भाग-18 श्री खंड महादेव कैलाश की ओर....
                                                " कहाँ ठोकरें खा रहे हो बादशाहों "    
                                    
                                22जुलाई 2016.........दिन के ग्यारह बजने को थे और मैं व विशाल रतन जी भीम तलाई से अगले पड़ाव "कुंशा" के आस-पास पहुँच चुके थे.... कुंशा(3630मीटर) से कुछ पहले रास्ते में एक स्थानीय गद्दी नोया राम ने भी यात्रा के लिए अपनी दुकान लगा रखी थी,  वे दो जन अपनी भेड़े व उस अस्थाई दुकान को संभाल रहे थे...भूख भी जागृत थी, सो तम्बू में जा बैठे खाना खाने के लिए.... और आदतन अपने प्रश्नबाण फिर दाग़ छोड़े दुकानदार बने गद्दी भाई नोया राम की ओर,  कि अभी पीछे रास्ते में मिले शेषनाग के फन सी आकृति जैसे पत्थर वाले स्थान का क्या इतिहास है... मेरी बात सुन नोया राम जी हंसने लगे और धीरे से मेरे कान के पास हो बोले,  " वो नाग के फन वाला पत्थर मैने ही वहाँ रखा है, पिछले साल भेड़े चरातें वक्त मुझे वहीं रास्ते में वो पत्थर पड़ा मिला... चाहता तो था कि उस पत्थर को उठा कर अपने डेरे पर ले आऊँ, परन्तु भारी होने की वजह से वहीं रास्ते के किनारे उसे रख दिया और अब तो उस पर हर रोज फूल चढ़ रहे हैं भाई जी...!!! "         
                            मैं बोल उठा, " भाई आस्था है, यदि दो दीवारें और बना दो तो फूल क्या पैसे भी चढ़ने शुरु हो जाएंगे..!! " 
                              खैर,  नोया राम ने हमें राजमाँह के साथ गर्मागर्म कनक के फुल्के(रोटियाँ) भरपेट खिलायें... और फिर से यात्रा पथ पर खड़े थे,  तो चलते हुए मैने बाहर खड़े नोया राम के भाई से पूछा कि क्या आपने "निऔला" दे दिया... उन्होंने कहा, हां अभी कल ही दिया है.... दोस्तों, निऔला मतलब "बलि"....इस पुरातन प्रथा को अब भी कई गद्दी लोग निर्वाह कर रहे हैं, भगवान शिव को समर्पित यह बलि वर्ष में एक बार सावन के महीने में गद्दी लोग देते हैं कि हमारी भेड़-बकरियाँ बीमारियों और भालू के आक्रमण से बची रहे... खैर मैं तो बलि-प्रथा का निंदक हूँ, परन्तु उस समय मैने नोया राम व उनके भाई से इस कुप्रथा के बारे में टीका- टिप्पणी ना करने में ही भलाई जानी और हम दोनों अब बेहद खूबसूरत स्थल कुंशा में से गुज़र रहे थे... 
                             बेफिक्र हरियाली और मदमस्त फूलों से भरे क्षेत्र "कुंशा" में रास्ते के किनारे भी कई सारे टैंट लगे हुए थे,  सूर्य देव को बादलों और धुंध ने मिली-भगत कर गायब ही कर दिया था.....कुंशा भेड़-बकरी चराने वाले गद्दियों की आर्दश भूमि है, पेड़-झाड़ी रहित पहाड पर घास से भरी मैदान नूमा ऊँची-नीची धरती.... कुंशा से आगे बढ़ पहाड के कंधे से पार हो दूसरी तरफ गए तो वहाँ की खूबसूरती भी हमारी आँखों को स्थिर कर गई, हरियाली के दो रंग अब नज़र आ रहे थे.... गहरा हरा रंग "तांगुड" की झाड़ियों का और हल्का हरा रंग "चलिंगडू" नामक बूटी का...जिस की उस क्षेत्र में भरमार थी..... रास्ता अब कुछ कठिन व पथरीला सा आना शुरु हो गया, जितनी मुश्किल से हम पहाड के कंधे से नीचे की ओर उतरते,  उतनी ही मुश्किल से आगे बढ़ते हुए फिर दूसरे पहाड के कंधे पर चढ़ते..... और अब हमे बहुत दूर तक जा रही पगडंडी भी दिखाई देने लग पड़ी थी,  जो पहाडों की बनावट के अनुसार नीचे-ऊपर होती हुई दूर आगे धुंध में ही विलुप्त होती नज़र आ रही थी.... 
                             दोपहर के दो बजने वाले थे,  मैं विशाल जी से कुछ कदम आगे चल रहा था कि एक मोड़ पर कुछ लड़के और उनसे कुछ दूर एक व्यक्ति अलग सा बैठा था.... मेरे वहाँ पहुँचतें ही उस व्यक्ति ने पंजाबी भाषा में कहा, " किथे रुड़े फिरदे ओ बादशाहों...! " ( मतलब कि "कहाँ ठोकरें खा रहे हो बादशाहों")        उन अनजान व्यक्ति द्वारा हमसे ऐसा पूछना मुझे बड़ा अखड़ा,  तो मैं अहम में आ कुछ उखड़ी हुई ज़ुबान में बोला, " मैं गोल पत्थर की तरह हूँ जो रुड़-रुड़(ठोकरें खा-खा कर) यहाँ तक पहुँच गया हूँ... वरना चपटे पत्थर होते तो डाँडा धार भी नही चढ़ पाते जनाब...!! "
उन जनाब की आँखों पर बेहद मोटे शीशों वाला चश्मा चढ़ा हुआ था और चेहरा खोदा (जिस पर ढाढ़ी-मूछ ना उगती हो)  था... पता नही क्यों मुझे उनकी कही बात व शक्ल बहुत चुभ रही थी, इसलिए मैने उस समय उनकी तस्वीर भी नही खिंची.....  परन्तु दोस्तों, उनकी कही इस बात का अर्थ मुझे यात्रा के अंत में पता चला कि उनके मुख से यह बात क्यों निकली,  इस बात का ज़िक्र मैं यात्रा के अंत में करुगाँ तो आप मेरी व इन महाशय की मनोदशा बखूबी समझ पायेंगे... बस इस बात के बारे में आप लोग याद रखना, मैंने उनसे फिर पूछा कि आप कहाँ से हो...तो वे बोले, " बहादुरगढ़ दिल्ली से " ....और मेरे बारे में पूछने पर मैने कहा, "गढ़शंकर"
                               और, तभी पास बैठे उन लड़कों के समूह में कानाफूसी शुरु हो गई "गढ़शंकर-गढ़शंकर" ......मेरा ध्यान अब उन लड़कों की तरफ हो गया तो,  वे लड़के एक सुर में बोले..."हम भी गढ़शंकर वाले है,भाजी....!!"
                                 परन्तु मेरे लिए वो पांचों लड़कों की शक्ल एक दम नई थी कि एक व्यक्ति पीछे से चलता हुआ हमारे पास आ खड़ा हुआ, जिसकी शक्ल मैं भलिभाँति पहचानता था परन्तु नाम नही... उसने आ गर्मजोशी से मुझे गले लगा लिया और अपना नाम "पम्मा" बताया..... मैने पम्मे से हैरानी जाहिर की,  कि मैं आपको तो पहचानता हूँ... पर इन बाकी लड़कों को मैं अपने जीवन में पहली बार देख रहा हूँ, जो यह कह रहे हैं कि हम एक ही शहर में रहते हैं..... तभी उनमें से दो-तीन लड़के बोल पड़े, "हम तो आपको अच्छी तरह से जानते हैं, आपकी फ़लाँ-फ़लाँ जगह पर दुकान है आदि-आदि.........और पम्मे ने मुझे एक-एक कर उन सब लड़कों के बारे में बताया कि ये फ़लाँ का लड़का है और उस मुहल्ले में इसका घर है....
                                 अच्छा लगता है जब किसी अनजान जगह पर आपके कुछ जानकार मिल जाए... और फिर से हम सब यात्रा पथ पर थे.... आगे एक बहुत सुंदर झरना गिर रहा था,  हम दोनों वहीं रुक अपनी फोटो खींचने लगे... तो बाकी के सब आगे की ओर बढ़ गए,  आगे बढ़ते-बढ़ते पथ पर इतनी ज्यादा धुंध आ गई कि कुछ ही कदम ही आगे दृष्टिगोचर हो रहा था... आगे बढ़ने पर गिरते जल की कल-कल करती मधुर ध्वनि से यह तो अंदाज़ा हो गया कि अभी धुंध के बीच में से कोई बड़ा जल-प्रपात प्रकट होने वाला लगता है..... और दस कदम बढ़ने पर वही नतीजा आया कि एक अति सुंदर व बेहद विशाल जल-प्रपात का विहंगम दृश्य हमारे नयन-चक्षुओं को भेद पर दिमाग में जा बसा, और खुले हुए मेरे मुख से निकला " वाह" ......और विशाल जी भी अपना चिरपरिचित शब्द बोल उठे "औसम्"
                                  और,  अब आगे बढ़ते हुए नीचे उबड़-खाबड़ रास्ते को कौन देख रहा था.. कमबख़्त नज़रे तो बस उस जल-प्रपात की खूबसूरती पर गड़ी हुई थी.... तभी ध्यान भंग हुआ,  जब हमसे आगे निकल चुके पम्मे व उसके साथियों नें मुझे दूर से आवाज़ लगा कहा, " यदि हमारे शहर गढ़शंकर में ऐसा झरना हो तो...!! " 
                                  मैने भी अपना व्यंग्य-बाण दाग़ दिया, " हमारे शहर के गंदे पानी के नाले को तो प्रशासन व नगरपालिका को संभालनें में दो-चार होना पड़ता है,  इस झरने को क्या ख़ाक संभालगें....!!! "   और हम सब "गढ़शंकरिऐं" इस व्यंग्य पर हंस दिये...! 
                                   दोपहर के साढे तीन बजने वाले थे और हम श्री खंड महादेव के तीसरे व अंतिम पडाव "भीमद्वारी" से ज्यादा दूर नही थे,  सो रास्ते में "लूनावाडी" स्थान पर कुछ चाय इत्यादि के लिए रुक गए.... और उस दुकान पर एक सज्जन मिले,  जिनके अनुसार वो हिमाचल प्रदेश में कई सारे ट्रैक कर चुके थे....... और एक अन्य सज्जन और भी मिले,  जिनके साथी आगे जा चुके थे और वो कल से वहीं ठहरे हुए थे... सो हमारे साथ आगे जाने की फ़रमाइश करने लगे, परन्तु कुछ कदम हमारे साथ चलने के बाद यह कहते हुए आगे बढ़ गए कि मैं आपको भीमद्वारी में मिलूँगां......... मैने विशाल जी से कहा, " चलो अच्छा हुआ पर अब हम इन्हें भीमद्वारी में नही मिलेंगे...!!"
                                    क्योंकि मेरी अपनी सोच है कि पर्वतारोहण के समय दल में यदि कम लोग होगें, तो यात्रा सुखद बनी रहेगी... नही एक-दूसरे-तीसरे की इंतजार में बहुत समय व्यर्थ नष्ट हो जाता है,  इसलिए मैं और विशाल रतन जी केवल दोनों ही पर्वतारोहण करते है.....ताँकि एक-दूसरे के साथ-साथ चल सकें,  एक-दूसरे को संभाल सके और एक बोले तो दूसरा मान ले... इसलिए तीसरा बीच में नही डालते......!!!!!
                                                      ............................(क्रमश:)
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| चलत मुसाफिर, मोह लिया रे......!!!  | 
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| गद्दी नोया राम की दुकान की ओर बढ़ते हुए हम लोग....  | 
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| कुंशा में नोया राम का गद्दी डेरा.... | 
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| देखो....दो गबरु जवान मुण्डें  | 
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| नोआ राम का भाई चाय बनाते हुए.....  | 
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| मेरे कान के पास आ कर नोया राम जी बोले, "वो नाग के फन वाला पत्थर मैने ही वहाँ रखा है....! " | 
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| नोआ राम जी हमारे लिए भोजन तैयार करते हुए....  | 
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| लो जी..... राजमाँह के साथ कनक के फुल्के  | 
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| स्वादिष्ट भोजन उपरांत.... हम कुंशा के ओर चल दिये  | 
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| "कुंशा" की सुंदरता इन फूलों की ज़ुबानी.... | 
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| कुंशा में रास्ते किनारे भी कई टैंट लगे हुए थे....  | 
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| पेट भरा हुआ हो तो,  56भोग भी लुभानें में नाकामयाब......कुंशा में लगा चाइनीज़ कोना   | 
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| धुंध की वजह से कुछ दूर ही दृष्टिगोचर हो रहा था....  | 
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| प्रकृति के दो हरे रंग...... गहरा हरा रंग तांगुड की झाड़ियों का और हल्का हरा रंग चलिंगडू बूटी का....  | 
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| पर्वत के एक कंधे से उतर..... दूसरे पहाड के कंधे पर चढ़ना  | 
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|  प्राकृतिकता में मगन खड़े विशाल रतन जी....  | 
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| आ-जा रहे श्रद्धालु...  | 
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| रास्ते में आया एक जल-स्रोत जिससे किनारे एक लाल झंडा गड़ा था.... मेरी उत्सुकता बढ़ गई उस बारे में जानने की,  परन्तु मेरे प्रश्न शांत करने वाला वहाँ कोई नही मिला....  | 
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| राह में आई एक कलाकृति....  | 
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| वो दूर तक रास्ता जा रहा है, जिस पर हमें जाना था....  | 
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| और, रास्ते का क्या कहना....  | 
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| खुद ही देख लो.... दोस्तों  | 
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| भाजी, हम भी गढ़शंकर से है..... पम्मा और उसके साथी  | 
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| राह में आया एक सुंदर झरना....  | 
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| धुंध में कल-कल करती गिरते जल की मधुर ध्वनि बता रही थी कि कोई जल-प्रपात आ रहा है....  | 
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| और,  कुछ कदम बाद ही एक विशाल व विहंगम जल-प्रपात धुंध में से प्रकट हुआ....  | 
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| पम्मे ने दूर से हाथ हिला कर जोर से कहा, " यदि हमारे शहर गढ़शंकर में ऐसा झरना हो तो...! "  | 
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| लो, फिर से इक्ट्ठा हुए "गढ़शंकरिऐं" | 
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| खूबसूरती में खड़े.... जनाब विशाल रतन जी  | 
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| ये रंगीले भाई साहिब मुझे लूनावाडी में मिले थे..... इन्होंने मुझे पर्वतारोहण में अपनी कई उपलब्धियाँ गिना दी...  | 
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| चलो, अच्छा हुआ विशाल जी, अब हम इन्हें भीमद्वारी में नही मिलेंगे...!!!  | 
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