शुक्रवार, 9 नवंबर 2018

"एक गाँव ऐसा, जहाँ घरों की दूसरी मंजिल बनाना वर्जित है..!" (जयंती देवी)


                    मैं चण्डीगढ़ बेशुमार बार गया हूँ...... और चण्डीगढ़  में रहती अपनी छोटी बहनों के साथ, चण्डीगढ़ या आसपास के दर्शनीय स्थलों पर घूमना-फिरना अक्सर ही होता रहता है।
              चण्डीगढ़ के आस-पास बहुत सारे दर्शनीय स्थलों में एक स्थल, चण्डीगढ़ से केवल 14किलोमीटर दूर हिमालय की प्रथम परत शिवालिक की पहाड़ियों की रमणीकता में, 600वर्ष पुरातन मंदिर "जयंती देवी"  एक ऊँचे पहाड़ी शिखर पर स्थित है।  बहुत समय से मन में था कि इस पुरातन मंदिर को जरूर देखना है.. और आखिर मार्च 2016 को यह वह समय भी आ गया, जब मुझे भी सपरिवार मां जयंती देवी का बुलावा ही आ गया।
              चण्डीगढ़ के प्रसिद्ध 17सेक्टर से पीजीआई हस्पताल वाली सड़क पर चलते हुए खुड्डा लाहौरा कस्बे से "जयंती मजारी" गाँव पहुँचकर व्यक्ति को सामने पहाड़ी शिखर पर किले की शक्ल में बना जयंती देवी मंदिर आकर्षित करने लग पड़ता है। सौ-सवा सौ सीढ़ियों पर चढ़ाई जब हमने शुरू ही की थी तो सूर्य देव अपने घोड़े अस्तबल की ओर ले जा रहे थे।  मार्च महीने की हल्की सी सर्दी पर, दिन की जाती हुई धूप की चमकार खूब भा रही थी।    अभी कोई बीस-तीस सीढ़ियाँ ही चढ़ पाए थे कि ऊपर से एक बुजुर्ग अपने लंबे टांहगू (डंडे) का सहारा ले, बड़ी मुश्किल से धीरे-धीरे सीढ़ियाँ उतर रहे थे। उन्हें देख मन में विचार कौंदा तो उन बूढ़े बाबा से मैं पूछ बैठा, " बाबा आप कैसे इतनी सारी सीढ़ियाँ चढ़कर माता के दरबार में जा आये...!"
                तो वह ग्रामीण बुजुर्ग हंसते हुए बोले, " ओ पुत्रा मैं थोडी जानां हां,  मेैनू तांह माता आपे ही लेह जांदी आं..!!"  (बाबा के पंजाबी भाषा में कहें वाक्य का मतलब है कि पुत्र मैं खुद नही जाता, मुझे तो माता अपने आप ले जाती है।) बाबा की यह बात सुन मैंने झट से निष्कर्ष निकाल लिया कि स्थानीय लोगों में जयंती माता के प्रति गहरी आस्था है।
                जैसे ही आधी से ज्यादा सीढ़ियाँ हम चढ़ चुके थे तो उस ऊँचाई से जयंती माजरी गाँव का विहंगम दृश्य दिखना आरंभ हो गया.....तो मेरे बहनोई रमन जी ने मुझे गाँव की तरफ इशारा कर दिखाते हुए कहा, " भाजी,  देखो इस गाँव में क्या खास है..!" मैंने सरसरी सी नज़र मार कर कहा कि ऐसा तो कुछ खास नही, सामान्य गाँवों जैसा ही है यह गाँव है रमन जी..!!
                 रमन जी जो पहले भी जयंती देवी आ चुके थे, सो उस रहस्य को जानते थे..... जो रहस्य इस जयंती मजारी गाँव के बारे में प्रसिद्ध है। सो रमन जी ने हंसते हुए कहा कि इस गाँव की बनावट को ध्यान से देखो, यहाँ सारे मकानों की दूसरी मंजिल नही है....सारे के सारे मकान सिंगल छत के बने हैं..!!!!
                 अब मुझे सारा का सारा गाँव एक खुली किताब सा स्पष्ट दिखाई देने लगा कि हर गरीब-अमीर के छोटे-बड़े मकानों की छतों पर दूसरी छत ही नही है। यानि गाँव के मकान एक अनोखी गाथा समेटें बैठे हैं कि क्यों मकान मालिक पहली मंजिल के ऊपर दूसरी या तीसरी मंजिल नही बनाते।  हालाँकि मैं उस ऊँचाई से यह बात भी देख रहा था कि गाँव में बहुत सारे घर सम्पन्नतापूर्ण भी हैं, पर हैं सिर्फ एकमंजिला। यहाँ तक कि गाँव का गुरुद्वारा साहिब गाँव के मकानों से कुछ ऊँचा तो जरूर है, परन्तु है एकमंजिला ही।  मैंने हैरानी ज़ाहिर कर रमन जी से कहा, " सही कहा आपने... क्योंकि आज की आधुनिक सोच,  समय और जरूरत में अपने घरों को बहुमंजिला न करना खास बात है वैसे पुराने समय गाँवों में बनी धार्मिक जगहों की इमारतों की ऊँचाई से ऊँचा मकान कोई भी गाँव वासी नही बनाता था.... ठाकुरद्वारा के कलश शिखर हो या गुरुद्वारे साहिब के गुम्बद,  हर गाँव वासी सम्मान व आस्था में अपने बहुमंजिला मकान की ऊँचाई उनके बराबर नही होने देता था,  आज भी कुछ जगहों पर ऐसा देखा जा सकता है.... मेेरे शहर गढ़शंकर से केवल 6 किलोमीटर दूर हिमालय की प्रथम परत शिवालिक का पहला गाँव "कोट मैहरा " भी इस पुरातन रीति का उदाहरण है,  वहाँ के सब घर भी एकमंजिला है क्योंकि गाँव में मौजूद सारे धार्मिक स्थल भी एकमंजिला ही हैं.....  परन्तु यहाँ तो ऐसी कोई स्थिति भी नही है क्योंकि जंयती माता का मंदिर तो गाँव से करीब पाँच-छह सौ फुट ऊँची पहाड़ी पर बना है,  फिर भी क्यों लोग अपने घरों की ऊँचाई को मात्र दस-बारह फुट तक ही सीमित कर रखे हैं.....!!!!!"
                 रमन जी ने जवाब दिया कि मैंने भी यही सवाल स्थानीय लोगों से किया था तो उत्तर मिला कि जिस किसी ने भी कभी दूसरी मंजिल बनाने की कोशिश की... तो उसका नुकसान होना शुरू हो गया, सो लोगों ने दूसरी मंजिल बनाने की जुर्रत करनी ही छोड़ दी।
 
                     जैसे-जैसे हम सीढ़ियाँ चढ़ते जा रहे थे, ऊँचाई हमारी आँखों के समक्ष आस-पास व दूरदराज़ की सुन्दरता को प्रस्तुत किए जा रही थी.... एक तरफ तो दूर-दूर तक बिखरी सी पड़ी शिवालिक की पहाड़ियों का मनमोहक दृश्य और उसमें बांध बनाकर रोके गए बरसाती पानी से बनी सुन्दर जयंती झील.... दूसरी तरफ दूर तक देखते छोटे-छोटे गाँव और उनके खेतों में खड़ी गेहूँ की फसल की हरियाली।  मंदिर की सीढ़ियाँ चढ़ते-चढ़ते वहाँ घूम रहे मोरों को देख बच्चों का मन भी मयूर सा नाच रहा था।  शिखर पर पहुँचते-पहुँचते साढे छह बज चुके थे...हमारे सामने दिख रहे मैदानों में तो सूर्यास्त हो रहा था और हमारे पीछे शिवालिक की पहाड़ियों में चन्द्रोदय हो चुका था।
               शिखर पर पहुँच मंदिर प्रांगण में कदम रखते ही हमारा स्वागत तेज गति में बह रही हवा ने किया।  हवा इतनी तेज थी कि किले नुमा मंदिर की प्राचिरों और बुर्जों में बंधे लाल झंडों की  फड़फड़ाहट व मंदिर की घंटियों के मिश्रित ध्वनियां एक मंत्रमुग्ध संगीत की लहरें फैला रही थी।  मंदिर परिसर में कदम रखते ही यूँ ही नज़र दीवार पर लिखे  "जय मां कांगड़े वाली"  पंक्ति पर पड़ी,  तो दिमाग में आया कहाँ चण्डीगढ़ और कहाँ हिमाचल प्रदेश का प्राचीन शहर नगरकोट जो अब कांगड़ा नाम से जाना जाता है। कांगड़ा शहर तो माता ब्रजेश्वरी देवी मंदिर व चार हज़ार वर्ष पुराने नगरकोट दुर्ग के लिए प्रसिद्ध है, क्या यह कांगड़े वाली माता ब्रजेश्वरी का ही स्थान है..... परन्तु इस मंदिर का नाम तो माता जयंती देवी है।
                मेरे दिमाग के स्मरण घोड़े प्रकाश की गति से दौड़ने लग पड़े और दो क्षणों में ही अंधेरे दिमाग में प्रकाश ले आये कि कांगड़े के नगरकोट दुर्ग के पास भी माता जयंती देवी का मंदिर है, जहाँ हर वर्ष  5दिवसीय मेला "पंचभीषम"  लगता है।  मंदिर की दीवार पर माता जयंती देवी का संक्षिप्त इतिहास पढ़ कर मां के दरबार में शीश निभाया।
                 क्या सुन्दर मां जयंती का दरबार, क्या सुन्दर सजावट, स्वर्ण आभूषणों से लदी मां की  पिंडियाँ और देसी घी से जल रही मां की ज्योतें देख मन ठहर सा गया। मेरी पत्नी व बहनें मां के दरबार में दुर्गा सप्तशती के पाठ में मगन हो गई और मैं व रमन जी पुजारी व स्थानीय लोगों से मंदिर के इतिहास व मान्यताओं के बारे में और ज्यादा जानकारियां हासिल करने में व्यस्त हो गए।
     
                  अब इन सब जानकारियों का सार आपको सुनाता हूँ कि कहानी शुरू होती है, 15वीं सदी में जब दिल्ली पर बाबर का राज था और अब यहाँ जयंती माजरी गाँव व मंदिर है, तब यह सम्पूर्ण क्षेत्र " हथनौर"  रियासत नाम से जाना जाता था। हथनौर के हिन्दू राजपूत राजा के 22भाइयों में से एक भाई किसी काम से कांगड़ा गया। तो वहाँ घूमते-घूमाते जब प्यास लगने पर वह एक कुुुएँ पर गया, तो वहाँ उसकी नज़र पत्थर तोड़ने वाले "बटाड़े" जाति की एक अति सुंदर कन्या पर पड़ी, तब वह अपने परिवार के साथ उस कच्चे कुएँ को पक्का करने में अपने मिस्त्री पिता की सहायता कर रही थी। उस लड़की ने ही राजकुमार को कुएँ से पानी निकाल कर पिलाया। वह राजकुमार उस लड़की के सौंदर्य व व्यवहार पर मोहित हो गया, और उसने तभी अपना परिचय उसके पिता के समक्ष रख....विवाह का प्रस्ताव दे डाला। वे सब हैरान-परेशान कि कहाँ हम गरीब पत्थर तोड़ने वाले और कहाँ यह महलों का राजकुमार।
                 दरअसल, वह लड़की कांगड़े के नगरकोट दुर्ग से भी ऊपर स्थित  "मां जयंती देवी"  की अनन्य भक्त थी। प्रतिदिन पर्वत शिखर पर स्थापित मां जयंती देवी के मंदिर दर्शन उपरांत ही वह जल ग्रहण करती थी। हो ना हो यह चमत्कार मां जयंती देवी की कृपा से ही हुआ होगा कि उसकी इस अनन्य भक्त को राजयोग मिले।
                  शादी तय होने पर उस लड़की को अब रात- दिन यह चिंता सताने लगी कि मैं अपनी ईष्ट मां से बिछुड़कर कैसे ससुराल में जी सकूँगी, और उन अनजानों के बीच मुझ गरीब की कौन सुनने वाला होगा!
                   खैर एक रात मां जयंती ने उस लड़की के स्वप्न में आकर कहा, " तुम क्यों व्यर्थ चिंता करती हो,  मैं तुमसे कहाँ बिछुड़ने वाली हूँ... तुम जहाँ भी जाओगी मैं तुम्हारे साथ ही चलूँगी, तेरी अकेली की डोली कांगड़े से नही जा पाएगी...!!!"                           
                   आखिर विवाह का दिन भी आ गया,  विवाहोपरांत विदाई का समय..... डोली चलने को तैयार,  परन्तु यह क्या डोली उठाने वाले कहार पसीना-पसीना हो गए,  मगर उस लड़की की डोली उनसे उठ क्या टस से मस भी ना हुई...! यह करिश्मा देख हर कोई हैरान-परेशान था,  तो उसने अपने पिता को अपने स्वप्न सम्बंधी बताया, फिर एक अन्य डोली सजवा कर उसमें विधिपूर्वक जयंती मंदिर से मां जयंती को छोटी सी पिंडी रूप में बिठाया.... तो दोनों डोलियां एक साथ उठ गई और कांगड़ा से विदा हो हथनौर आ पहुँची। हथनौर के राजा ने कांगड़ा से विवाह कर लाई नववधु के साथ आई मां जयंती रूपी पिंडी को अपने राज्य की एक पहाड़ी पर एक छोटा सा मंदिर बनवाकर स्थापित कर दिया और नववधु पुन: वैसे ही पूजा अर्चना करने लगी, जैसे वह कुंवारी होते हुए अपने मायके में किया करती थी।
                   वह जब तक जीवित रही और उसकी तीन पीढ़ियाँ करीब दौ सौ साल तक मां जयंती की पूजा अर्चना करती रही,  परन्तु आगामी पीढ़ियों ने धीरे-धीरे मां जयंती को भुला दिया...अहंकार में यह कहते हुए की माता तो हमारी बहू के साथ डोली में आई थी और हम उसे विवाह कर लाए थे, हम उसके आगे सिर नही झुकायेगें।
                     मां जयंती देवी का वो छोटा सा मंदिर अब वीरान हो चुका था। मां जयंती देवी इस पर क्रोधित हो उठी और अपने एक परम भक्त डाकू गरीबू  (जो तब आज के चण्डीगढ़ से सटा मनीमाजरा शहर जब जंगल हुआ करता था, में रहता था)  के सपने में आकर उसे आदेश दिया कि हथनौर रियासत के सर्वनाश का समय आ गया है, रियासत के शासक अपनी ऐश-प्रस्ती और अहंकार में मुझे अपमानित कर रहे हैं...तू हथनौर पर हमला कर और उन कुपूतों का नाश कर हथनौर का राजा बन राज कर...!!
                    गरीबू डाकू ने जब अपने संगी-साथी इकट्ठे कर हथनौर पर चढ़ाई कर दी तो चमत्कारिक ढंग से हथनौर किले के अंदर जगह-जगह खुद-ब-खुद आग लग गई। जो लोग आग से बचने के लिए किले से बाहर आते रहे उन्हें गरीबू डाकू के आदमी मौत के घाट उतारते रहे। रियासत में कोई भी मां जयंती के प्रकोप से बच ना पाया, केवल वही बच पाए जो उस समय हथनौर से बाहर थे या समय रहते हथनौर से भाग गए थे। सारे का सारा हथनौर नेस्नाबूत हो चुका था.... बचा क्या बस एक शिव मंदिर जो आज भी जयंती माजरी गांव की आबादी से बाहर है और दूसरा मां जयंती का मंदिर।
                        पूरे क्षेत्र पर गरीबू डाकू का नियंत्रण हो चुका था और उसके हाथ जो भी लूट का पैसा-जेवर लगा,  उससे उसने मां जयंती देवी मंदिर से पाँच किलोमीटर दूर एक नया गढ़ बसाया "मुल्लापुर गरीबदास"  जो चण्डीगढ़ से केवल दस किलोमीटर की दूरी पर है। मां की कृपा से गरीबू डाकू से राजा बने गरीबदास ने पहाड़ी पर बने मां जयंती देवी के छोटे से मंदिर के स्थान पर ही करीब चार सौ साल पहले किले नुमा इस बड़े मंदिर का निर्माण करवाया।
                      जयंती देवी मंदिर का पुजारी भी कांगड़े से ही मां की पिंडी के साथ ही आया था,  आज उसकी 10वीं पीढ़ी मंदिर की सेवा कर रही है। मैंने पुजारी से जयंती माजरी गाँव के एकमंजिला मकानों के विषय में पूछा, " क्या यह मां जयंती का श्राप है कि गाँव का कोई भी घर बहुमंजिला नही हो सकता..!!!"
                        पंडित जी बोले कि यहाँ अकेले जयंती माजरी गाँव में एकमंजिला नही, बल्कि इस क्षेत्र के पाँचों गांवों में कोई भी मकान दो मंजिला नही है....माँ के श्राप से हथनौर रियासत का नामोनिशान भी नही रहा, कालांतर में लोग पुन: आ कर यहाँ बसने लगे और जिस किसी ने भी अपने मकान की दूसरी मंजिल बनानी चाहिए वह बन नही पाई... उसका कोई ना कोई नुकसान हो गया,  सो लोगों ने इस संयोग को मान दूसरी मंजिल बनाने ही छोड़ दी.... अभी कुछ समय पहले ही गाँव में सरकारी स्कूल बन रहा था, प्रशासन उसे दोमंजिला बनाना चाहता था परन्तु दूसरी मंजिल शुरू करते ही निर्माण कार्य में लगे एक व्यक्ति को करंट लग गया, ठेकेदारों के नुकसान पर नुकसान होने लगे तो आखिर उन्होंने भी हार मानकर स्कूल को एकमंजिला ही बनाया। चंद वर्ष पहले भी गाँव वालों ने देवी से दूसरी मंजिल डालने के संबंध में प्रश्न डाला था,  ग्यारह दिनों तक विधिवत पाठ-पूजा की गई,  फिर कन्या पूजन के उपरांत एक नन्ही कन्या से हां या नही की दो गुप्त पर्चियों में से एक उठवाई गई...... परन्तु जब पर्ची खोली गई तो मां का उत्तर  "नही"  ही निकला।  अपने मकानों को एकमंजिला रखना मां जयंती का श्राप कहो या वरदान,  परन्तु गाँव वासी बढ़-फूल रहे हैं देवी की कृपा इन सब पर बनी हुई है,  अब तो गाँव वाले मकानों की छतों से बच्चों को नीचे गिरने से बचाने लिए बनेंरे (रेलिंग) भी लगाने लगे हैं... जब कि पहले मकानों के बनेंरे भी नही बनाए जाते थे।

                         सूर्यास्त की लालिमा को धीरे-धीरे कर अंधेरा पीता जा रहा था, सात बजने को थे और हमारा लाम-लश्कर जयंती मंदिर पर माथा टेक सीढ़ियाँ उतरता जा रहा था....सीढ़ियाँ उतरते- उतरते मुझे दो स्थानीय नवयुवक मिल गए जो अब मेरे प्रश्नों का शिकार होने वाले थे।   मैंने उन नवयुवकों से पूछा, " भाई अब तो ज़माना बदल रहा है, सोच बदल रही है...आप लोग बताओ कि क्या अब भी आप लोग मकानों की दूसरी मंजिल नहीं बनाना चाहते..!!"       तब नवयुवकों का संयुक्त सा जवाब था कि समय व सोच तो आधुनिक हो रही है परन्तु पुरातन धारणाएँ हम सब के दिमागों में हावी है, चाहे हम अपने घरों में जगह की तंगी झेल रहे हैं क्योंकि हमारे परिवार बड़े होते जा रहे हैं... परन्तु हम फिर भी अपने घरों के ऊपर दूसरी मंजिल नही बनाते,   बस अब तो गाँव फैल रहा है लोगों ने खेतों में भी अपने एकमंजिला मकान बनाने शुरू कर दिए हैं,  चण्डीगढ़ जैसे चकाचौंध वाले आधुनिक शहर के इतने करीब होने पर भी हमारा गाँव पिछड़े का पिछड़ा ही है....गाँव से आने- जाने के लिए केवल एक ही बस आती-जाती थी जिसको भी अब सरकार ने बंद कर दिया है....बहुत लोग अपने-अपने साधनों पर माता जयंती माता माथा टेकने पहुँचते हैं, परन्तु उन्हें ले कर आने वाली सड़क पिछले कई वर्षों से टूटी हुई है....सफेद कपड़ों वाले चुनाव में वादे तो कर जाते हैं परन्तु शायद वह माता जयंती से नही डरते....!!!!!
               
                        सीढ़ियाँ उतर हम गाड़ी ले उस प्राचीन शिव मंदिर में जा पहुँचे....क्योंकि माता जयंती के दर्शनों के बाद इस प्राचीन शिवलिंग के दर्शन करने से ही यात्रा सफल मानी जाती है और इसी शिव मंदिर के अलावा पूरी की पूरी हथनौर रियासत विध्वंस हो गई थी और आज भी इस मंदिर के आस-पास कोई आबादी नही है।
                       काले हो चुके आसमान पर अब चाँद चमक रहा था और सड़क को मेरी गाड़ी की हेडलाइट चमका रही थी।  गाड़ी चलाते हुए मेरे दिमाग में सोच चल रही थी कि माता जयंती के प्रकोप से उजड़ चुके हथनौर में जब दोबारा आकर लोगों ने मां के श्राप से डरते हुए अपने घरोदों को पुन:  बनाना शुरू किया होगा तो बस सिर छिपाने हेतु ही छत डाली होगी.... और वही सिर छिपाने वाली छतें आज भी जयंती माजरी गाँव में है।

जंयती माजरी गाँव पहुँच कर, सामने दिख रहे पहाड़ी शिखर पर स्थित जयंती माता मंदिर आकर्षित करने लग पड़ता है। 

जंयती माता मंदिर का मुख्य द्वार व सीढ़ियाँ। 

जैसे-जैसे हम जयंती माता मंदिर की सीढ़ियाँ चढ़ते जा रहे थे,  ऊँचाई हमारी आँखों के समक्ष आस-पास व दूरदराज़ की सुन्दरता प्रस्तुत किये जा रही थी। 

एक ओर तो गेहूँ के हरे-भरे खेतों में सूर्यास्त हो रहा था....

और..... दूसरी ओर बिखरी सी पड़ी शिवालिक की पहाड़ियों में चन्द्रोदय हो चुका था। 

जयंती माता का किले नुमा मंदिर। 

माँ जयंती मंदिर प्रांगण। 

क्या खूब सजावट मां जयंती मंदिर की। 

क्या भव्य दरबार माता रानी का। 

मां दी आं सोहनीआं ज्योतें।


जंयती देवी मंदिर से दिखाई देता जयंती डैम।

जयंती माता मंदिर से नज़र आता जयंती माजरी गाँव,  यहाँ सभी मकान एकमंजिला है। 

जयंती देवी मंदिर के बुर्जों में खड़ा हमारा लाम- लश्कर। 


अंधेरा होने को था... और हम मंदिर माथा टेक वापस उतर रहे थे। 

जयंती माजरी गाँव से बाहर बना प्राचीन शिव मंदिर,  मान्यता है कि जयंती माता के दर्शनोपरांत यहाँ दर्शन करने से ही यात्रा सफल मानी जाती है। 

अंधेरे में शिव मंदिर से नज़र आ रहा माँ जयंती का मंदिर। 

गूगल नक्शे से प्राप्त जयंती माता क्षेत्र का चित्र.... बेहद रमणीक स्थान,  शिवालिक की पहाड़ियों में स्थापित माँ जयंती मंदिर व जयंती झील और पहाड़ियों के सामने मैदानों में बसे गाँव व उनके खेत-खलिहान।

मेरी साहसिक यात्राओं की चित्रकथाऐं...
(1) " श्री खंड महादेव कैलाश की ओर " यात्रा वृत्तांत की धारावाहिक चित्रकथा पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें।
(2) "पैदल यात्रा लमडल झील वाय गज पास " यात्रा वृत्तांत की धारावाहिक चित्रकथा पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें।
(3) " चलो, चलते हैं सर्दियों में खीरगंगा " यात्रा वृत्तांत की धारावाहिक चित्रकथा पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें।
(4) करेरी झील, " मेरे पर्वतारोही बनने की कथा " यात्रा वृत्तांत की धारावाहिक चित्रकथा पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें।
(5) "मेरी किन्नर कैलाश यात्रा" वृतांत की धारावाहिक चित्रकथा पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें।
(6) "मणिमहेश, एक दुर्गम रास्ते से...!" यात्रा वृतांत की चित्रकथा पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें।

13 टिप्‍पणियां:

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    1. बेहद धन्यवाद, जय प्रकाश जी।

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  2. विकास भाई मजा आ गया इतना विस्तृत इतिहास और जानकारी पढ़कर वाकई आनंद आ गया...राजकुमारी की डोली के साथ डोली में माता नगरकोट से यहां जयंती मजारी गाव आ गयी..हथनोर रियासत के इतिहास और इस मंदिर की जानकारी रोचक है...आप जिनसे भी मिलते हो शायद प्रश्नों से शिकार करते हो...एक मँजिला इमारत और डाकू वाली बात आश्चर्यचकित कर देती है...बढ़िया पोस्ट...

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    1. Haha Haha.... सुमधुर आभार प्रतीक जी, सही पकड़े है कि मैं प्रश्नों का शिकारी हूँ.....क्योंकि प्रश्न मेरे तरकश के वो बाण है जो मेरी कहानियों का शिकार कर उन्हें आकार दे साकार करते हैं जी।

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  3. भाई आपका लिखा पढ़ने के बाद लगता ही नहीं है कि #पढ़ा है, ऐसा लगता है आपके कहने के बाद एक चक्ककर हम खुद लगा आये । ग़ज़ब लेखनी है आपकी 🙏

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  4. हमेशा की तरह कलम के जादूगर ...आधुनिक मुंशी प्रेमचंद

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