भाग-16 श्री खंड महादेव कैलाश की ओर....
" दो सांढू भाई, चले भीम तलाई "
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पिछली किश्त में मैने आपको बताया था कि यात्रा की दूसरी रात हमने बड़े आराम से डाँडा धार पर्वत के शिखर "काली टॉप" पर बिताई.... सुबह सात बजे आगे के सफर पर चलने की तैयारी हो चुकी थी, परन्तु मौसम कमबख़्त बेईमानियाँ किये जा रहा था.. सो आधा घंटा इंतज़ार के उपरांत हमने अपने जलरोधी पोंचू (रेनकोट) पहन कर यात्रा पथ में अपने कदम बढ़ा दिये.....
काली टॉप से सीधी खड़ी उतराई "भीम तलाई" को उतरती है, पचास-साठ कदम चल कर आदतन पीछे मुड़ कर देखा तो काली टॉप पर टैंट धुंध में अब धुंधलें से नज़र आ रहे थे... आगे यात्रा पथ पर देखा कि वही जाने-पहचाने से चेहरे जो हमारे साथ कल के दिन डाँडा धार की चढ़ाई चढ़ रहे थे, सामने से वापस आ रहे थे... वे वहीं नौ साल की रिती थी जो कल अपनी नानी व बड़ी बहन के साथ श्री खंड की ओर गई थी....पास आते ही मैने रिती की नानी से पूछा, " क्या हुआ आप लोग क्यों वापस आ गए " तो नानी बोली, " बेटा, बड़ी वाली बेटी थक गई और बोली चलो नानी वापस मुझे नही जाना अब आगे श्री खंड..! "
मैने रिती की तरफ देखकर कहा, " क्या तुम भी थक गई रिती..! " तो वह मासूमियत से बोली, " नही अंकल.. मैं तो जा रही थी श्री खंड, पर दीदी ने आगे जाने ही नही दिया...!! " नानी फिर बोली, "अब क्या किया जा सकता था, कल रात हम भीम तलाई पर रुके और सुबह वापस घर की ओर चल दिये.. अब अगले साल देखेंगे, यदि शंकर की इच्छा हुई तो.. उसकी इच्छा के बगैर यहाँ तो एक हल्का सा पत्ता भी नही हिलता.. हमारी क्या औकात...!!!"
खैर हम फिर से उस फिसलन भरे रास्ते पर अपने पैर जमा-जमा कर नीचे की ओर उतरने लगे, एक तो जबरदस्त उतराई और ऊपर से बारिश की वजह से फिसलन..... कुछ नीचे उतरने पर देखा कि काली टॉप पर लगी दुकानों में पानी की आपूर्ति कहाँ से होती है, दुकानदार रास्ते पर एक छोटे से प्राकृतिक जल-स्रोत से थोड़ा-थोड़ा पानी निकाल कैनियों में भर, सिर पर लाद कर उस कठिन चढ़ाई को चढ़ कर काली टॉप तक पानी पहुँचाते हैं.... सच में दोस्तों, इन परिस्थितियों में अपने काम को अंजाम देना इन दुकानदारों के लिए बेहद कठिन कार्य है....
मेरी नज़र बार-बार उस दिशा की ओर चली जाती, जिस दिशा में श्री खंड महादेव शिला को बादलों ने ढक रखा था... चंद पलों के लिए बादल कुछ तितर-बितर से तो हुए, परन्तु दूसरे पल फिर से बादल एक-जुट से हो गए.... निराशा ही हाथ लगी, श्री खंड महादेव शिला के दूरदर्शन की लालसा मन में रह गई....बारिश रुक गई तो रेनकोट का भार कंधों पर महसूस होने लगा, सो उतार कर अपने पाउच के साथ बांध लिया....... तभी दूर से एक गाना बजता हुआ हमारे पास चला आ रहा था, " पायलिया, हो हो हो... तेरी पायलिया हो हो हो, तेरी पायलिया गीत सुनाए... सरगम गाये, मुझ को पास बुलाये, रब्बा हो.....! " पर्वत की उस खामोशी में इस गीत में बज रही झंकार बीट और गायक कुमार शानू की मधुर आवाज़ हमारे कानों में मानो रस सा घोल गई हो..... मुम्बई से आए वे महोदय अपने गले में एक स्पीकर डाल, गाने सुनते- सुनाते हुए खुशी मन से श्री खंड दर्शन कर वापस आ रहे थे, जो भी मुझे रास्ते में अच्छा लगता... मैं उसकी फोटो जरूर खींचता जाता... चाहे वो रास्ते पर बिखरे पत्थर हो या उन भाई साहिब की हिमाचली टोपी जिस पर उन्होंने कुछ स्थानीय फूल सजा रखे थे, या फिर भगवान शिव के लिए त्रिशूल की जगह पर पंचशूल ले जाते वे सहयात्री......
डाँडा धार की काली घाटी उतराई में भोज पत्र के पेड़, जिस के पत्तों का उपयोग पुरातन समय में लेखन के लिए किया जाता था और तांगुड प्रजाति के झाड़ी नुमा पेड़ों की भरमार थी.... तांगुड के पत्तों के लेप का उपयोग स्थानीय लोग शरीर पर हुई खारिश को ठीक करने के लिए करते हैं... कहा जाता है कि इस लेप का प्रयोग जब रोगी पर किया जाता है, तो लेप लगते ही खारिश के रोगी की इस लेप की जलन से सिट्टी-पिट्ठी गुम हो जाती है, परन्तु इस के बाद खारिश से आराम जरूर आ जाता है.... ऐसा मुझे स्थानीय लोगों ने बताया... तो मैने तर्क दे कहा कि, " ये तांगुड के पत्तों का लेप एक प्रकार का जहर ही होगा, जिसे लगाते ही आदमी पानी तलाशता है कि इसे जल्द से जल्द अपने शरीर से धो डालूँ.....इसी वजह से शरीर की त्वचा में छिपे खारिश के कीटाणु मर जाते हैं और खारिश खुद व खुद ठीक हो जाती है... भाई हकीमों के परिवार से हूँ, ख़ानदानी पेशा है हमारा हिकमत....परन्तु अफसोस मैने हकीमी में अपना रूझान नही दिखाया, अंग्रेजी दवाइयों से चिपक कर बैठा रहा दोस्तों...!!! "
लो, अब बादल फिर से रोने लगे और रेनकोट का भार पुन: कंधों पर आन पड़ा, धुंध भी इतनी पड़ गई कि ऊँचाई से दिख रहा भीम तलाई भी ओझल सा हो गया, मौसम पल-पल रंग व नीयत बदल रहा था... हमारे कदम भी बारिश की भाँति कभी रुक जाते तो कभी यात्रा पथ पर बरस पड़ते.... धुंध का पहरा कुछ कम सा हुआ तो फिर से हमें अपनी आगामी मंज़िल भीम तलाई नीचे दिखने लगी और ढेड़ घंटे के बाद सुबह 9बजे हम काली घाटी से उतर कर भीम तलाई आ पहुँचें, मैने काली घाटी से भीम तलाई तक पाया कि डाँडा धार पर्वत के इस तरफ जल-स्रोतों की कोई कमी नही है, जबकि डाँडा धार पर्वत की उस तरफ यहाँ से हम लोग कल चढ़े थे...सारी की सारी जल विहीन भूमि है....
भीम तलाई (3490मीटर) पर्वत की उतराई में एक गोलाकार छोटा सा कुण्ड है, जो अपने नाम के अनुरूप ही महाभारत कालीन पाण्डवों के इतिहास से जुड़ा हुआ है कि ज्येष्ठ पाण्डु पुत्र युधिष्ठिर ने वनवास के वक्त यहीं तपस्या की थी और माता कुंती इस तलाई या कुण्ड से जल लेकर अर्पण करती थी.... श्री खंड महादेव के रास्ते पर पड़ने वाले स्थानों के नाम से यह भी पुष्टि हो जाती है कि हो सकता है कि पाण्डवों ने अपने वनवास काल के दौरान इन स्थानों पर निवास किया हो, ऐसा स्थानीय लोगों का मत है........ जबकि मेरी सोच है कि इन स्थानों की खोज पाण्डवों ने नही, अपितु उस अनाम चरवाहे या गद्दी ने की थी जो अपनी भेड़ें ले कर, चरागाहों का तलाश में इन दुर्गम पहाडों पर चढ़ गया होगा... और समय के चक्र के साथ- साथ बुद्धिजीवियों ने इन स्थलों को विशेष नामों व उन से जुड़े किस्से-कहानियों के साथ जोड़ दिया...!!!
भीम तलाई कुण्ड में पहाड की ऊँचाई से बह कर आ रहा जल गिर कर, दूसरी ओर निरंतर निकलता जा रहा था... और पानी न ठहरने के कारण पूरे कुण्ड में घास उगी हुई थी.... कुण्ड के पास ही माँ पार्वती की एक मूर्ति स्थापित है, जहाँ श्रद्धालु माथा टेक रहे थे... भील तलाई पर विश्राम करते हुए हमारी भेंट शिमला से आए कानूनगो(राजस्व निरीक्षण) के पद आसीन त्रिभुवन शर्मा जी से हुई, जो अपने साथियों के साथ तीसरी बार श्री खंड जा रहे थे.... इनके एक साथी ने अपनी टोपी में एक हरा पत्ता फंसा रखा था, तो मैं मजाक में उनसे बोला, " भाई, कान्हा लग रहे हो ये पत्ता मोर पंख की सी आभा बिखेर रहा है...! " वे जनाब मेरी बात सुन मंद-मंद मुस्कराते हुए अपने अंगूठे से मेरा समर्थन करते हुए आगे निकल गए..... और हम भीम तलाई से कुछ कदम ऊपर चढ़, एक तम्बू में जा बैठे चाय पीने के लिए.... और दोस्तों, पहाडों की ठंडक में गर्मागर्म चाय का मिलना ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे महबूब को उसकी महबूबा मिल गई हो...... !!
अब फिर से हम दोनों उस पथ पर चल रहे थे, जिस पर हर कदम एक अलग परिस्थिति में पड़ रहा था... कहीं कीचड़ से सना रास्ता, तो कहीं पत्थरों से सजा रास्ता, कहीं बड़े पेड़ों की जड़ों से बंधा रास्ता, तो कहीं झरने के प्रवाह से बह रहा रास्ता......परन्तु हर कदम खूबसूरत ही नज़र आ रहा था, प्रत्येक कदम भर लेने के बाद प्रकृति की खूबसूरती के नयन-नक्श भी निखरते से जा रहे थे... पर्वत शिखर से बह कर आ रही वो श्वेत जलधारा का प्रपात मन की गहराइयों में दबी हमारी चंचलता को उकसा रहा था, कि क्यों न बच्चा बन चुल्लू में पानी भर हम एक-दूसरे को मारने लग जाए..... परन्तु अफसोस ऐसा हो न सका, क्योंकि हम दोनों ही चंचलता की उस विशेष उम्र को पार कर चुके है....!!
..............................(क्रमश:)
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" दो सांढू भाई, चले भीम तलाई "
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पिछली किश्त में मैने आपको बताया था कि यात्रा की दूसरी रात हमने बड़े आराम से डाँडा धार पर्वत के शिखर "काली टॉप" पर बिताई.... सुबह सात बजे आगे के सफर पर चलने की तैयारी हो चुकी थी, परन्तु मौसम कमबख़्त बेईमानियाँ किये जा रहा था.. सो आधा घंटा इंतज़ार के उपरांत हमने अपने जलरोधी पोंचू (रेनकोट) पहन कर यात्रा पथ में अपने कदम बढ़ा दिये.....
काली टॉप से सीधी खड़ी उतराई "भीम तलाई" को उतरती है, पचास-साठ कदम चल कर आदतन पीछे मुड़ कर देखा तो काली टॉप पर टैंट धुंध में अब धुंधलें से नज़र आ रहे थे... आगे यात्रा पथ पर देखा कि वही जाने-पहचाने से चेहरे जो हमारे साथ कल के दिन डाँडा धार की चढ़ाई चढ़ रहे थे, सामने से वापस आ रहे थे... वे वहीं नौ साल की रिती थी जो कल अपनी नानी व बड़ी बहन के साथ श्री खंड की ओर गई थी....पास आते ही मैने रिती की नानी से पूछा, " क्या हुआ आप लोग क्यों वापस आ गए " तो नानी बोली, " बेटा, बड़ी वाली बेटी थक गई और बोली चलो नानी वापस मुझे नही जाना अब आगे श्री खंड..! "
मैने रिती की तरफ देखकर कहा, " क्या तुम भी थक गई रिती..! " तो वह मासूमियत से बोली, " नही अंकल.. मैं तो जा रही थी श्री खंड, पर दीदी ने आगे जाने ही नही दिया...!! " नानी फिर बोली, "अब क्या किया जा सकता था, कल रात हम भीम तलाई पर रुके और सुबह वापस घर की ओर चल दिये.. अब अगले साल देखेंगे, यदि शंकर की इच्छा हुई तो.. उसकी इच्छा के बगैर यहाँ तो एक हल्का सा पत्ता भी नही हिलता.. हमारी क्या औकात...!!!"
खैर हम फिर से उस फिसलन भरे रास्ते पर अपने पैर जमा-जमा कर नीचे की ओर उतरने लगे, एक तो जबरदस्त उतराई और ऊपर से बारिश की वजह से फिसलन..... कुछ नीचे उतरने पर देखा कि काली टॉप पर लगी दुकानों में पानी की आपूर्ति कहाँ से होती है, दुकानदार रास्ते पर एक छोटे से प्राकृतिक जल-स्रोत से थोड़ा-थोड़ा पानी निकाल कैनियों में भर, सिर पर लाद कर उस कठिन चढ़ाई को चढ़ कर काली टॉप तक पानी पहुँचाते हैं.... सच में दोस्तों, इन परिस्थितियों में अपने काम को अंजाम देना इन दुकानदारों के लिए बेहद कठिन कार्य है....
मेरी नज़र बार-बार उस दिशा की ओर चली जाती, जिस दिशा में श्री खंड महादेव शिला को बादलों ने ढक रखा था... चंद पलों के लिए बादल कुछ तितर-बितर से तो हुए, परन्तु दूसरे पल फिर से बादल एक-जुट से हो गए.... निराशा ही हाथ लगी, श्री खंड महादेव शिला के दूरदर्शन की लालसा मन में रह गई....बारिश रुक गई तो रेनकोट का भार कंधों पर महसूस होने लगा, सो उतार कर अपने पाउच के साथ बांध लिया....... तभी दूर से एक गाना बजता हुआ हमारे पास चला आ रहा था, " पायलिया, हो हो हो... तेरी पायलिया हो हो हो, तेरी पायलिया गीत सुनाए... सरगम गाये, मुझ को पास बुलाये, रब्बा हो.....! " पर्वत की उस खामोशी में इस गीत में बज रही झंकार बीट और गायक कुमार शानू की मधुर आवाज़ हमारे कानों में मानो रस सा घोल गई हो..... मुम्बई से आए वे महोदय अपने गले में एक स्पीकर डाल, गाने सुनते- सुनाते हुए खुशी मन से श्री खंड दर्शन कर वापस आ रहे थे, जो भी मुझे रास्ते में अच्छा लगता... मैं उसकी फोटो जरूर खींचता जाता... चाहे वो रास्ते पर बिखरे पत्थर हो या उन भाई साहिब की हिमाचली टोपी जिस पर उन्होंने कुछ स्थानीय फूल सजा रखे थे, या फिर भगवान शिव के लिए त्रिशूल की जगह पर पंचशूल ले जाते वे सहयात्री......
डाँडा धार की काली घाटी उतराई में भोज पत्र के पेड़, जिस के पत्तों का उपयोग पुरातन समय में लेखन के लिए किया जाता था और तांगुड प्रजाति के झाड़ी नुमा पेड़ों की भरमार थी.... तांगुड के पत्तों के लेप का उपयोग स्थानीय लोग शरीर पर हुई खारिश को ठीक करने के लिए करते हैं... कहा जाता है कि इस लेप का प्रयोग जब रोगी पर किया जाता है, तो लेप लगते ही खारिश के रोगी की इस लेप की जलन से सिट्टी-पिट्ठी गुम हो जाती है, परन्तु इस के बाद खारिश से आराम जरूर आ जाता है.... ऐसा मुझे स्थानीय लोगों ने बताया... तो मैने तर्क दे कहा कि, " ये तांगुड के पत्तों का लेप एक प्रकार का जहर ही होगा, जिसे लगाते ही आदमी पानी तलाशता है कि इसे जल्द से जल्द अपने शरीर से धो डालूँ.....इसी वजह से शरीर की त्वचा में छिपे खारिश के कीटाणु मर जाते हैं और खारिश खुद व खुद ठीक हो जाती है... भाई हकीमों के परिवार से हूँ, ख़ानदानी पेशा है हमारा हिकमत....परन्तु अफसोस मैने हकीमी में अपना रूझान नही दिखाया, अंग्रेजी दवाइयों से चिपक कर बैठा रहा दोस्तों...!!! "
लो, अब बादल फिर से रोने लगे और रेनकोट का भार पुन: कंधों पर आन पड़ा, धुंध भी इतनी पड़ गई कि ऊँचाई से दिख रहा भीम तलाई भी ओझल सा हो गया, मौसम पल-पल रंग व नीयत बदल रहा था... हमारे कदम भी बारिश की भाँति कभी रुक जाते तो कभी यात्रा पथ पर बरस पड़ते.... धुंध का पहरा कुछ कम सा हुआ तो फिर से हमें अपनी आगामी मंज़िल भीम तलाई नीचे दिखने लगी और ढेड़ घंटे के बाद सुबह 9बजे हम काली घाटी से उतर कर भीम तलाई आ पहुँचें, मैने काली घाटी से भीम तलाई तक पाया कि डाँडा धार पर्वत के इस तरफ जल-स्रोतों की कोई कमी नही है, जबकि डाँडा धार पर्वत की उस तरफ यहाँ से हम लोग कल चढ़े थे...सारी की सारी जल विहीन भूमि है....
भीम तलाई (3490मीटर) पर्वत की उतराई में एक गोलाकार छोटा सा कुण्ड है, जो अपने नाम के अनुरूप ही महाभारत कालीन पाण्डवों के इतिहास से जुड़ा हुआ है कि ज्येष्ठ पाण्डु पुत्र युधिष्ठिर ने वनवास के वक्त यहीं तपस्या की थी और माता कुंती इस तलाई या कुण्ड से जल लेकर अर्पण करती थी.... श्री खंड महादेव के रास्ते पर पड़ने वाले स्थानों के नाम से यह भी पुष्टि हो जाती है कि हो सकता है कि पाण्डवों ने अपने वनवास काल के दौरान इन स्थानों पर निवास किया हो, ऐसा स्थानीय लोगों का मत है........ जबकि मेरी सोच है कि इन स्थानों की खोज पाण्डवों ने नही, अपितु उस अनाम चरवाहे या गद्दी ने की थी जो अपनी भेड़ें ले कर, चरागाहों का तलाश में इन दुर्गम पहाडों पर चढ़ गया होगा... और समय के चक्र के साथ- साथ बुद्धिजीवियों ने इन स्थलों को विशेष नामों व उन से जुड़े किस्से-कहानियों के साथ जोड़ दिया...!!!
भीम तलाई कुण्ड में पहाड की ऊँचाई से बह कर आ रहा जल गिर कर, दूसरी ओर निरंतर निकलता जा रहा था... और पानी न ठहरने के कारण पूरे कुण्ड में घास उगी हुई थी.... कुण्ड के पास ही माँ पार्वती की एक मूर्ति स्थापित है, जहाँ श्रद्धालु माथा टेक रहे थे... भील तलाई पर विश्राम करते हुए हमारी भेंट शिमला से आए कानूनगो(राजस्व निरीक्षण) के पद आसीन त्रिभुवन शर्मा जी से हुई, जो अपने साथियों के साथ तीसरी बार श्री खंड जा रहे थे.... इनके एक साथी ने अपनी टोपी में एक हरा पत्ता फंसा रखा था, तो मैं मजाक में उनसे बोला, " भाई, कान्हा लग रहे हो ये पत्ता मोर पंख की सी आभा बिखेर रहा है...! " वे जनाब मेरी बात सुन मंद-मंद मुस्कराते हुए अपने अंगूठे से मेरा समर्थन करते हुए आगे निकल गए..... और हम भीम तलाई से कुछ कदम ऊपर चढ़, एक तम्बू में जा बैठे चाय पीने के लिए.... और दोस्तों, पहाडों की ठंडक में गर्मागर्म चाय का मिलना ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे महबूब को उसकी महबूबा मिल गई हो...... !!
अब फिर से हम दोनों उस पथ पर चल रहे थे, जिस पर हर कदम एक अलग परिस्थिति में पड़ रहा था... कहीं कीचड़ से सना रास्ता, तो कहीं पत्थरों से सजा रास्ता, कहीं बड़े पेड़ों की जड़ों से बंधा रास्ता, तो कहीं झरने के प्रवाह से बह रहा रास्ता......परन्तु हर कदम खूबसूरत ही नज़र आ रहा था, प्रत्येक कदम भर लेने के बाद प्रकृति की खूबसूरती के नयन-नक्श भी निखरते से जा रहे थे... पर्वत शिखर से बह कर आ रही वो श्वेत जलधारा का प्रपात मन की गहराइयों में दबी हमारी चंचलता को उकसा रहा था, कि क्यों न बच्चा बन चुल्लू में पानी भर हम एक-दूसरे को मारने लग जाए..... परन्तु अफसोस ऐसा हो न सका, क्योंकि हम दोनों ही चंचलता की उस विशेष उम्र को पार कर चुके है....!!
..............................(क्रमश:)
बादलों ने ऐसा क्या घेरा.... हमें अपने आप को रेनकोटों से घेरना पड़ा...! |
संग चल्ले आं...... ओ, श्री खंड संग चल्ले आं (पंजाबी में बोली ये पंक्ति मैने इन लोगों के दल को देख कर विशाल जी से कही थी) |
काली घाटी शिखर से कोई पचास कदम चलने के बाद आदतन पीछे मुड़ कर देखा तो, धुंध ने सब कुछ धुंधला कर दिया था.... |
नही अंकल.. मैं तो जा रही थी श्री खंड, पर दीदी ने आगे जाने ही नही दिया..... रिती ने मासूमियत से कहा |
दो सांढू भाई..... चले भीम तलाई...!! |
और, उस ऊँचाई से दिखाई देता भीम तलाई... |
परन्तु उस ओर जाते हुए रास्ते में बारे में क्या कहूँ.... खुद ही देख लो दोस्तों |
बस ऐसी ही तीखी उतराई.....और फिसलनदार ढलान |
इसी ढलान पर......काली घाटी शिखर पर लगी दुकानों के लिए जल-आपूर्ति के जल इकट्ठा किया जाता है |
लो जी, कभी-कभार विशाल जी अपने कैमरे की पुकार सुन ही लेते है.... जबकि मेरा कैमरा तो मुझ से बहुत परेशान रहता है...!!! |
बार-बार निगाहे उस दिशा की ओर जा रुक जाती, यहाँ श्री खंड महादेव शिला के दूरदर्शन होते है... परन्तु आवारागर्द बादल कहाँ हमारी सुनते हैं.....दोस्तों |
पायलिया हो हो हो.... तेरी पायलिया गीत सुनाये, सरगम गाए... रब्बा हो, ये ही वो जनाब थे, जो इन पहाडों में झंकार बीट पर गाने बजाते हुए जा रहे थे... |
लो, बारिश कुछ थमी..... और हम उस पोंचू (रेनकोट) से बाहर निकल आये |
काली घाटी शिखर से उतरते हुए श्रद्धालु... |
इन श्रद्धालु की हिमाचल टोपी में लगे फूल तो देखो दोस्तों...कितने सुंदर लग रहे हैं ना |
भगवान शिव के लिए पंचशूल ले जाते एक अन्य श्रद्धालु... |
और, फिर से बादल रो पड़े..... और पोंचू (रेनकोट) का वजन पुन: कंधों पर आन पड़ा... |
डाँडा धार पर्वत की इस ओर जल-स्रोतों की कोई कमी नही है.... |
एक दम से फिर धुंध छा गई.... |
.
फिर एक दम से धुंध का पहरा कुछ कम हुआ.... और नीचे भीम तलाई नज़र आने लगी |
बस यही है.... भीम तलाई |
तलाई मतलब कुण्ड....परन्तु इस कुण्ड में पानी ठहर नही रहा था... |
और, यह देखो कानूनगो साहिब त्रिभुवन शर्मा जी अपने संगियों संग चले रहे थे.. |
भीम तलाई पर तनिक विश्राम करते विशाल रतन जी..... |
भीम तलाई में पार्वती मंदिर पर नमन करते हुए एक श्रद्धालु... |
टोपी पर लगाये पत्ते को देख.... मैने कहा, "भाई कान्हा लग रहे हो, ये पत्ता मोर पंख सी आभा बिखेर रहा है.... |
भीम तलाई से कुछ ऊपर लगे टैंट.... |
और, वहीं हमारे पथ रक्षक आपस में कुछ बतियाने लगे.... |
दुर्गम पहाडों की ठंडक भरी ऊँचाई पर गर्मागर्म चाय का मिलना, मानो जैसे किसी महबूब को उसकी महबूबा मिल गई हो.... |
भीम तलाई पर तनिक विश्राम करने के पश्चात....पुन: चलाचल आरंभ |
और, रास्ता अब अपने सारे रंग दिखा रहा था.... |
रास्ते का एक रंग यह भी...... |
अब, प्रकृति के नयन-नक्श हर कद पर निखरते जा रहे थे..... |
काश कि हम दोनों इस खूबसूरत झरने का पानी अपने चुल्लू में भर..... एक-दूसरे की तरफ पानी उछालते, परन्तु चंचलता की इस विशेष उम्र को तो हम दोनों ही पार कर चुके है..... दोस्तों |
यात्रा विवरण बहुत ही बढ़िया है अब तो हम रविवार का इंतज़ार करने लगे है विकास जी क्योकि आपके जरिये यह यात्रा हम खुद कर रहे है
जवाब देंहटाएंबहुतसारा धन्यवाद..... लोकेन्द्र जी
हटाएंबहुत बढिया हकीम साहब,
जवाब देंहटाएंलडकियों को वापिस नहीं लौटना था। जो थक गयी थी उसे भीम दवार या पार्वती बाग आराम कराया जाता, बाकि दर्शन करने जाते। खैर
आपकी यात्रा का पूरा आनंद उठा रहे है।
बेहद धन्यवाद संदीप जी, परन्तु वे दोनों छोटी-छोटी लड़कियाँ अपनी नानी के संग श्री खंड जा रही थी...सो उन में एक लड़की को अकेला छोड़ कैसे नानी दूसरी लड़की को ले श्री खंड चले जाती.... जी
हटाएंबहुत ही उम्दा विवरण
जवाब देंहटाएंबेहद धन्यवाद.... विनोद जी
हटाएंपायलिया गीत सुनते सुनते आखिर कठिन उतराई उतार गए
जवाब देंहटाएंजी हां.... खूब कही प्रतीक जी
हटाएंLoved to read it again and always waiting for the next. Do you have any picture of that तांगुड tree/plant?
जवाब देंहटाएंबेहद धन्यवाद.... प्रवीण जी, इसी कड़ी की 17वीं फोटो में...मैं तांगुड की झाड़ियों के पास ही खड़ा हूँ... रेनकोट पहन कर.... जी
हटाएंतांगुड = Mountain Laurel
जवाब देंहटाएंहो सकता है जी, परन्तु मुझे इस विषय में कोई जानकारी नही है.... जी
हटाएंबेहद उम्दा जानकारी......
जवाब देंहटाएंबेहद धन्यवाद जी
हटाएंअति सुंदर वृतांत सर
जवाब देंहटाएंलग ही नही रह की अपनी दुकान पर बैठ कर आपका वृतांत पढ़ रहा हूँ वल्कि साथ ही चल रहा हूँ
बेहद धन्यवाद महेश जी, मेरा हमसफ़र बनने के लिए जी।
हटाएंसाधुवाद आपको अत्यंत दिलचस्प।
जवाब देंहटाएंसाधुवाद आपको अत्यंत दिलचस्प।
जवाब देंहटाएंबेहद धन्यवाद प्रमोद जी।
हटाएंमौसम हैं आशिकाना 😊 बारिश ने अपनी अलग ही छटा बिखेर डाली हैं खतरनाक फिसलन भरे रास्ते भी आपके इरादे बदल नही पाए।चलते चलिए Ac की ठंडक हमको श्रीखण्ड की ठंडक लग रही हैं ...हम भी साथ है
जवाब देंहटाएंवाह बुआ जी, बेहद धन्यवाद मेरे हमसफ़र बनने के लिए जी।
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