भाग-2 मणिमहेश, एक दुर्गम रास्ते से ...!"
" जैसी तेरी मर्ज़ी, भोले भण्डारी ...!!!"
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15अगस्त 2014....... "भरमौर" शहर की जग चुकी बत्तियाँ (लाइटें) तो हमें नज़र आ रही थी, पर भरमौर नहीं आ रहा था। हम पिछले ढाई घंटे से भरमौर से निकल रही गाड़ियों और जा रही गाड़ियों के मध्य फंसे हुए थे। हम तीनों ही अब गाड़ी में निढाल से चुपचाप बैठे थे, गाड़ी सड़क पर चंद फुट रेंग कर फिर रुक जाती। सड़क भी इतनी चौड़ी नहीं थी कि उसके किनारे हम अपनी गाड़ी खड़ी कर पैदल ही भरमौर को चल देते, सो उन सभी फंसी हुई गाड़ियों में हम भी फंस कर चले जा रहे थे।
साढ़े आठ से ऊपर समय हो चला था, भरमौर की शुरूआत में ही हमारी तरफ की सड़क किनारे पर मुझे एक तीन मंजिला इमारत दिखाई दी। मैंने मन ही मन सोचा हो ना हो यह होटल ही लगता है, परंतु गाड़ी अभी उस इमारत से पचास मीटर की दूरी पर फंसी थी। धीरे-धीरे खिसकते हुए जैसे हम उस इमारत के पास पहुँचे तो वह इमारत सच में एक होटल थी और खुशकिस्मती से उसके आगे एक कार खड़ी होने की जगह भी बची थी।
मेरे तन-मन में एकदम से चुस्ती छा गई और तेज़ी से दिनेश जी को बोला- "गाड़ी को इस होटल की ओर मोड़ लीजिए और हमें हर कीमत पर इस होटल में कमरा लेना है, क्योंकि भीड़ के जो हालात दिख रहे हैं उससे ज़ाहिर हो चुका है कि यह होटल यदि हमारे काम नहीं आया तो सड़क पर ही गाड़ी में फंसे रात गुजारनी पड़ेगी...!!!"
अब हम तीनों फुर्ती से पिछली गाड़ियाँ रुकवा कर अपनी गाड़ी को आगे-पीछे कर उस होटल के आगे बची जगह में घुसा रहे थे। हम तीनों में से किसी एक बंदे की किस्मत उस दिन बलवान थी... हमें उस "रश-रौले" (भीड़-भाड़) में भी उस होटल में एक कमरा मिल ही गया। भरमौर से बाहर ही उस जगह कमरा लेने से एक तो हमारा उस जाम से पीछा छूटा, दूसरा मन में यह ख्याल उत्पन्न हो चुका था कि यह जाम तो कुछ देर बाद या कुछ घंटों में खुल जाएगा, हम दोनों सुबह तड़के ही भरमौर से हडसर की ओर चल देंगे क्योंकि उस समय रास्ता साफ होगा और दिनेश जी सुबह हेलीकॉप्टर में भरमौर से मणिमहेश उड़ जाएंगे।
हम आठ-दस मिनट में हाथ मुँह धोकर होटल से नीचे उतर आए और पैदल ही भरमौर के लिए चल दिये कि पहले दिनेश जी की हेलीकॉप्टर बुकिंग करेंगे, फिर भरमौर के प्रख्यात "चौरासी मंदिर" दर्शन और अंत में "उदर-पूजन" परंतु.....!!!!!
होटल से बाहर निकलते ही हम उस भीड़ का हिस्सा हो गये, जो सड़क पर फंसी इन गाड़ियों के बीच बची जगह से होकर गुज़र रही थी। फंसी हुई गाड़ियों में अब केवल चालक ही बचा था, ज्यादातर लोग गाड़ियों से उतरकर भरमौर की ओर चले जा रहे थे हमारी ही तरह। भरमौर मुख्य चौक पर पहुँचते-पहुँचते भीड़ बहुत ज्यादा बढ़ गई, इसी भीड़ में मुझे मेरे मुहल्लेदार राज्य सभा मैम्बर "श्री अविनाश राय खन्ना जी" के परिजन भी भटकते हुए मिले, वे भी अपनी गाड़ी को जाम में छोड़ पैदल ही चले आ रहे थे।
हेलीकॉप्टर बुकिंग कार्यालय बंद कर दिया गया था, पता चला कि हेलीकॉप्टर में मणिमहेश जाने के लिए तीन दिन की प्रतीक्षा चल रही है। सो मौजूदा हालात से सिद्ध हो गया कि दिनेश जी हेलीकॉप्टर से कल सुबह मणिमहेश नहीं जा पाएंगे, तो तय हुआ कि अब दिनेश जी सुबह हमारे संग ही हडसर से घोड़े पर मणिमहेश जाएंगे... जबकि हम दोनों साढूँ बंधु अपने चरण-कमलों पर ही मणिमहेश पहुँचेंगे, क्योंकि हम दोनों को पर्वतारोहण का नया-नया शौक जो चढ़ा था।
रात के 9बज चुके थे, हम भरमौर के प्रमुख आकर्षण "चौरासी मंदिर" देखने के लिए जा पहुँचे। विशाल जी व दिनेश जी पहली बार भरमौर आये थे , जबकि मैं चार साल पहले यानि जून 2010 में सपरिवार भरमौर घूम गया था। सो चौरासी मंदिर में प्रवेश करने से पहले ही मैं उन दोनों के लिए मार्गदर्शक बन गया।
जब मैं पिछली बार चौरासी मंदिर आया था, सुबह का वक्त था.... "बूडिल घाटी " के बीचो-बीच इस चौरासी मंदिर परिसर में तब एकदम शांति थी, परंतु आज बस वहाँ शांति नहीं थी बाकी सब कुछ था। जगती-बुझती टिमटिमाती रौशनी से जग रहे मंदिर परिसर में दाखिल होते ही मैं दिनेश जी और विशाल जी को सबसे पहले चौरासी मंदिर के प्रमुख मंदिर "मनमहेश मंदिर"( जो भरमौर के राजा मेरु वर्मा ने 7वीं शताब्दी में बनवाया था) की ओर ले कर जैसे ही मुड़ा तो एकदम से ठिठक गया, क्योंकि मंदिर के आगे भी लाइन लगी हुई थी।
सो अपना रुख उस मंदिर की ओर मोड़ लिया, जिसकी वास्तुकला व नक्काशी मुझे बेहद पसंद है और मुझे पक्का यकीन था कि इस भीड़ में भी उस मंदिर में हम अकेले ही घूम रहे होंगे। वह प्राचीन मंदिर "लक्षणा देवी मंदिर" है, यह मंदिर भी राजा मीरू वर्मा के राज्य काल में सातवीं शताब्दी निर्मित है। इस मंदिर की निर्माण शैली इसे चौरासी मंदिर परिसर के अन्य मंदिरों से अलग करती है, क्योंकि इस मंदिर में लकड़ी पर बहुत सुंदर व बारीक नक्काशी की हुई है, जबकि बाकी मंदिर पत्थरों से निर्मित है।
"माँ महिषासुर मर्दिनी" को समर्पित लक्षणा मंदिर की छत भी गुंबद की ना होकर ढालदार है। 1952 में सरकार द्वारा इस मंदिर को संरक्षित स्मारक घोषित किया गया, इस वजह से ही मंदिर की प्राचीनता कायम है, मंदिर की दीवारों को आज भी "गोलू मिट्टी" से पोता जाता है। मंदिर में स्थापित 1400साल पुरानी माँ महिषासुर मर्दिनी की सुंदर मूर्ति अष्टधातु निर्मित है, मूर्ति के आधार पर मूर्तिकार "गोगा" का नाम भी खुदा है, जो राजा मेरु वर्मा का मुख्य शिल्पी था।
मंदिर के फर्श पर बनी एक आकृति दिखाकर मैं बोला- " देखो यह चौरस लाइनों की भूलभुलैयाँ आकृति एक खेल लगती है जिसे मंदिर निर्माण में लगे लोग खाली या आराम के वक्त खेलते होंगे।
लक्षणा देवी मंदिर में दर्शन उपरांत बाहर निकल फिर से मनमहेश मंदिर की ओर देखा, वहाँ अभी भी लाइन कायम थी। सो अपना रुख "श्री धर्मेश्वर मंदिर" की ओर कर लिया। भरमौर स्थित धर्मराज का यह मंदिर समस्त विश्व में एक ही है और इस मंदिर के दरवाजे के सामने धर्मराज के लेखाकार चंद्रगुप्त का भी स्थान है। धर्मराज के मंदिर में हाज़िरी लगवा बाहर आये और हमनें चौरासी मंदिर परिसर के मुख्य मंदिर "मनमहेश मंदिर" में जाकर माथा टेका। बाहर निकलते ही दिनेश जी ने मुझसे सवाल किया- "इस परिसर में मुझे 84मंदिर तो कहीं नज़र नहीं आ रहे, फिर क्यों इस स्थान का नाम चौरासी मंदिर है...?" मैंने उत्तर दिया- "ठीक कहा आपने, इस स्थान का नाम चौरासी मंदिर इसलिए पड़ा क्योंकि पुरातन समय में यहाँ 84संत आकर ठहरे थे।"
हम कुछ समय के लिए मनमहेश मंदिर के पास बैठकर 'रौनक-मेले' को देखने लगे और मैं उन्हें अपनी जून 2010 की पिछली यात्रा के बारे में बताने लगा कि मैं सपरिवार सुबह-सुबह ही भरमौर से हडसर जा मणिमहेश को जाते पैदल रास्ते पर बीस-तीस पौड़ियाँ चढ़ वापस उतर आया और जब हम सुबह 10बजे के करीब चौरासी मंदिर में आए तो मनमहेश मंदिर की छांव में एक दर्जन के करीब पगड़ियाँ बांधे लोग घेरा बना कर किसी गुफ्तगूँ में मगन थे, उत्सुकतावश जब हमने उनसे बातचीत का विषय पूछा तो वह खुश हो कर बोले- "हम विवाह की तारीख पक्की कर रहे हैं" वह झुरमुट वर-वधु पक्ष का था।
बेहद सुकून भरा वातावरण था तब यहाँ, पूरा मंदिर परिसर घूमने के बाद मेरे पिता जी छाँव में बैठे स्थानीय बुजुर्गों से बतियाने बैठ गए। हम भी उनकी बातें ध्यान से सुनने लगे। उन बुजुर्गों से ही हमें पता चला कि भरमौर का नाम "भरमानी देवी" के नाम पर पड़ा। भरमानी देवी भरमौर की ग्राम देवी है। चौरासी मंदिर परिसर के पीछे की तरफ के पहाड़ की चोटी की ओर इशारा करके वे बुजुर्ग बोले कि वह ऊपर भरमानी देवी का स्थान है, अब तो वहाँ जीप द्वारा पहुँचने के लिए कच्चा रास्ता बन गया है... पहले पैदल ही जाते थे। भरमानी देवी की स्थानीय जनसाधारण में इतनी मान्यता है कि कृष्ण जन्माष्टमी से राधाअष्टमी तक हर वर्ष मणिमहेश झील पर लगने वाले " न्यौण" (स्नान मेला) में जाने से पहले भरमानी देवी मंदिर पर जाकर कुंड में स्नान करने की प्रथा है।
तब मैं झट से बोला- " मतलब मणिमहेश जाने से पहले भरमानी देवी के जाना, पदयात्री की शारीरिक परीक्षा है यदि वह भरमानी देवी की चढ़ाई चढ़ जाता है तो वह मणिमहेश भी जा सकता है...!!" उन बुजुर्गों ने हंसते हुए मेरी हां में हां मिला दी।
भरमानी देवी के सम्बन्ध में एक और दिलचस्प किस्सा उन्होंने हमें सुनाया कि पहले भरमानी देवी को भेड़ू की बलि लगती थी, सन्1999 अक्तूबर के महीने में भरमानी देवी के मंदिर में जागरण हो रहा था, तो आधी रात के बाद माँ भरमानी की पिंडी बहुत बड़े आकार की हो गई और उस पिंडी की आँखों पर दो लाल जोतें दहकने लगी, तभी जागरण में बैठे एक महंत पर माता भरमाणी की पौण (हवा) आ गई और उस महंत के मुख से माता बोली कि अब कोई भी भक्त मुझे भेडू की बलि नहीं देगा, बस एक छोटा सा भेडू ला कर.... उसे लाल वस्त्र बांध मेरे मंदिर के आसपास खुला छोड़कर, मुझे नारियल का भोग लगाए... बस इतने से मैं प्रसन्न हूँ और आपकी हर मनोकामना पूरी करूँगी।
विशाल जी और दिनेश जी मेरी यह बात सुन मेरे चेहरे की ओर उसी हैरानी से देख रहे थे, जिस हैरानी से हम सब उस समय इन बुजुर्गों के चेहरे देख रहे थे। मैंने अपनी बात को जारी रखते हुए कहा-"तब भरमानी देवी के इस चमत्कार की कहानी सुनकर मैंने अपने परिवार वालों से कहा कि चलो भरमानी देवी के भी चलते हैं"..... और हम सभी छोटे-बड़े मिलाकर आठ जन अपनी प्यारी ओमनी वैन में सवार हो, भरमौर से करीब पांच किलोमीटर दूर भरमानी देवी के चल दिये।
भरमौर की पक्की सड़क से जब मैने अपनी भरी हुई वैन को भरमानी देवी को जाते कच्चे रास्ते की तरफ मोड़ा, तो मोड़ पर अपनी टैक्सियाँ लगाकर ग्राहकों का इंतजार कर रहे ड्राइवरों की टोली हमारी वैन को भरमानी जाती देख हैरानी से देखने लगी और उनमें से कुछ मेरी तरफ संकेत कर मुझ पर हंसने भी लगे। पर उनकी हंसी जायज़ थी क्योंकि उस कच्चे रास्ते को सच में जीप ही पार कर सकती थी। चढ़ाई पर तीखे मोड़ आते ही मेरी वैन का साँस टूट जाता, आखिर कुछ तीखे मोड़ों पर मैने सब सवारियों को उतार कर खाली गाड़ी को ऊपर चढ़ाया.... और, अंततः मैंने अपनी ओमनी वैन द्वारा किए कीर्तिमानों में भरमानी देवी का नाम भी जुड़ गया...!!
मेरी इस आखिरी पंक्ति को सुनते ही दिनेश जी व विशाल जी मेरे संग खिलखिला कर हंस पड़े।
मनमहेश मंदिर से उठते ही अब मैं उन्हें 10वीं शताब्दी में बने "नरसिंह मंदिर" की ओर ले चल दिया। इस मंदिर में स्थापित भगवान नरसिंह की धातु मूर्ति बेहद आकर्षक है। नरसिंह भगवान बैठे हुए अपने दोनों हाथों के ऊपर अपने ठोढ़ी को रख मुस्कुराते हुए देख रहे हैं। मुझे नरसिंह भगवान की मूर्ति बहुत सुंदर लगती है दोस्तों।
रात के साढे दस बज चुके थे, चौरासी मंदिर से निकल जब हम वापस मुख्य सड़क पर पहुँचे तो ट्रैफिक जाम का वैसा ही हाल था, जैसा हम छोड़ गए थे।
एक ढाबे पर बैठ स्थानीय राजमाँह,आलू- मटर और दाल-मखनी के साथ रात्रि भोजन कर, ढाबे वाले से ही पूछताछ की.... तो जवाब मिला- " पहले यह 'न्यौण' स्थानीय लोगों तक ही सीमित हुआ करता था, परंतु पिछले कुछ वर्षों में इंटरनेट चलने के बाद से बाहरी लोग बहुत आने लगे हैं... जिसका नतीजा आप देख रहे हैं, यात्रा में प्रशासन भी नक़ारा साबित होने लगता है...!"
हमने उनसे पूछा कि हडसर में क्या हालात होंगे, तो वे बोले- "आखिर यह सारी भीड़ हडसर ही तो जा रही है, वहाँ तो गाड़ियाँ खड़ी करने के लिए भी जगह नहीं मिल रही.... आज ही पता चला है कि लोग गाड़ी द्वारा हडसर भी नहीं पहुँच पा रहे हैं, ट्रैफिक पुलिस वाले दो-तीन किलोमीटर पीछे ही गाड़ियों को रोक रहे हैं... वहीं से लोग अपनी पैदल यात्रा कर रहे हैं और वहाँ गाड़ी पार्क करने की कोई जगह खाली नहीं है, पुलिस वाले गाड़ियों को वहाँ से वापस भरमौर की ओर भेज देते हैं। "
खैर, हम तीनों ने वापस होटल में आ...सोने से पहले कार्यक्रम निश्चित किया कि सुबह 4बजे उठकर हम हडसर जाने की तैयारी करेंगे।
सुबह 4बजे अलार्म बजा और हम उठ बैठे। मैं अकेला ही होटल से बाहर निकल रास्ते का निरीक्षण करने चल दिया। होटल से केवल सौ मीटर बाद भरमौर की तरफ अभी भी ट्रैफिक जाम था, लोग सड़क पर फंसी खड़ी अपनी गाड़ियों में सो रहे थे। वापस आ मैने उन्हें यह सूचना दी और हम तीनों ने निर्णय लिया कि अब हमें वापस ही चलना चाहिए, हमारे भाग्य में मणिमहेश के दर्शन नहीं है।
तड़के 5बजे हम होटल छोड़ बाहर सड़क पर मणिमहेश की दिशा की ओर हाथ जोड़कर खड़े, भगवान शिव को वहीं से नमन कर दुखी मन से "जैसी तेरी मर्ज़ी, भोले भण्डारी " कहते हुए चम्बा की ओर वापस चल दिये।
(क्रमश:)
साढ़े आठ से ऊपर समय हो चला था, भरमौर की शुरूआत में ही हमारी तरफ की सड़क किनारे पर मुझे एक तीन मंजिला इमारत दिखाई दी। मैंने मन ही मन सोचा हो ना हो यह होटल ही लगता है, परंतु गाड़ी अभी उस इमारत से पचास मीटर की दूरी पर फंसी थी। धीरे-धीरे खिसकते हुए जैसे हम उस इमारत के पास पहुँचे तो वह इमारत सच में एक होटल थी और खुशकिस्मती से उसके आगे एक कार खड़ी होने की जगह भी बची थी।
मेरे तन-मन में एकदम से चुस्ती छा गई और तेज़ी से दिनेश जी को बोला- "गाड़ी को इस होटल की ओर मोड़ लीजिए और हमें हर कीमत पर इस होटल में कमरा लेना है, क्योंकि भीड़ के जो हालात दिख रहे हैं उससे ज़ाहिर हो चुका है कि यह होटल यदि हमारे काम नहीं आया तो सड़क पर ही गाड़ी में फंसे रात गुजारनी पड़ेगी...!!!"
अब हम तीनों फुर्ती से पिछली गाड़ियाँ रुकवा कर अपनी गाड़ी को आगे-पीछे कर उस होटल के आगे बची जगह में घुसा रहे थे। हम तीनों में से किसी एक बंदे की किस्मत उस दिन बलवान थी... हमें उस "रश-रौले" (भीड़-भाड़) में भी उस होटल में एक कमरा मिल ही गया। भरमौर से बाहर ही उस जगह कमरा लेने से एक तो हमारा उस जाम से पीछा छूटा, दूसरा मन में यह ख्याल उत्पन्न हो चुका था कि यह जाम तो कुछ देर बाद या कुछ घंटों में खुल जाएगा, हम दोनों सुबह तड़के ही भरमौर से हडसर की ओर चल देंगे क्योंकि उस समय रास्ता साफ होगा और दिनेश जी सुबह हेलीकॉप्टर में भरमौर से मणिमहेश उड़ जाएंगे।
हम आठ-दस मिनट में हाथ मुँह धोकर होटल से नीचे उतर आए और पैदल ही भरमौर के लिए चल दिये कि पहले दिनेश जी की हेलीकॉप्टर बुकिंग करेंगे, फिर भरमौर के प्रख्यात "चौरासी मंदिर" दर्शन और अंत में "उदर-पूजन" परंतु.....!!!!!
होटल से बाहर निकलते ही हम उस भीड़ का हिस्सा हो गये, जो सड़क पर फंसी इन गाड़ियों के बीच बची जगह से होकर गुज़र रही थी। फंसी हुई गाड़ियों में अब केवल चालक ही बचा था, ज्यादातर लोग गाड़ियों से उतरकर भरमौर की ओर चले जा रहे थे हमारी ही तरह। भरमौर मुख्य चौक पर पहुँचते-पहुँचते भीड़ बहुत ज्यादा बढ़ गई, इसी भीड़ में मुझे मेरे मुहल्लेदार राज्य सभा मैम्बर "श्री अविनाश राय खन्ना जी" के परिजन भी भटकते हुए मिले, वे भी अपनी गाड़ी को जाम में छोड़ पैदल ही चले आ रहे थे।
हेलीकॉप्टर बुकिंग कार्यालय बंद कर दिया गया था, पता चला कि हेलीकॉप्टर में मणिमहेश जाने के लिए तीन दिन की प्रतीक्षा चल रही है। सो मौजूदा हालात से सिद्ध हो गया कि दिनेश जी हेलीकॉप्टर से कल सुबह मणिमहेश नहीं जा पाएंगे, तो तय हुआ कि अब दिनेश जी सुबह हमारे संग ही हडसर से घोड़े पर मणिमहेश जाएंगे... जबकि हम दोनों साढूँ बंधु अपने चरण-कमलों पर ही मणिमहेश पहुँचेंगे, क्योंकि हम दोनों को पर्वतारोहण का नया-नया शौक जो चढ़ा था।
रात के 9बज चुके थे, हम भरमौर के प्रमुख आकर्षण "चौरासी मंदिर" देखने के लिए जा पहुँचे। विशाल जी व दिनेश जी पहली बार भरमौर आये थे , जबकि मैं चार साल पहले यानि जून 2010 में सपरिवार भरमौर घूम गया था। सो चौरासी मंदिर में प्रवेश करने से पहले ही मैं उन दोनों के लिए मार्गदर्शक बन गया।
जब मैं पिछली बार चौरासी मंदिर आया था, सुबह का वक्त था.... "बूडिल घाटी " के बीचो-बीच इस चौरासी मंदिर परिसर में तब एकदम शांति थी, परंतु आज बस वहाँ शांति नहीं थी बाकी सब कुछ था। जगती-बुझती टिमटिमाती रौशनी से जग रहे मंदिर परिसर में दाखिल होते ही मैं दिनेश जी और विशाल जी को सबसे पहले चौरासी मंदिर के प्रमुख मंदिर "मनमहेश मंदिर"( जो भरमौर के राजा मेरु वर्मा ने 7वीं शताब्दी में बनवाया था) की ओर ले कर जैसे ही मुड़ा तो एकदम से ठिठक गया, क्योंकि मंदिर के आगे भी लाइन लगी हुई थी।
सो अपना रुख उस मंदिर की ओर मोड़ लिया, जिसकी वास्तुकला व नक्काशी मुझे बेहद पसंद है और मुझे पक्का यकीन था कि इस भीड़ में भी उस मंदिर में हम अकेले ही घूम रहे होंगे। वह प्राचीन मंदिर "लक्षणा देवी मंदिर" है, यह मंदिर भी राजा मीरू वर्मा के राज्य काल में सातवीं शताब्दी निर्मित है। इस मंदिर की निर्माण शैली इसे चौरासी मंदिर परिसर के अन्य मंदिरों से अलग करती है, क्योंकि इस मंदिर में लकड़ी पर बहुत सुंदर व बारीक नक्काशी की हुई है, जबकि बाकी मंदिर पत्थरों से निर्मित है।
"माँ महिषासुर मर्दिनी" को समर्पित लक्षणा मंदिर की छत भी गुंबद की ना होकर ढालदार है। 1952 में सरकार द्वारा इस मंदिर को संरक्षित स्मारक घोषित किया गया, इस वजह से ही मंदिर की प्राचीनता कायम है, मंदिर की दीवारों को आज भी "गोलू मिट्टी" से पोता जाता है। मंदिर में स्थापित 1400साल पुरानी माँ महिषासुर मर्दिनी की सुंदर मूर्ति अष्टधातु निर्मित है, मूर्ति के आधार पर मूर्तिकार "गोगा" का नाम भी खुदा है, जो राजा मेरु वर्मा का मुख्य शिल्पी था।
मंदिर के फर्श पर बनी एक आकृति दिखाकर मैं बोला- " देखो यह चौरस लाइनों की भूलभुलैयाँ आकृति एक खेल लगती है जिसे मंदिर निर्माण में लगे लोग खाली या आराम के वक्त खेलते होंगे।
लक्षणा देवी मंदिर में दर्शन उपरांत बाहर निकल फिर से मनमहेश मंदिर की ओर देखा, वहाँ अभी भी लाइन कायम थी। सो अपना रुख "श्री धर्मेश्वर मंदिर" की ओर कर लिया। भरमौर स्थित धर्मराज का यह मंदिर समस्त विश्व में एक ही है और इस मंदिर के दरवाजे के सामने धर्मराज के लेखाकार चंद्रगुप्त का भी स्थान है। धर्मराज के मंदिर में हाज़िरी लगवा बाहर आये और हमनें चौरासी मंदिर परिसर के मुख्य मंदिर "मनमहेश मंदिर" में जाकर माथा टेका। बाहर निकलते ही दिनेश जी ने मुझसे सवाल किया- "इस परिसर में मुझे 84मंदिर तो कहीं नज़र नहीं आ रहे, फिर क्यों इस स्थान का नाम चौरासी मंदिर है...?" मैंने उत्तर दिया- "ठीक कहा आपने, इस स्थान का नाम चौरासी मंदिर इसलिए पड़ा क्योंकि पुरातन समय में यहाँ 84संत आकर ठहरे थे।"
हम कुछ समय के लिए मनमहेश मंदिर के पास बैठकर 'रौनक-मेले' को देखने लगे और मैं उन्हें अपनी जून 2010 की पिछली यात्रा के बारे में बताने लगा कि मैं सपरिवार सुबह-सुबह ही भरमौर से हडसर जा मणिमहेश को जाते पैदल रास्ते पर बीस-तीस पौड़ियाँ चढ़ वापस उतर आया और जब हम सुबह 10बजे के करीब चौरासी मंदिर में आए तो मनमहेश मंदिर की छांव में एक दर्जन के करीब पगड़ियाँ बांधे लोग घेरा बना कर किसी गुफ्तगूँ में मगन थे, उत्सुकतावश जब हमने उनसे बातचीत का विषय पूछा तो वह खुश हो कर बोले- "हम विवाह की तारीख पक्की कर रहे हैं" वह झुरमुट वर-वधु पक्ष का था।
बेहद सुकून भरा वातावरण था तब यहाँ, पूरा मंदिर परिसर घूमने के बाद मेरे पिता जी छाँव में बैठे स्थानीय बुजुर्गों से बतियाने बैठ गए। हम भी उनकी बातें ध्यान से सुनने लगे। उन बुजुर्गों से ही हमें पता चला कि भरमौर का नाम "भरमानी देवी" के नाम पर पड़ा। भरमानी देवी भरमौर की ग्राम देवी है। चौरासी मंदिर परिसर के पीछे की तरफ के पहाड़ की चोटी की ओर इशारा करके वे बुजुर्ग बोले कि वह ऊपर भरमानी देवी का स्थान है, अब तो वहाँ जीप द्वारा पहुँचने के लिए कच्चा रास्ता बन गया है... पहले पैदल ही जाते थे। भरमानी देवी की स्थानीय जनसाधारण में इतनी मान्यता है कि कृष्ण जन्माष्टमी से राधाअष्टमी तक हर वर्ष मणिमहेश झील पर लगने वाले " न्यौण" (स्नान मेला) में जाने से पहले भरमानी देवी मंदिर पर जाकर कुंड में स्नान करने की प्रथा है।
तब मैं झट से बोला- " मतलब मणिमहेश जाने से पहले भरमानी देवी के जाना, पदयात्री की शारीरिक परीक्षा है यदि वह भरमानी देवी की चढ़ाई चढ़ जाता है तो वह मणिमहेश भी जा सकता है...!!" उन बुजुर्गों ने हंसते हुए मेरी हां में हां मिला दी।
भरमानी देवी के सम्बन्ध में एक और दिलचस्प किस्सा उन्होंने हमें सुनाया कि पहले भरमानी देवी को भेड़ू की बलि लगती थी, सन्1999 अक्तूबर के महीने में भरमानी देवी के मंदिर में जागरण हो रहा था, तो आधी रात के बाद माँ भरमानी की पिंडी बहुत बड़े आकार की हो गई और उस पिंडी की आँखों पर दो लाल जोतें दहकने लगी, तभी जागरण में बैठे एक महंत पर माता भरमाणी की पौण (हवा) आ गई और उस महंत के मुख से माता बोली कि अब कोई भी भक्त मुझे भेडू की बलि नहीं देगा, बस एक छोटा सा भेडू ला कर.... उसे लाल वस्त्र बांध मेरे मंदिर के आसपास खुला छोड़कर, मुझे नारियल का भोग लगाए... बस इतने से मैं प्रसन्न हूँ और आपकी हर मनोकामना पूरी करूँगी।
विशाल जी और दिनेश जी मेरी यह बात सुन मेरे चेहरे की ओर उसी हैरानी से देख रहे थे, जिस हैरानी से हम सब उस समय इन बुजुर्गों के चेहरे देख रहे थे। मैंने अपनी बात को जारी रखते हुए कहा-"तब भरमानी देवी के इस चमत्कार की कहानी सुनकर मैंने अपने परिवार वालों से कहा कि चलो भरमानी देवी के भी चलते हैं"..... और हम सभी छोटे-बड़े मिलाकर आठ जन अपनी प्यारी ओमनी वैन में सवार हो, भरमौर से करीब पांच किलोमीटर दूर भरमानी देवी के चल दिये।
भरमौर की पक्की सड़क से जब मैने अपनी भरी हुई वैन को भरमानी देवी को जाते कच्चे रास्ते की तरफ मोड़ा, तो मोड़ पर अपनी टैक्सियाँ लगाकर ग्राहकों का इंतजार कर रहे ड्राइवरों की टोली हमारी वैन को भरमानी जाती देख हैरानी से देखने लगी और उनमें से कुछ मेरी तरफ संकेत कर मुझ पर हंसने भी लगे। पर उनकी हंसी जायज़ थी क्योंकि उस कच्चे रास्ते को सच में जीप ही पार कर सकती थी। चढ़ाई पर तीखे मोड़ आते ही मेरी वैन का साँस टूट जाता, आखिर कुछ तीखे मोड़ों पर मैने सब सवारियों को उतार कर खाली गाड़ी को ऊपर चढ़ाया.... और, अंततः मैंने अपनी ओमनी वैन द्वारा किए कीर्तिमानों में भरमानी देवी का नाम भी जुड़ गया...!!
मेरी इस आखिरी पंक्ति को सुनते ही दिनेश जी व विशाल जी मेरे संग खिलखिला कर हंस पड़े।
मनमहेश मंदिर से उठते ही अब मैं उन्हें 10वीं शताब्दी में बने "नरसिंह मंदिर" की ओर ले चल दिया। इस मंदिर में स्थापित भगवान नरसिंह की धातु मूर्ति बेहद आकर्षक है। नरसिंह भगवान बैठे हुए अपने दोनों हाथों के ऊपर अपने ठोढ़ी को रख मुस्कुराते हुए देख रहे हैं। मुझे नरसिंह भगवान की मूर्ति बहुत सुंदर लगती है दोस्तों।
रात के साढे दस बज चुके थे, चौरासी मंदिर से निकल जब हम वापस मुख्य सड़क पर पहुँचे तो ट्रैफिक जाम का वैसा ही हाल था, जैसा हम छोड़ गए थे।
एक ढाबे पर बैठ स्थानीय राजमाँह,आलू- मटर और दाल-मखनी के साथ रात्रि भोजन कर, ढाबे वाले से ही पूछताछ की.... तो जवाब मिला- " पहले यह 'न्यौण' स्थानीय लोगों तक ही सीमित हुआ करता था, परंतु पिछले कुछ वर्षों में इंटरनेट चलने के बाद से बाहरी लोग बहुत आने लगे हैं... जिसका नतीजा आप देख रहे हैं, यात्रा में प्रशासन भी नक़ारा साबित होने लगता है...!"
हमने उनसे पूछा कि हडसर में क्या हालात होंगे, तो वे बोले- "आखिर यह सारी भीड़ हडसर ही तो जा रही है, वहाँ तो गाड़ियाँ खड़ी करने के लिए भी जगह नहीं मिल रही.... आज ही पता चला है कि लोग गाड़ी द्वारा हडसर भी नहीं पहुँच पा रहे हैं, ट्रैफिक पुलिस वाले दो-तीन किलोमीटर पीछे ही गाड़ियों को रोक रहे हैं... वहीं से लोग अपनी पैदल यात्रा कर रहे हैं और वहाँ गाड़ी पार्क करने की कोई जगह खाली नहीं है, पुलिस वाले गाड़ियों को वहाँ से वापस भरमौर की ओर भेज देते हैं। "
खैर, हम तीनों ने वापस होटल में आ...सोने से पहले कार्यक्रम निश्चित किया कि सुबह 4बजे उठकर हम हडसर जाने की तैयारी करेंगे।
सुबह 4बजे अलार्म बजा और हम उठ बैठे। मैं अकेला ही होटल से बाहर निकल रास्ते का निरीक्षण करने चल दिया। होटल से केवल सौ मीटर बाद भरमौर की तरफ अभी भी ट्रैफिक जाम था, लोग सड़क पर फंसी खड़ी अपनी गाड़ियों में सो रहे थे। वापस आ मैने उन्हें यह सूचना दी और हम तीनों ने निर्णय लिया कि अब हमें वापस ही चलना चाहिए, हमारे भाग्य में मणिमहेश के दर्शन नहीं है।
तड़के 5बजे हम होटल छोड़ बाहर सड़क पर मणिमहेश की दिशा की ओर हाथ जोड़कर खड़े, भगवान शिव को वहीं से नमन कर दुखी मन से "जैसी तेरी मर्ज़ी, भोले भण्डारी " कहते हुए चम्बा की ओर वापस चल दिये।
(क्रमश:)
भरमौर के प्रख्यात "चौरासी मंदिर" के प्रवेश पर खड़े हम। |
चौरासी मंदिर परिसर में स्थित "लक्षणा देवी" मंदिर के भीतर। |
"लक्षणा देवी मंदिर " में लकड़ी पर की हुई सुंदर नक्काशी। |
माँ लक्षणा देवी मंदिर का गर्भ ग्रह। |
देखो भाई , क्या कमाल की कारीगरी है लक्षणा देवी मंदिर की। |
माँ महिषासुर मर्दिनी रुप माँ लक्षणा देवी की 1400वर्ष पुरानी अष्ट धातु मूर्ति। |
लक्षणा देवी मंदिर के फर्श पर बनी यह आकृति दिखा कर मैं बोला-" देखो यह चौरस लाइनों की भूलभुलैयाँ आकृति एक खेल लगता है, जिसें तब मंदिर निर्माण में लगे लोग खाली या आराम के वक्त खेलते होंगे। |
7वीं शताब्दी निर्मित " माँ लक्षणा देवी मंदिर " |
लक्षणा देवी की दीवारों को अभी भी गोलू मिट्टी से पोता जाता है, क्योंकि इस प्राचीन मंदिर को सरकार ने 1952 में राष्ट्रीय धरोहर घोषित कर दिया था। |
लक्षणा देवी मंदिर का नक्काशीदार मुख्य द्वार। |
पूरे विश्व में धर्मराज का एक मात्र मंदिर " श्री धर्मेश्वर मंदिर, चौरासी मंदिर भरमौर " |
धर्मराज के मंदिर के बाहर उनके लेखाकार "चित्रगुप्त " का स्थान। |
चौरासी मंदिर परिसर के प्रमुख मंदिर " मनमहेश मंदिर " के आगे खड़े हम। |
मनमहेश मंदिर में माथा टेकने के बाद....हम वहीं बैठ गए रौनक-मेला देखने लगे और मैं उन्हें अपनी पिछली भरमौर यात्रा के किस्से सुनाने लगा। |
जून 2010 में, चौरासी मंदिर के भ्रमण के दौरान मेरे द्वारा खींची गई मनमहेश मंदिर का चित्र। |
चौरासी मंदिर प्रांगण। |
मनमहेश मंदिर की छाँव में बैठे वर-वधु पक्ष के लोग। |
हम विवाह की तारीख़ व कार्यक्रम निर्धारित कर रहे हैं। |
" नर सिंह मंदिर " |
मंदिर में स्थापित नर सिंह भगवान की धातु प्रतिमा। |
वाह, क्या दिलकश अंदाज है भगवान आपका। |
पिछली यात्रा में मेरे पिता डॉक्टर कृष्ण गोपाल नारदा जी.....स्थानीय बुजुर्गों से बतियाने बैठ गए और इन्होंने हमें भरमौर की ग्राम देवी " भरमानी देवी " की कहानी सुनाई। |
और, तब हम भरमानी देवी की कहानी सुन प्रभावित हो.....भरमौर से कच्चे रास्ते द्वारा पहाड़ की ऊँचाई पर स्थित भरमानी देवी के मंदिर की ओर चल दिये और रास्ते से नीचे दिख रहा भरमौर। |
भरमानी देवी के रास्ते पर दिख रहे भरमौर का निकट चित्र। |
भरमानी देवी के रास्ते से नीचे दिख रही बूडिल घाटी में यह सीढ़िदार खेत ऐसे नज़र आ रहे थे, जैसे कोई बंगाल टाइगर लेटा हो...!! |
भरमानी देवी को जाते कच्चे रास्ते के तीखे मोड़ों पर हमारी प्यारी ओमनी वैन का साँस टूट जाता, मैं आधी-आधी सवारियाँ ले दो चक्करों में उन्हें भरमानी देवी ले कर गया। |
भरमानी देवी मंदिर। |
रात्रि भोजन। |
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