शुक्रवार, 25 अक्तूबर 2019

भाग-7 " मणिमहेश, एक दुर्गम रास्ते से...!" (Manimahesh via kalah pass)

भाग-7 "मणिमहेश, एक दुर्गम रास्ते से....!"

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                   "अलौकिक दर्शन कैलाश के"



               17अगस्त 2014...... ग्यारह बज चुके थे, सूर्यदेव खूब चमक रहे थे। सुखडली से जैसे ही मैं और मेरे साढूँ भाई विशाल रतन जी कलाह पर्वत की आखिरी चढ़ाई चढ़ने के लिए चले, तो एक साधु अकेले ही जेल-खड्ड की तरफ से चलते हुए हमारे पास से गुज़र, आगे निकल गए।  हम दोनों उनके पीछे-पीछे ग्लेशियर पर चढ़ने लगे जिसके पार सफेदी से रंगा रास्ता, दीवार नुमा कलाह पर्वत के सुगठित तन पर चढ़ रहा था। छोटी-बड़ी चट्टानों व पत्थरों से बने रास्ते पर बढ़ रहा हर एक कदम हमें ऊँचा ले जा रहा था।
                       बीस कदम ही चले थे कि साँस भी चढ़ने लगा। ऐसे आभास होने लगा कि हमारी टाँगे हमारे शरीर के भार को उठाने में दिक्कत महसूस कर रही हो। वो अकेला साधु हम से काफी आगे निकल चुका था, खैर हम दोनों धीरे-धीरे कलाह पर्वत की दीवार नुमा चढ़ाई चढ़ रहे थे।
                        बीस-तीस कदम चलते ही हमारी साँसें धौंकनी की तरह फूल जाती,  नाक से साँस लेना हमें कम पड़ने लगा सो मुँह से साँसों का तेज़ क्रम निरंतर चल रहा था।  थोड़े-थोड़े समय बाद रुक कर बेकाबू हुई अपने हृदय गति को काबू में लाते।
                        एक घंटा बीत चुका था चढ़ते-चढ़ते, दोपहर के 12बज चुके थे.... उस ऊँचाई पर पहुँच कर सामने दिख रहे "कुज्जा वज़ीर पर्वत" की भव्यता और दूर दिख रही धौलाधार पर्वतमाला में "तलांग पर्वत" की सुंदरता देख मन को सुकून मिल रहा था। कुछ आगे चढ़े तो देखा कि हमसे आगे गए वह साधु किसी एक जड़ी-बूटी को इकट्ठा कर रहे थे। हम दोनों भी उनके पास जा बैठे,  तो बातचीत से मालूम पड़ा कि वह साधु पिछले सात दिनों से पैदल ही "बैजनाथ" से चलकर प्राचीन रास्ते द्वारा धौलाधार पर्वत श्रृंखला के "जालसू पर्वत" को लांघ कर मणिमहेश जा रहे हैं...... यह सुन कर एक बार तो हम नये पनपे पर्वतारोहियों की हवा निकल गई कि यह बाबा पिछले सात दिनों से इन पहाड़ों में पैदल चला आ रहा है।
                     खैर, कुछ दम लेने के बाद अब हम तीनों ही इकट्ठा ऊपर की ओर चढ़ने लग पड़ते हैं। कुछ ऊपर चढ़े तो वहाँ से नीचे दिख रहा सुखडली ग्लेशियर का दृश्य अब तक इन आँखों में कैद है दोस्तों।
                     जैसे-जैसे ऊपर चढ़ते जा रहे थे मेरे शरीर में अजीब सा बदलाव आता जा रहा था....मेरा दिमाग सुन्न सा हो रहा था, ऐसा प्रतीत होने लगा कि मैं कई दिनों से जैसे सोया ही नही हूँ। मन कर रहा था कि अभी यहीं रास्ते में सब कुछ छोड़ कर सो जाऊँ,  परंतु मन में एक अजीब सा डर भी बैठ चुका था कि यदि मैं यहाँ सो गया, तो शायद फिर कभी उठूँगा नहीं। ऐसा ही हाल विशाल जी का भी हो रहा था, वह भी आँखें बंद किए जा रहे थे और मैं उन्हें भी सोने नहीं दे रहा था और वह साधु बाबा हमें हल्ला-शेरी देकर अपने साथ चलाए जा रहे थे। हमें खुद भी समझ नहीं आ रहा था कि हमारे साथ यह क्या हो रहा है। दरअसल दोस्तों,  यह सब उस दबाव के कारण हो रहा था जो समुद्र तट से बढ़ रही उस ऊँचाई के वजह से हमारे शरीर पर पड़ रहा था, जिस ऊँचाई पर हम अपने जीवन में पहली बार पहुँच रहे थे।
                     आखिर दोपहर दो बजे कलाह पर्वत शिखर के पास गड़े झंडों की फड़फड़ाहट ने बता दिया कि अब कलाह शिखर दूर नहीं है........और, उस आखिरी चट्टान पर चढ़ते हुए जैसे ही सिर ऊपर उठा, तो हमारा स्वागत तेज़ हवा के झोंके ने किया। साधु बाबा ने उत्साहित हो शिखर की दूसरी तरफ झांकते हुए....बादलों से घिरे पर्वतराज की ओर इशारा कर कहा- "यह है भोलेनाथ का निवास स्थान, कैलाश"
                       और, हम तीनों खुशी से नरमस्तक हो गये। कलाह पास पर अब हम तीनों चौकड़ी मारकर बैठ चुके थे। मेरी आँखों के नीचे कुछ सूजन सी हो चुकी थी, होठ भी खुश्क हो फटने लगे थे और सिर में हल्का सा दर्द हो रहा था। परंतु कलाह शिखर पर बैठ कैलाश पर्वत को एकटक निहारने का परमसुख इन सब विपदाओं पर भारी था दोस्तों, चाहे बादलों ने कैलाश पर्वत की ऊँचाई को आधे से ज्यादा अपने आगोश में ले रखा था।
                     तभी हमारे मददगार वो साधु बाबा उठ खड़े हुए और बोले- "अच्छा मैं चलता हूँ, आप लोग धीरे-धीरे उस दिशा की ओर उतर आना.....सामने मणिमहेश झील नज़र आने लगेगी।"     और, वो बाबा जी हमें दोबारा फिर कहीं पर भी नज़र नहीं आए, शायद मणिमहेश झील पर पहुँच भीड़ में कहीं गुम हो गए होंगे।
                       मैं और विशाल जी कलाह पास पर बैठे, दोनों ओर के नज़ारों को आधे घंटे तक निहारते रहे कि एकाएक मौसम बदला और हल्की बूँदाबांदी के साथ कंचों के आकार जैसे बड़े-बड़े 'गड़े' कहीं-कहीं पर गिरने लगे तो हम दोनों अपने सिरों पर हाथ रख नीचे की ओर भाग पड़े और एक बड़े पत्थर के नीचे घुस कर जा बैठे। हमारी किस्मत अच्छी रही कुछ मिनटों बाद ही बारिश थम गई।
                        हम पगडंडी का अनुसरण करते हुए पिछले एक घंटे से नीचे की ओर उतरते जा रहे थे कि  एकाएक आँखों में मणिमहेश झील का विहंगम दृश्य आ समाया और हम दोनों साढूँ उत्साहित हो चिल्लाने लगे। थोड़ा सा और नीचे उतरे तो झील के सामने कैलाश पर्वत भी नज़र आने लगा। परंतु अभी भी कैलाश को बादलों ने  घेर रखा था।
                  कलाह शिखर की ओर से एक कुत्ता भी हमारे पास आकर खड़ा हो गया, इस कुत्ते को कल मैंने जेल-खड्ड लंगर पर देखा था। वह कुत्ता भी हमारे साथ- साथ झील की और उतरने लगा।  तभी नीचे दिख रहा झील का मंज़र कहीं से उड़कर आए बादलों में ढक लिया और कुछ क्षणों बाद बादलों के गुज़र जाते ही झील फिर से प्रकट हो गई। ऐसी आँखमचौली का क्रम अब निरंतर चल रहा था, हम दोनों एक जगह बैठ कर दम लेते हुए ऊपर से झील की तरफ देखते रहे। जब भी हवा का झोंका झील की तरफ से ऊपर की ओर यानि हमारी तरफ आता तो "लो-बाण" (ऊँचाई पर पैदा होने वाली जंगली धूप) की सुगंध लाता।
                     जैसे-जैसे हम झील के पास उतरते जा रहे थे, हमारा ध्यान झील पर मौजूद भीड़ खींचने लगी। आखिर शाम के 4बजे हमने मणिमहेश झील पर पहुँच कर पाया कि यहाँ तो हर तरफ भीड़ ही भीड़ है।  खैर अब हम दोनों भी उस भीड़ का हिस्सा बन चुके थे। झील के किनारे लगी कच्ची टैंट नुमा दुकानों पर कुछ पूछताछ करने पर हमें रात रुकने के लिए एक टैंट नुमा दुकान पर आखिर जगह मिल गई,  जिसके अंदर आठ-दस लोग पहले ही लेटे हुए थे।  बिस्तर के नाम पर उस दुकानदार ने बेरुखी से हमारे हाथ में तीन पतले से कम्बल थमा दिये कि एक कम्बल नीचे बिछा कर, दो कम्बल ऊपर ओढ़ लेना।
                       अतिरिक्त कम्बल की हमारी मांग उसने सिरे से खारिज़ कर कहा कि उसके टैंट में जो आखिरी जगह व कम्बल बचे थे, वो आपको दे दिये हैं।
                   अब हमारे पास भी इसके अलावा कोई और विकल्प भी कहाँ बचा था,  बाहर घूम रही भीड़ को देख उस दुकानदार द्वारा दिखाई जगह पर हम दोनों ने जा डेरा जमाया।
                     टैंट में पहले से एक परिवार भी लेटा हुआ था, मियां-बीवी और उनके दो बच्चे। बातचीत के दौर में उन्होंने कहा कि हम तो दिल्ली से आये थे कि इन छुट्टियों में मणिमहेश झील की यात्रा करते हैं परंतु यहाँ तो भीड़ ने सारा मज़ा ही किरकिरा कर रखा है।  जब हमने उन्हें कहा कि उस भीड़ की वजह से ही हम भरमौर से आगे नहीं बढ़ पाये और फिर कलाह पास वाले लम्बे व दुर्गम रास्ते से यहाँ पहुँचे हैं,  तो उनके चेहरों पर हैरानी के भाव उभर आये। दिल्ली वाले परिवार के आगे उत्तर प्रदेश से आये दो मित्र भी बैठे थे, जो अभी-अभी झील के बर्फीले जल से स्नान पवित्र स्नान कर आये थे......ने अपना अनुभव सुनाया कि भैया इतना ठंडा पानी कि दो डिब्बे ही काफी है सिर पर डालने के लिए, पर नहा कर सारी थकान उतर गई।
                        अब हम दोनों भी ज़रा लेट कर अपनी पीठ सीधी करना चाहते थे, सो जैसे से ही कुछ सामान निकालने के लिए मैंने अपने रक्सैक खोली तो देखा कि रक्सैक के बीच रखी दही की डिब्बी का ढक्कन खुलने से दही बिखर चुका था। यह देख मुझे याद आया कि हमने त्यारी गाँव से पैदल चलने से पहले खाने-पीने के सामान साथ दही की डिब्बी भी खरीदी थी कि रास्ते में कहीं खा लेंगे...... परंतु समुद्र तट से बढ़ती ऊँचाई ने मुझे भुलक्कड़ सा बना दिया,  मैं भूल ही गया कि मेरी रक्सैक में दही भी पड़ा है। खैर रक्सैक को एैसे ही बंद कर, पहले कुछ समय के लिए लेट जाते हैं....कहकर हम दोनों लेट गए।
                      एक-डेढ़ घंटा आराम करने के बाद पेट की दस्तक पर हम दोनों टैंट से बाहर आ कुछ खाने के लिए लंगरों की ओर बढ़ गये।  झील की एक तरफ लगे लंगरों में ऐसी प्रतिस्पर्धा चल रही थी,  जैसे किसी बस अड्डे पर एक ही जगह जाने वाली दोनों बसों के परिचालक सवारियों को ऊँची-ऊँची आवाज़ें मार इशारों से अपनी बस की ओर आकर्षित कर रहे हो.... ठीक ऐसा ही दृश्य वहाँ भी था। 
                     "भक्तों आओ, खीर व मालपुऐं खाओ.... नहीं इधर आओ गरमागरम ब्रेड पकोड़े.... नहीं इनको छोड़ो केसर दूध और जलेबी....!!!"
                     भक्तों की भीड़ भी दुविधा में थी कि क्या छोड़े और क्या खाये..... या कौन सा पकवान पहले खायें और कौन सा उसके बाद....!  खैर, हमने चाय-पकौड़ों की तरफ अपने पैर मोड़ लिये।  मैंने ध्यान दिया कि काफी सारे लोग टकटकी लगाकर बादलों से घिरे कैलाश शिखर की ओर निरंतर देखते जा रहे थे। लंगर के तम्बू में हमने अभी चाय पीना शुरू ही किया था कि बाहर एकाएक शिव के जयकारों का गगनभेदी गुंजन गूँज उठा। उत्सुकता से बाहर आ देखा तो सब लोगों का चेहरा कैलाश शिखर की ओर ही था...... कैलाश शिखर से बादलों ने अपना पर्दा हटा लिया था और जो दृश्य नज़र आने लगा वो अलौकिक था।
                         पूछने पर ज्ञात हुआ कि शिखर के पास बर्फ में जो अकेला पत्थर नज़र आ रहा है वह शिव का प्रतीक है। तभी दूसरे क्षण मेघराज ने फिर अपनी बाँहें फैला ली, अलौकिक दृश्य आलोप हो गया। परंतु हर किसी की नज़र वहाँ से हट नहीं रही थी, चंद क्षणों में पवन देव की कृपा से हठी मेघराज को फिर अपना हठ छोड़ना पड़ा और गगन पुनः गूँज उठा।
                       हम चाय पीना भूल, अब उस टकटकी बांधी भीड़ का हिस्सा बन चुके थे। मेरे हाथ में कैमरा था.... जिसकी अंतिम पाँच प्रतिशत बैटरी मैंने ऐसे ही यादगारी क्षणों को कैद करने के लिए बचा रखी थी, जबकि हमारे मोबाइल फोन तो कब के चिरनिंद्रा में पहुँच चुके थे।
                      झील पर बिजली के नाम पर अंधेरा होने पर दो घंटों के लिए जरनैटर चलाया जाता है दोस्तों, जिससे आस बंध चुकी थी कि हमारे फोन व कैमरा अब दोबारा चार्ज हो जाएंगे। परंतु बत्तियाँ जगने पर हमारे टेंट के स्वामी ने बेरुखी से कह दिया कि उसके पास मोबाइल आदि चार्ज करने के लिए कोई व्यवस्था नहीं है। झील के किनारे एक दुकान पर बीएसएनएल का "वाई मैक्स" सेटेलाइट फोन था, जहाँ फोन करने वालों की लाइन थी। हम दोनों ने वहीं से फोन कर अपने घर अपनी कुशल-मंगलता बताई, क्योंकि पिछले दो दिन से हमारी घर पर कोई बात नही हो पाई थी। 
                    विशाल जी चाहते थे कि वह कल सुबह ही हेलीकॉप्टर द्वारा भरमौर उतरकर जल्दी से जल्दी दिल्ली की ओर रवाना हो जाएँ, परंतु हेलीकॉप्टर बुकिंग वाले महाशय ने कल सुबह जाने की हमारी मांग पर हमसे बात करनी ही बंद कर दी.... क्योंकि उसके पास अगले दो दिनों के बाद की सीट थी। 
                     मैं अपनी रक्सैक भी अब साथ उठा लाया था कि इसके अंदर गिरा हुआ दही धो सकूँ। पानी की व्यवस्था इस "न्यौण मेले"  के दौरान लगने वाले अस्थाई शौचालयों के पास थी। परंतु इस लाखों की भीड़ में यह दस-बीस शौचालय.... मतलब आप खुद ही समझ जाओ...!!!!!
                      हां, एक बात तो मैं बताना ही भूल गया कि शाम को जब हम झील के इर्द-गिर्द परिक्रमा करते हुए उस जगह पर पहुँचे, जहाँ लोग पवित्र झील "शिव डल" (प्राचीन मान्यताओं अनुसार भगवान शिव इसी झील में नहाते थे) के बर्फीले जल से नहा रहे थे। नहाने के नाम पर बड़ी हिम्मत कर व्यक्ति जल्दबाजी से एक-दो डिब्बे पानी के सिर पर उड़ेल कांपते हुए स्नान को सम्पूर्णता दे रहे थे।  मैंने विशाल जी से पूछा- "हां जी, यदि इस ठंडक में इतने बर्फीले पानी से नहा लिये.... तो यकीनन हमें 'हाइपोथर्मिया' हो जाएगा.....!!"
                        और, हम दोनों ने झील के तट पर बैठ जल के छींटे सिर पर डाल "पंचतरणीय स्नान"  करना ही मुनासिब जाना।
                         रात्रि भोजन लंगर पर कर जब अपने टैंट की ओर चले आ रहे थे,  तो देखा कि लोग खुले में आग जलाकर कैलाश पर्वत की तरफ टकटकी लगा बैठे हैं। बातचीत से पता चला कि वह सारी रात जागकर कैलाश पर्वत से निकलने वाली "दिव्य मणि" के दर्शन करना चाहते हैं। मेरे मन में आया कि जाकर अपने टैंट मालिक से पूछूँगा कि क्या उसने कभी मणि के दर्शन किये हैं, क्योंकि हम यात्री तो एक-दो दिन यहाँ रुकते हैं...वो तो महीनों रहते हैं यहाँ पर।  परंतु मेरे इस सवाल पर उसने फिर बेरुखी से ना में सिर मार दिया।
                     समय रात के साढ़े नौ बज चुके थे, हमारे टेंट के सभी यात्री अपनी-अपनी जगह पर लेट ले चुके थे। आँख लगी को अभी एक-डेढ़ घंटा ही हुआ था कि बाहर  झील के किनारे एकदम से शिव भोले के जयकारे गूँजने लगे। उस शोर से मेरी व विशाल जी की नींद जैसे ही टूटी, हम दोनों बाकी लोगों की तरह उछल कर बाहर निकल कैलाश शिखर की ओर देखने लगे..... तो पाया कि कैलाश पर्वत के पीछे से एक तारे का उदय हो रहा था, जिसकी टिमटिमाहट शिखर पर मणि सी आभा दे रही थी। टैंट से बाहर निकल जाने के कारण हमारे शरीर उस ठंड से एकदम से ठंडे हो गये, सो जल्दी से वापस आ फिर अपनी जगह पर लेट गये। जमीन पर बिछी पतली सी लटलोन की शीट पर एक कम्बल बिछा, दो पतले से कम्बलों को जोड़ कर भी ठंड कहाँ कम हो सकती थी और उस टैंट मालिक ने दोपहर को कह दिया था कि इन तीन कम्बलों से ज्यादा आपको कुछ नहीं मिलेगा, इसमें ही गुज़ारा करना पड़ेगा। गर्म जैकेट व टोपी आदि पहने होने के कारण शरीर का ऊपरी भाग तो कुछ गर्म हो जाता था, परंतु पैरों का हाल ऐसा था कि जैसे कम्बलों में नहीं बर्फ में  गड़े हो। खैर फिर कुछ समय बाद आँख लगी, आधी रात को जयकारों का तीव्र उद्घोष पुन: गूँज उठा और इस बार लगातार जयकारों पर जयकारे लगाए जा रहे थे।
                   परन्तु इस बार मैं अकेला ही उठकर टैंट से बाहर निकल आया तो देखा कि कैलाश शिखर के पीछे से प्रकाश आ रहा था, जैसे-जैसे प्रकाश की तीव्रता बढ़ती जा रही थी.....श्रद्धालुओं की आवाज़ें भी तीव्र व उत्साहित होती जा रही थी। मैं भौचक्का सा खड़ा देख रहा हूँ कि इस चमत्कार का मैं भी हिस्सेदार बनने जा रहा हूँ.....परंतु अब कैलाश शिखर के पीछे से "चन्द्रदेव" उदय हो रहे थे, यह देखकर भी वहाँ मौजूद प्रत्येक व्यक्ति के उत्साह की कोई कमी नहीं थी।
                      मैं पुनः अपनी जगह पर आ जाता हूँ, विशाल जी और बाकी यात्री भी बिस्तरों में दुबके मुझसे पूछते हैं तो मैं कहता हूँ कि अबकी बार तारा नहीं चन्द्र उदय हुआ है कैलाश के पीछे से।
                    ज्यों-ज्यों रात घटती जा रही थी, ठंड भी बढ़ती जा रही थी और इस भयंकर ठंड ने हमारी नींद भी उड़ा दी थी। आखिर साढ़े तीन बजे मैंने विशाल जी से कहा-"इस ठंड में इतने पतले से नाममात्र के कम्बलों में लेटना तो यातना समान है, अच्छा है कि अभी नीचे उतर चलते हैं... चलते हुए शरीर भी गर्म रहेंगे और आपको भी जल्द से जल्द दिल्ली पहुँचने की मजबूरी है...!"
                    और,  हम दोनों करीब दस मिनट बाद अपनी बैटरियाँ जला कर मणिमहेश झील से हड़सर की ओर कूच कर चले। हैरानी की बात उस वक्त भी लोग मणिमहेश झील की ओर चले आ रहे थे। "धन्छो" तक पहुँचते-पहुँचते सुबह के साढ़े सात बज चुके थे। वहाँ सुबह का नाश्ता एक लंगर पर कर, हम जब हडसर आ पहुँचे तो वहाँ से भरमौर को जाने के लिए कोई भी गाड़ी उपलब्ध नहीं थी।  कारण कि हडसर तक गाड़ी ही नहीं पहुँच पा रही थी,  फिर क्या था हडसर से पैदल ही तीन किलोमीटर और चलना पड़ा.....तब जाकर सीमेंट ढोने वाली एक जीप में हम बीस-पच्चीस जनों को भेड़-बकरी की तरह लादा गया और हडसर से भरमौर तक हम एक लात पर खड़े पहुँचे। हड़सर से भरमौर तक सड़क किनारे जगह-जगह पर लोगों के वाहन खड़े थे, जिसकी गाड़ी जहाँ तक पहुँची वह वहीं अपनी गाड़ी छोड़ मणिमहेश झील की ओर रवाना हो गया।
                    भरमौर के बस अड्डे पर बेशुमार भीड़, भरमौर से चम्बा जाने वाली बस मिली पर सीट नही... परिचालक ने धोखे से हमें चढ़ा लिया कि कुछ समय बाद आप दोनों को सीट मिल जाएगी। चम्बे तक का चार घंटे लम्बा सफर भी हमने बस में खड़े होकर काटा। चम्बे के बस अड्डे पर भी कहीं जमीन नही नज़र आ रही थी, हर तरफ बस लोगों की भीड़ ही जमा थी। अंधेरा होने को था, चम्बा से पठानकोट जाने के लिए तब कोई बस नही थी, यदि आ भी जाती तो हमें लग नहीं रहा था कि उसमें हम चढ़ भी पायें...!!!
                  खैर, वहीं बस अड्डे पर पूछताछ करते-करते हमें मेरठ से मणिमहेश जाकर वापस आये हुए एक वकील साहिब व उनका दल मिल गया, तब हम सब ने मिलकर पठानकोट तक पहुँचने के लिए एक सूमो टैक्सी कर ली।  जब हम दोनों अपने डंडे सूमो में रख रहे थे, तो वह वकील साहिब झल्ला कर बोले- "इन डंडों को बाहर फैंकों...!"
              परंतु मैं अड़ गया- "नही, ये डंडें हमारे हमसफ़र है और हमारे साथ ही आये थे और हमारे साथ ही वापस जाएंगे....!!!"
                       पठानकोट तक पहुँचते-पहुँचते आधी रात होने को आई। पठानकोट बस अड्डे पर भी सवारियाँ ज्यादा परंतु किसी भी तरफ जाने वाली बस गैरहाज़िर थी। सो एक प्राइवेट बस वाले ने सवारियों का लालच देख जालंधर के लिए स्पेशल बस चला दी। जालंधर हमारे रास्ते से दूसरी तरफ था, पर फिर भी हम दोनों उस बस में सवार हो गए कि चलो पहले जालंधर ही चलते हैं।
                 और, रात तीन बजे के करीब जालंधर पहुँचते ही,  मेरी पत्नी अपने देवर के साथ गाड़ी ले गढ़शंकर से जालंधर पहुँच..... हमें लेकर गढ़शंकर की ओर वापस चल दी।  परंतु विशाल जी के लिए अभी भी एक मुसीबत खड़ी थी कि उन्हें सुबह दस बजे दिल्ली पहुँच कर अपनी नौकरी पर हाज़िर होना था। सो गढ़शंकर से दिल्ली के लिए उन्होंने टैक्सी की और हमारी गाड़ी से ही उतरकर तड़के साढ़े चार बजे दिल्ली को रवाना हो लिये।
                    घर पर आराम करते हुए मैंने चार्ज हो चुके मोबाइल पर कलाह पर्वत के विषय में गूगल पर खोजा तो दंग रह गया कि गूगल कलाह पर्वत की समुद्र तट से 4630मीटर की ऊँचाई बता रहा है, मतलब हम नौसिखियें पहली ही बार में इतनी ज्यादा ऊँचाई को छूँ गये।
                    और हां दोस्तों,  अंत में एक बात आप संग सांझा करना चाहता हूँ कि मणिमहेश यात्रा के दौरान खाने-पीने वाले लंगरों की बहुतायत है। मैं मानता हूँ कि यात्रियों को मुफ्त भोजन की सुविधा मिलनी चाहिए और वहाँ के स्थानीय दुकानदारों में इतनी शक्ति नहीं है कि वे इतनी ज्यादा भीड़ का पेट भर सकें।  परंतु भोजन के साथ-साथ और भी बेशुमार सुविधाएँ हैं, जिनके अभाव से यात्रा कर रहा हर एक यात्री परेशान होता है जैसे हम इस यात्रा पर परेशान हुए।
                   सारे के सारे लंगर स्वयंसेवी दलों द्वारा ही लगाए जाते हैं, यदि वो स्वयंसेवी न्यौण यात्रा के दौरान अन्य सुविधाओं पर भी ध्यान दें, तो यात्रा का आनंद दोगुना-चौगुना हो जाएगा.... क्योंकि इन कार्यों को सरकार या प्रशासन के माथे मढ़ना उचित नहीं है।
                  ट्रैफिक कंट्रोल की सेवा, सुनियोजित पार्किंग की सेवा, शौचालयों की सेवा, रात रुकने के लिए उचित स्थान व गर्म बिस्तर की सेवा की आदि यदि स्वयंसेवी दल देने लग पड़े तो क्या गज़ब का सुप्रबंधन हो सकता है मणिमहेश यात्रा पर।
                                          (समाप्त)

                                   
मणिमहेश की ओर जाते हुए कलाह पर्वत की आखिरी चढ़ाई चढ़ते,  सामने दिखाई दे रहा " कुज्जा वज़ीर पर्वत"

                                     
कलाह पर्वत पर मिले ये साधु बाबा, जो पिछले सात दिनों से पैदल चले आ रहे थे....बैजनाथ से मणिमहेश जाने के लिए।

कलाह पर्वत की चढ़ाई के मध्य में।

वहीं से नीचे दिख रहे "सुखडली ग्लेशियर" का सुंदर दृश्य।

कलाह पास।

कलाह पास पर कदम रखते ही दूसरी तरफ झांका, तो सामने एक पर्वत नज़र आया जिसका शिखर बादलों ने घेर रखा था.....वह भगवान शिव का निवास स्थान "कैलाश" था, दोस्तों। 

कलाह पास पर खड़े विशाल रतन जी।

कैलाश के समक्ष हम।

कलाह पास से खींचा हुआ "कैलाश" पर्वत का निकट चित्र।

कलाह पास पर चौकड़ी मार बैठे हुए हम...... ऊँचाई की वजह से मेरी आँखों के नीचे सूजन और होठ खुश्क होकर फटने लगे थे।

हम आधा घंटा कलाह पास पर बैठ दोनों ओर के नज़ारों को देखते रहे और इंतजार करते रहे कि बादल कैलाश पर्वत शिखर से हट जाए, परन्तु बादल बहुत हठी निकले।

और, एकाएक बारिश व कंचों जितने बड़े "गड़े" आसमान से गिरने लगे और हम नीचे की तरफ भाग लिये।

मणिमहेश झील के प्रथम दर्शन।

 थोड़ा और नीचे उतरते ही झील और कैलाश पर्वत के इक्ट्ठे दर्शन होने लगे।

क्या खूबसूरत नज़र आ रही थी मणिमहेश झील इस ऊँचाई से।

ऊपर से "गौरी कुण्ड" भी दिखाई दे रहा था।

कलाह पास की ओर एक कुत्ता भी उतर कर हमारे पास आ पहुँचा, जो अब हमारे साथ-साथ ही झील की ओर उतर रहा था।



लो, विकास जी आखिर हम पहुँच ही गए....विशाल जी के बोल।

तभी, कहीं से उड़ कर आये बादलों ने झील को ढक लिया।

कैलाश पर्वत पर तो बादलों का कब्ज़ा बरकरार चल ही रहा था।


बादलों के घूँघट से झाँकती हुई झील।


ज्यों-ज्यों हम नीचे उतरते जा रहे थे, हमारा ध्यान झील पर मौजूद भीड़ खींचने लगी।

झील पर मौजूद भीड़ में स्थानीय लोग अपने ही रिवाज़ों में व्यस्त थे।

कैलाश पर्वत के अलौकिक दर्शन।
                 
कैलाश शिखर पड़ी सूर्यास्त की आखिरी किरणों का दिव्य दृश्य।

सूर्यास्त के उपरांत कैलाश पर्वत।

बम-बम भोले, "शिव डल" पर खड़े हम दोनों। 

झील के किनारे खुले में ही बना शिव भोले का मंदिर।
                                       
अच्छा दोस्तों चलते हैं....फिर हाज़िर होंगे एक नई कहानी लेकर।
   

रविवार, 15 सितंबर 2019

भाग-6 "मणिमहेश, एक दुर्गम रास्ते से...!" (Manimahesh via kalah pass)

भाग-6 "मणिमहेश, एक दुर्गम रास्ते से....!"

इस चित्रकथा को आरंभ से पढ़ने का यंत्रhttp://vikasnarda.blogspot.com/2019/07/blog-post.html?m=1  स्पर्श करें।

                                  "ॐ पर्वत "



                  17अगस्त 2014.....जेल-खड्ड पर बाबा सुरजीत जी द्वारा "न्यौण यात्रा" पर मणिमहेश पदयात्रियों के लिए लगाये गये एकमात्र लंगर पर बिताई वह सर्द रात हमने काट ली थी, थके होने के कारण रात कब गुज़र गई पता ही नहीं चला। उस लम्बे से तम्बू में सो कर उठ चुके अन्य पदयात्रियों के कारण हमारी आँख भी सुबह पाँच बजे खुल गई। तकरीबन सभी पदयात्री जेल-खड्ड से आगे की पदयात्रा प्रारंभ कर चुके थे।
                   हम दोनों भी चाय पीते-पीते बाबा सुरजीत जी के पास जा बैठते हैं और बातचीत का एक छोटा सा दौर चल पड़ता है।  बाबा जी हमें बताते हैं कि वह पिछले दस बरस से लगातार इसी जगह पर लंगर लगाते आ रहे हैं,  तो विशाल जी कहते हैं- "बाबा जी, मणिमहेश को जाते इस दुर्गम मार्ग पर आपका इस जगह पर होना ही,   पदयात्रियों और इस पदयात्रा के लिए वरदान है... पूरा दिन चढ़ाई चढ़-चढ़ कर थके हुए पदयात्री को यहाँ पहुँचने पर गर्मा-गर्म भोजन व रात रुकने की यदि जगह ना मिले, तो इस मार्ग से मणिमहेश पहुँचना असंभव सा जान पड़ता है... बाबा जी, आप हम थकान से टूट चुके पदयात्रियों में एक नव ऊर्जा का संचार कर उन्हें अगली सुबह नए जोश के साथ मणिमहेश की ओर भेजते हैं।"
                      बाबा जी यह बात सुन ज़रा सा मुस्कुराए और बोले- "मैं कौन हूँ करने वाला, वह करवाता है मैं करता हूँ...!"
                      मैंने अपना वो सवाल अब बाबा जी की तरफ दाग दिया जो कल से मेरे दिमाग पर हावी चल रहा था कि हड़सर वाला रास्ता क्यों इतना प्रचलित है, जबकि इस रास्ते पर इक्का-दुक्का लोग ही जाते हैं...?
                       यह सवाल सुन बाबा जी का चेहरा एकदम से कठोर हो गया और वे बोले- "यह सब भरमौर क्षेत्र के व्यापारियों और राजनीतिज्ञों के कारण है, वे उसी रास्ते को प्राथमिकता देते आ रहे हैं जबकि यह रास्ता उस रास्ते से सदियों पुराना है....परंतु राजनीति की भेंट चढ़ चुका है....!"
                        हमने बाबा जी को अपनी यथाशक्ति के अनुसार कुछ राशि भेंट की क्योंकि हम पंजाबियों में यह प्रथा है कि लंगर कभी भी मुफ़्त नहीं खाना चाहिए, वैसे तो लंगर का मतलब ही होता है "मुफ़्त भोजन"  परंतु लंगर खाने के पश्चात इस लंगर में कुछ-ना-कुछ अवश्य डाल देना चाहिए....वो इसलिए कि लंगर लगाने वाले प्रबंधक को सहायता व उत्साह मिले कि वह फिर से दोबारा लंगर लगा सके।
                       बाबा जी से विदा लेते हुए उन्होंने हमें रास्ते में खाने के लिए "छोले-भटूरे" बांध कर दे दिये और कहा कि इसको आप "सुंदरडली" जाकर खाना, आगे खूब चढ़ाई है तो भूख भी खूब लगेगी।
                      सुबह के 6बजने को थे, तम्बू से बाहर निकल बाबा जी ने हमें जेल-खड्ड के सामने दिख रहे दीवार नुमा सीधे खड़े पहाड़ की तरफ इशारा कर बताया कि बस इसके ऊपर है सुखडली.... और हमें जय शिव भोले के उद्घोष के साथ यात्रा पथ पर रवाना कर दिया।
     
                       हम पगडंडी किनारे पर सफेद रंग में रंगे पत्थरों की ओर बढ़ने लगते हैं, सारा रास्ता चट्टानी हो चुका था।  सामने दिख रहे पर्वत शिखर से, जिस पर हमें चढ़ना था..... अलग-अलग जगह से चार झरने फूट रहे थे। दिखने में ज़रा सी दूरी पर लगते झरने के पास पहुँचने  तक हमारा एक घंटा बीत गया।  प्रत्येक कदम हमें ऊँचाई दिलाता जा रहा था।  चढ़ते-चढ़ते हम अगले झरने के पार हुए तो वहीं रास्ते किनारे पड़े छोटे से बर्फ के टुकड़े को छूकर हम दोनों बहुत खुश हुए कि,  लो हमने बर्फ को भी छू लिया।
                       अब पगडंडी हमें पत्थरों से निकालकर पर्वत के उस हिस्से पर ले गई,  जहाँ बस हर तरफ रंग- बिरंगे फूल ही फूल थे.....यह अद्भुत दृश्य जीवन में पहली बार देखा था कि दूर से पत्थर दिखने वाले पर्वतराज भी फूल पालतें हैं....!
                       दूसरा घंटा भी बीता जा रहा था, सब स्थानीय लोग हमसे कब के आगे निकल चुके थे। हम दोनों नये पनपे पर्वतारोहियों को यह चढ़ाई हर कदम पर तोड़ रही थी। कुछ कदम चल कर हम अपनी फूली हुई सांस को काबू में लाते....दो-चार घूँट पानी के पीते और रास्ते किनारे पत्थरों पर बैठ जाते।  उस जगह बैठ हम दम ही ले रहे थे कि पीछे से एक साधु चढ़ते हुए चुपचाप से हमारे पास से गुज़र गए, मैने जब उनके नंगे पैर देख हैरान हो उन्हें पीछे से आवाज़ दी..."बाबा जी, कमाल है आप इस पथरीले रास्ते पर नंगे पैर क्यों जा रहे हो.....?"   परंतु उन बाबा जी ने पलट कर भी नहीं देखा, बस अपनी धुन में मस्त ऊपर की ओर बढ़ गये। तब विशाल जी बोले- "देखा विकास जी, इसे कहते हैं लगन लगी तेरे संग लगन लगी...!"
                       अब रास्ता खतरनाक रुप अख्तियार कर चुका था,  उस ऊँचाई से नीचे देखने पर चक्कर आने लगे तो हम दोनों ने चलते हुए नीचे देखना ही छोड़ दिया... बस पगडंडी पर पहाड़ की तरफ चिपक कर अपने कदम आगे बढ़ाते जा रहे थे।  रास्ते में झरने के पास एक जगह आई  जहाँ पर मंजे (पलंग) और बिस्तरों के लघु रूप काफी मात्रा में यहाँ-वहाँ पड़े थे,  मैंने विशाल जी से कहा- "लगता है यह सब स्थानीय मणिमहेश यात्रियों द्वारा चढ़ाए गये हैं... जरूर इस प्रथा के पीछे कोई राज़ होगा।" परंतु उस राज़ को बताने वाला वहाँ कोई नहीं था, सोचा यदि कोई स्थानीय अभी रास्ते में मिलेगा तो उससे पूछेंगें। परन्तु चंद क्षणों बाद ही मैं वो बात भूल गया, समुद्र तट से बढ़ रही ऊँचाई मेरी स्मरणशक्ति को क्षीण कर रही थी।
                      कलाह पर्वत पर चढ़ते-चढ़ते तीसरा घंटा भी बीत गया था,  चौथे घंटे को भी शायद उस पथरीली पगडंडी से मुहब्बत हो गई थी। आखिर सवा दस बजे हम जब उस आखिरी चट्टान पर जा खड़े हुए,  जिसे हम सुबह से कलाह पर्वत की चोटी मान चल रहे थे.... तो आगे देख हमारी टांगें थरथरा उठी कि आगे फिर से एक पहाड़ है और पहाड़ भी ऐसा जैसे किसी दुर्ग की बहुत ऊँची दीवार हो। सच बोलूँ तो उस वक्त एक जबरदस्त झटका लगा हम दोनों को यह देख कर...!!
                       खैर, कुछ क्षणों बाद आँखों ने इधर-उधर झांका तो पाया कि एक बहुत खुली समतल सी जगह जिस के दांई ओर बर्फ के ग्लेशियरों को थामे पर्वत खड़े थे, ये सब कुज्जा वज़ीर पर्वत के साथ ही थे। उस जगह पहुँचकर हमें कुज्जा वज़ीर पर्वत शिखर का टेढ़ा रूप बिल्कुल स्पष्ट नजर आ रहा था। हम मंत्रमुग्ध से अब समतल हो चुकी पगडंडी पर चले जा रहे थे।
                        हाँ, यह ही "सुखडली" लगता है.... हम दोनों साढूँओं ने अपनी राय पक्की कर ली थी। हमारे पैरों के नीचे आ रहा घास का मैदान गद्देदार हो चुका था, जिस पर चलते हुए हमें आभास हो चला था कि इस घास के नीचे भी पानी है। धूप अब अच्छी लगने लगी थी, सामने दिख रहे कुज्जा पर्वत व अन्य पर्वतों की गोद में पड़े बर्फ के ग्लेशियर ऐसे जान पड़ते थे कि जैसे किसी माँ की गोद में उसका शिशु सो रहा हो।
                        तभी, मेरा ध्यान कुज्जा पर्वत के साथ वाली चोटी पर ऐसा क्या गया कि मैं जड़ सा हो गया, मुझे प्रकृति देवी की इस कलाकारी पर विश्वास नहीं हुआ। मैंने विशाल जी का ध्यान भी उस तरफ दिलाया तो उनकी भी  हालत मेरे जैसी हो गई। एक क्षण के लिए मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि  "भगवान है"  पर दूसरे क्षण को फिर से नास्तिकता ने काबू कर लिया।  सामने दिख रहे उस पहाड़ पर बर्फ से  "ॐ"  की आकृति बनी हुई थी। कई सवाल इस  दिमाग ने पैदा कर लिये, परंतु वहाँ उनके उत्तर देने वाला कोई नहीं था।
                        पगडंडी बता रहे सफेद रंग से पुते पत्थरों ने हमें दूर से ही वो दिशा दिखा दी थी, जिस ओर हमें आगे चढ़ना था।
                        और,  वह चढ़ाई देख एक बार तो हम दोनों के पसीने छूटने लगे कि कलाह पर्वत एक सीधी दीवार सा तन कर हम नौसिखियों पर जैसे हंस रहा हो। उस दीवार नुमा पर्वत शिखर की ऊँचाई ऐसी कि मानो आप "हैट" पहने हुए नीचे खड़े हो, शिखर की ओर देखतें हैं...तो हैट आपके सिर से खुद-ब-खुद उतरकर आपकी पीठ पीछे गिर जाए। डेढ़-दो सौ मंजिले ऊँची इमारत जितना ऊँचा कलाह जोत देख,  आप खुद ही हमारी मनोदशा समझ ले कि कैसे इतनी ऊँची बहुमंजिला इमारत पर लिफ्ट की बजाय सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर पहुँचना हो। 
                       खैर, हम दोनों साढूँ सुखडली की घासणी(बुग्याल) में एक जगह घास पर बैठ जाते हैं, कभी सुखडली ग्लेशियर, तो कभी पर्वत पर बने ॐ, तो कभी कुज्जा वज़ीर पर्वत पर हमारी आँखों की पुतलियाँ नाचती.... पर जैसे ही कलाह जोत की दीवार पर नाचती हुई सी जाती, तो नाचना भूल जाती....!!!
                        तभी विशाल जी ने याद दिलाया कि हमारे पास सुरजीत बाबा जी द्वारा दिये गए छोले-भटूरे भी हैं, मुझे सुबह से ही भूख नहीं महसूस हुई। मुझे खुद नहीं समझ आ रहा था कि इतनी मेहनत-मशक्कत करने के बाद मुझे भूख क्यों नहीं लग रही थी (यह बात बाद में समझ आई कि समुद्र तट से बढ़ चुकी बेतहाशा ऊँचाई ने मेरी भूख मार दी थी) मेरा सिर भी कुछ-कुछ भारी सा होने लगा था, ठीक यह ही हालात विशाल जी के भी हो रहे थे।   
                         छोले-भटूरे तो हम दोनों ने अपने मध्य सजा लिये थे, पर मैं छोले-भटूरे का सदैव भुख्कड़ भटूरे गिन कर नहीं, थाली में चिन कर खाता हूँ। परन्तु तब बड़ी मुश्किल से एक भटूरा भी पूरा ना खा पाया... जबकि बाबा जी हमें आठ-दस भटूरे रास्ते में खाने के लिये दिये थे। खाते-खाते मतली सी हो रही थी,  सो भूटरों के साथ दिये गए गल-गल के अचार की फाड़ी मुँह में रख चूसने लगा और विशाल जी भी कुछ ज्यादा ना खा पाये।
                        11बजने को हुए, एक साधु अकेले ही जेल-खड्ड की तरफ से चलते हुए हमारे पास से गुज़रे तो हम दोनों भी कलाह पर्वत की आखिरी चढ़ाई चढ़ने के उनके पीछे-पीछे उस ग्लेशियर पर चलने लगे जिसके पार सफेदी से रंगा रास्ता नज़र आ रहा था।
                        मेरे कैमरे की बैटरी भी चल-चल कर अब मरणासन्न हो चली थी, तो उस डिजिटल कैमरे को 36फोटो वाली रील का कैमरा मान कमर-पेटी पर बंधे कैमरा-दान में डाल लेता हूँ और अपने-आप समझाता हूँ कि जहाँ बहुत ही जरूरी होगा तब ही फोटो खींचूगाँ अब।
                       दोस्तों, वो 36फोटो वाली रील के कैमरों का भी क्या जमाना था।  पहले तो युवावस्था में हमारी जेबें खाली, मन में असंख्य अरमान व दिमाग में ढेरों सपने लेकर एक-आध कैमरा रील खरीदनी भी बड़ी मुश्किल सी लगती थी। उस रील को भी कैमरे में ऐसे लोड करता कि 36फोटो की बजाय 39फोटो खिंच जाएँ। एक-एक कर अपनी ही कोई जरूरी फोटो खींचते हुए रील को आगे ऐसे बढ़ाना, जैसे कोई कीमती चीज़ हाथों से जा रही हो। पूरी रील खींचने के बाद उसे कैमरे में वापस लपेटना और सबसे मुश्किल होता था उस रील को धुलवाना। मुश्किल ऐसे, रील खरीदने की कीमत से चार गुणा पैसे रील को धुलवाने में लगते थे और सबसे मजेदार क्षण वही साबित होता था....जब फोटूओं व नेगेटिव से भरा QSS लैब का लिफ़ाफा हाथों में आता था। इतनी उत्तेजना भरी उत्सुकता के साथ हमने कभी अपने जन्मदिन के तोहफ़े ना खुले होंगे, जितने उत्साह से हम लैब से धुल कर आई फोटूओं के लिफाफे खोलते थे। दोस्तों,  2004 में मैंने अपनी आठ दिवसीय मनाली यात्रा के दौरान दो रीलें यानि 72फोटो खींची थी, जब आज अपने डिजिटल कैमरे से यात्रा के दौरान हर रोज दो-तीन सौ फोटो खींच डालता हूँ।
                      हां, एक और बात याद आई.....उस समय जब किसी अंग्रेज सैलानी को फूलों, तितलियों या पहाड़ों की फोटो खींचते देखना, तो हंसते हुए आपस में बात करना- "अजीब पागल बंदा है, खुद की फोटो छोड़ ऐसे फालतू में अपनी फोटो खराब किये जा रहा है...!!"
और, अब हम सब भी पागल हो गए हैं, खुद की फोटो खींचने की बजाय प्रकृति की फोटो ज्यादा खींचने लगे हैं, है ना दोस्तों...!!!
                                       (क्रमश:)


जेल-खड्ड के इस तम्बू में हमनें वो सर्द रात काट ली थी।

जेल-खड्ड पर लगा बाबा सुरजीत जी का लंगर।

सुबह तरोताज़ा से विशाल जी।

लंगर आयोजक "बाबा सुरजीत जी" के साथ।

सुबह 6बजे हमने जेल-खड्ड से आगे की ओर प्रस्थान किया।



पदयात्रा के पहले पंद्रह मिनट में ही, मैं दम लेने बैठ जाता हूँ। 

जेल-खड्ड से खड़ी चढ़ाई....और नीचे दिख रहा जेल-खड्ड लंगर।





कलाह पर्वत शिखर से झरने फूट रहे थे।

आखिर, किस सोच में मगन पथिक...!!!

दिखने में ज़रा सी दूरी पर लगते झरने के पास पहुँचने तक हमारा एक घंटा बीत गया।

रास्ते में आया पहला झरना।

बर्फ के ग्लेशियर अब ज्यादा दूर नहीं से हमसे।

राह में मिली बर्फ को प्रथम स्पर्श।

लो, मैं भी आनंदित हो लूँ ज़रा।

  अब पगडंडी हमें पत्थरों से निकालकर पर्वत के उस हिस्से पर ले गई,  जहाँ बस हर तरफ रंग- बिरंगे फूल ही फूल थे.....यह अद्भुत दृश्य जीवन में पहली बार देखा था कि दूर से पत्थर दिखने वाले पर्वतराज भी फूल पालतें हैं....!

 उस जगह बैठ हम दम ही ले रहे थे कि पीछे से एक साधु चढ़ते हुए चुपचाप से हमारे पास से गुज़र गए, मैने जब उनके नंगे पैर देख हैरान हो उन्हें पीछे से आवाज़ दी..."बाबा जी, कमाल है आप इस पथरीले रास्ते पर नंगे पैर क्यों जा रहे हो.....?"   परंतु उन बाबा जी ने पलट कर भी नहीं देखा, बस अपनी धुन में मस्त ऊपर की ओर बढ़ गये।

तब विशाल जी बोले- "देखा विकास जी, इसे कहते हैं लगन लगी तेरे संग लगन लगी...!"

रास्ते में झरने के पास एक जगह आई  जहाँ पर मंजे (पलंग) और बिस्तरों के लघु रूप काफी मात्रा में यहाँ-वहाँ पड़े थे,  मैंने विशाल जी से कहा- "लगता है यह सब स्थानीय मणिमहेश यात्रियों द्वारा चढ़ाए गये हैं... जरूर इस प्रथा के पीछे कोई राज़ होगा।" 

शिखर की ओर।


आखिर सवा दस बजे हम जब उस आखिरी चट्टान पर जा खड़े हुए,  जिसे हम सुबह से कलाह पर्वत की चोटी मान चल रहे थे.... तो आगे देख हमारी टांगें थरथरा उठी कि आगे फिर से एक पहाड़ है। सच बोलूँ तो उस वक्त एक जबरदस्त झटका लगा हम दोनों को यह देख कर...!!

आँखों ने इधर-उधर झांका तो पाया कि एक बहुत खुली समतल सी जगह जिस के दांई ओर बर्फ के ग्लेशियरों को थामे पर्वत खड़े थे, ये सब कुज्जा वज़ीर पर्वत के साथ ही थे। उस जगह पहुँचकर हमें कुज्जा वज़ीर पर्वत शिखर का टेढ़ा रूप बिल्कुल स्पष्ट नजर आ रहा था।

 तभी, मेरा ध्यान कुज्जा पर्वत के साथ वाली चोटी पर ऐसा क्या गया कि मैं जड़ सा हो गया, मुझे प्रकृति देवी की इस कलाकारी पर विश्वास नहीं हुआ। एक क्षण के लिए मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि  "भगवान है"  पर दूसरे क्षण को फिर से नास्तिकता ने काबू कर लिया।  सामने दिख रहे उस पहाड़ पर बर्फ से  "ॐ"  की आकृति बनी हुई थी।

   हाँ, यह ही "सुखडली" लगता है.... हम दोनों साढूँओं ने अपनी राय पक्की कर ली थी। हमारे पैरों के नीचे आ रहा घास का मैदान गद्देदार हो चुका था, जिस पर चलते हुए हमें आभास हो चला था कि इस घास के नीचे भी पानी है। 

बेहद खूबसूरत स्थान " सुखडली"

 सुखडली से मेरी यादगारी।

सामने दिख रहे कुज्जा पर्वत व अन्य पर्वतों की गोद में पड़े बर्फ के ग्लेशियर ऐसे जान पड़ते थे कि जैसे किसी माँ की गोद में उसका शिशु सो रहा हो। 

छोले-भटूरे तो हम दोनों ने अपने मध्य सजा लिये थे, पर मैं छोले-भटूरे का सदैव भुख्कड़ भटूरे गिन कर नहीं, थाली में चिन कर खाता हूँ। परन्तु तब बड़ी मुश्किल से एक भटूरा भी पूरा ना खा पाया... जबकि बाबा जी हमें आठ-दस भटूरे रास्ते में खाने के लिये दिये थे।

  11बजने को हुए, एक साधु अकेले ही जेल-खड्ड की तरफ से चलते हुए हमारे पास से गुज़रे तो हम दोनों भी कलाह पर्वत की आखिरी चढ़ाई चढ़ने के उनके पीछे-पीछे उस ग्लेशियर पर चलने लगे जिसके पार सफेदी से रंगा रास्ता नज़र आ रहा था।
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मेरी साहसिक यात्राओं की धारावाहिक चित्रकथाएँ
(१) " श्री खंड महादेव की ओर " यात्रा वृतांत की धारावाहिक चित्रकथा पढ़ने की यहाँ स्पर्श करें।
(२) " पैदल यात्रा लमडल झील वाय गज पास" यात्रा वृतांत की धारावाहिक चित्रकथा पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें।
(३) " चलो, चलते हैं सर्दियों में खीरगंगा" यात्रा वृतांत की धारावाहिक चित्रकथा पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें।
(४) करेरी झील "मेरे पर्वतारोही बनने की कथा " यात्रा वृतांत की धारावाहिक चित्रकथा पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें।