है "सदाचारी या दुराचारी व्यक्ति की पहचान का " सदाचारी व परोपकारी व्यक्ति कितना भी मोटा क्यों ना हो, वह इस गुफा में प्रवेश कर जाएगा... परन्तु यदि दुराचारी पापी व्यक्ति जितना भी दुबला-पतला हो वह इस द्वार के पार नही जा सकता।
दोस्तों, मैं बहुत दफा सोचता हूँ कि क्या पाप करने वाले व्यक्ति को ज्ञात होता है कि वह पाप कर रहा है, उदाहरण के तौर पर क्या चोर को पता होता है कि वह चोरी कर पाप कर रहा है...नही उसे नही पता होता है कि वह पाप कर रहा है, यदि उसे पता चल जाए कि चोरी करना पाप है.. तो वह शायद इसे ना करे, चोर चोरी को पाप ना मान कर इसे अपना कर्म मानता है। ठीक वैसे ही रिश्वतखोर कहाँ मानता है कि रिश्वत लेना पाप है, वह तर्क देता है कि यह तो मेरी काम करने की फीस है।
खैर, हम दोनों भी फंस-फंसा कर ही सही... पर गुफा के उस संकरे द्वार को पार कर भीतर पहुँच ही गए। देव-ढाँक गुफा एक छोटी सी प्राकृतिक गुफा है जिसमें मानव-निर्मित शिवलिंग के ऊपर छत से निरंतर जल की बूँदें टपकती रहती हैं, गुफा के मध्य से एक छोटा सा रास्ता भी कहीं जाता सा नज़र आता है... जिसके बारे में मान्यता है कि भस्मासुर नामक राक्षस से बचते हुए भगवान शिव ने इसी गुफा में शरण ली थी और इसी संकरे छोटे से भूमिगत रास्ते द्वारा भगवान शिव श्री खंड कैलाश पर्वत पर गए थे। गुफा से बाहर निकलने का रास्ता यानि निकासी द्वार भी अलग है, वह भी प्रवेश द्वार की तरह ही बेहद संकरा सा ही है। गुफा से बाहर निकल मैं विशाल जी से बोला, " मुझे लगता है कि इस गुफा के द्वार ने अब कलयुग में काम करना बंद कर दिया है, यदि यह पूर्ण रुप से काम करे तो आज का कोई भी मानव इस मंदिर के अंदर ना जा पाये...शायद मंदिर का पुजारी भी नही....!!!!"
जब हम दोनों गुफा मंदिर से वापस अपनी गाड़ी के पास जा रहे थे तो मंदिर परिसर के बाहर रास्ते किनारे आठ-दस नवयुवकों का दल बैठा था, जो हमें श्री खंड यात्रा के दौरान नयन सरोवर से आगे मिला था...वे सब एक चिलम को बारी-बारी से घूमते हुए बम-भोले के उद्घोष संग फूँकें जा रहे थे। देखते ही वे हमें पहचान गए और बोले, " आओं ट्रेकर बंधुओं.... तुम भी भोले के आनंद में दो-चार कश खींच लो...! " मैं हंसते मुख पर दुखी ह्रदय से मात्र यह ही बोल पाया, " शिव जी ने हमें इस धुँऐं के बगैर ही अनंत आनंद दे रखा है मेरे नौजवान दोस्तों...!!! "
शाम के 4बजे घर वापसी की राह पकड़ ली...नारकण्डा के पास सड़क पर हुई एक दुर्घटना में एक गाय मरी पड़ी थी और गिद्धों का झुंड उसे नोच रहा था.... यह भीषण दृश्य देख, मैं कहाँ चुप रहने वाला था....सो बोल उठा, " विशाल जी, पिछले जन्म में संत विकासश्वेर जी ने कहा था कि ऐसा कलयुग आयेगा घर में बंधी गाय रास्तों पर भटकेगी और रास्तों में भटकने वाला कुत्ता घर में बंधा होगा.....! क्या विडम्बना है कि हम लोग कितने स्वार्थी हैं कि सारी उम्र हमें अपना दूध दे पालने वाली गाय को बूढ़ी होने पर हम उसे डंडें मार घर से बाहर निकाल देंते हैं, सड़कों पर मरने और मारने के लिए.....और दूसरी ओर एक कुत्ते के पिल्ले को अपने बच्चों की तरह पालतें है और तब तक पालते है जब तक वह बूढ़ा हो मर नही जाता, वाह रे मानव, तेरी लीला भी अपम्पार है.....!!!!
.........................(समाप्त)
सिंहगाड़ गाँव में गिरचाडू देवता का मंदिर, जिसके प्रांगण में हर वर्ष यात्रा के समय श्री खंड सेवा मण्डल द्वारा लंगर लगाया जाता है। |
वापसी का राह... पर्वतों की सुंदरता में बसे घर। |
मिट्टी के घर, मुझे अपने से लगे.. क्योंकि जाते समय मैं इनसे मिल कर जो गया था, दोस्तों। |
वाह बेटी, तुम्हारा घर भी बहुत खूबसूरत है। |
डेजी के आवारा फूल.... हमें झूम-झूम कर रुख़सती दे रहे थे। |
पर्वत की ऊँचाई से सेब-सब्जियों को सड़क तक पहुँचाने के लिए लगे यंत्र। |
पीछे मुड़ कर देखा, तो यह नज़ारा था... श्री खंड महादेव शिला के अंतिम दर्शन कर अपने आप को धन्य व शांत महसूस कर रहे थे हम दोनों। |
लो, कुछ ओर नजदीक से देख लो दोस्तों श्री खंड महादेव कैलाश। |
इससे ज्यादा नजदीक नही दिखा सकता दोस्तों, कैलाश पर्वत पर स्थित श्री खंड महादेव शिला। |
यह देखिए, उस कथित महापुरुष की करतूत। |
इस कथित महापुरुष ने अपनी गाड़ी हमारी गाड़ी के आगे जोड़ कर ऐसे खड़ी की, कि हमारी गाड़ी इसके पीछे फंस गई। |
आखिर साढे तीन घंटे की मेहनत के बाद ट्रैक्टर वाले इन सज्जन ने हमारी मदद की और हम दोनों सांढू़ भाइयों ने गाड़ी को बगैर नुक्सान के बाहर खींच लिया। |
गाड़ी अब हमारे संग हंसती हुई वापसी की डगर पर बढ़ रही थी.... निगाहें कहाँ अब एक जगह रुक रही थी, निरमण्ड के बाद घाटी की सुंदरता। |
देव-ढाँक के रास्ते में दिख रही सतलुज घाटी का मनोरम दृश्य। |
देव-ढाँक पहुँचने से कुछ पहले घाटी में दिखाई दे रहे..... सतलुज नदी और किनारे बसे गाँव। |
वो देखो, पहाड़ के मध्य दिख रहा देव-ढाँक शिव गुफा मंदिर। |
देव-ढाँक गुफा को जाता रास्ता। |
बेटा, तुम शिव जी की लीला नही समझ पाये... उसने तुम्हें जीवन दान दिया है।
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पर यह क्या... गुफा का द्वार तो बेहद संकरा है। मान्यता है कि इस द्वार को केवल परोपकारी व्यक्ति ही लाँघ सकता है, कोई पापी नही। |
पापी को रोकने वाले इस द्वार के अंदर का दृश्य... |
देव-ढाँक गुफा के अंदर का दृश्य....शिवलिंग पर गुफा की छत से निरंतर जल की बूँदें टपकती रहती हैं। |
गुफा की दीवार में उभरी हनुमान जी की आकृति। |
मान्यता है कि इस रास्ते से ही भगवान शिव भूमिगत रुप में श्री खंड कैलाश गए थे। |
गुफा मंदिर का निकासी द्वार भी बहुत ही तंग है, जिसमें से निकल रहा मैं। |
सड़क पर दुर्घटना... गाय की मौत और गिद्ध। |
(2) करेरी झील...." मेरे पर्वतारोही बनने की कथा " यात्रा वृतांत की धारावाहिक चित्रकथा पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें।
(3) " पैदल यात्रा लमडल झील वाय गज पास " यात्रा वृतांत की धारावाहिक चित्रकथा पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें।