भाग-10 "मेरी किन्नर कैलाश यात्रा"
इस यात्रा को आरंभ से पढ़ने का यंत्र http://vikasnarda.blogspot.com/2020/05/blog-post.html?m=1स्पर्श करें।
आशा और आशंका...!
22अगस्त 2017....सुबह 10बजे, नंदू लड़खड़ाता हुआ बैठ-बैठ कर नीचे उतरता जा रहा था, जबकि मैं उसी जगह पर खड़ा उसे एक टक देख रहा था। मोड़ मुड़ कर जब नंदू मुझे दिखाई देना बंद हो गया, तो एक गहरी साँस छोड़ पुन: एक गहरी साँस भर कर ऊपर की तरफ़ चल तो पड़ा....पर बार-बार पीछे मुड़कर नंदू की तरफ़ देखता हूँ, जैसे ही मुझे वह दोबारा पगडंडी पर उतरता दिखाई पड़ता है.....मैं ऊँची आवाज़ में चिल्लाता हूँ-
"नंदू, मुड़ आ....चलते हैं यार, ज्यादा दूर नहीं होगा किन्नर कैलाश!"
नंदू भी चीखा- "नहीं विक्की, तू चला जा... मेरी बस है अब, मैं तेरा गुफ़ा में इंतजार करूँगा!!"
मुझे पता था कि मैं एक औपचारिकता ही निभा रहा हूँ, परंतु नंदू ने अपने त्याग से मुझे बंधन-मुक्त कर डाला कि मैं हर हाल में किन्नर कैलाश जा सकूँ।
फिर से खड़ा हो....नीचे बहुत दूर पहुँच चुके नंदू को देखता रहता हूँ तब तक, जब तक वह मेरी आँखों से ओझल नहीं हो जाता। तब एकाएक मुझे एकाकीपन का एहसास होता है, घाटी के मध्य पत्थरों पर उछल-कूद मचा रहे बर्फीले पानी की आवाज़ मेरे कानों में गूंजने लगी... जिसे मैं कुछ समय पहले तक सुनकर अनसुना कर रहा था।
चंद कदम और ही चढ़ा था कि एक गर्जना सुनाई दी, सामने मेरी दाईं ओर के पहाड़ पर से चट्टानें टूट-टूट कर नीचे गिर रही थी। अपनी तरफ यानि बाईं ओर के पहाड़ के ऊपर की तरफ़ देख शुक्र मनाता हूँ कि यहाँ पहाड़ शांत बैठा है, उसमें दाईं तरफ़ के पहाड़ सी बेचैनी नहीं है.....परंतु मेरे मन को बेचैन होने से कौन रोक सकता था भला!!!!
बीस-तीस कदम चढ़ते ही पगडंडी किनारे एक चट्टान पर "ॐ" लिखा देख ठहर जाता हूँ, नास्तिक होने के बावजूद भी मुझ में श्रद्धा के कुछ भाव जीवित हैं....शायद मेरे जीवन के पहले 18वर्ष जो आस्तिकता में बीते हैं या मेरे संस्कारों की वजह से। चट्टान पर स्प्रे पेंट से लिखा "ॐ" देख मन की बेचैनी को ठहराव मिलने लगता है।
दाईं तरफ़ के इंद्रकील पर्वत के कंधे से रह-रहकर चट्टानें व पत्थर टूट-टूट कर नीचे गिरतें जा रहे थे, पत्थरों पर पत्थर बजने की आवाज़ उस ख़ामोशी में भयभीत करने के लिए काफी थी.....भय इस बात का, कि कहीं पर्वतराज अपनी बाईं तरफ के कंधे पर "खुजली" ना कर बैठे, जिस पर मैं दबे पाँव ऊपर की ओर चल रहा हूँ।
कुछ और ऊपर जा कर देखता हूँ कि झरने की तरफ पगडंडी से दूर वो दोनों घर से भागे हुए बच्चे जंगली फूल तोड़, एक गुलदस्ता सा बना रहे थे। उन्हें ऊँची आवाज़ देता हूँ, तो वो प्रवासी लड़का ही जवाब देता है- "हम ऊपर माथा टेक आए, अंकल।"
आगे बढ़ते-बढ़ते मैं सोच में था कि ये बच्चे ढाई-तीन घंटे में जा कर वापस आ भी गए हैं, शायद इतना सा ही रास्ता हो......या फिर यह दोनों बच्चे भाग-भाग कर ऊपर जा आए हो, खुद को किये इस प्रश्न का उत्तर मैं क्या जानूँ....चला तो जा रहा हूँ देखो मुझे कितना समय लगता है किन्नर कैलाश पहुँचने में....!!
गुफ़ा से चले मुझ को अब तक दो-तीन जगह पर चूहों जैसे, पर उससे काफी बड़े आकार के जंतु नज़र आए...जो मुझे पास आता देख अपने बिल में घुस जाते, उनकी फोटो खींचने का अवसर हर बार मुझ से ऐन मौके पर फिसल जाता।
11बज चुके थे, कुछ समय पगडंडी किनारे एक समतल सी चट्टान पर बैठ कभी नीचे की तरफ़ देखता हुआ 'रिकांगपिओ-कल्पा' को निहारने लगता, तो कभी ऊपर की तरफ़ मुझे झाँक रहे पर्वत शिखरों को झाँकने लग पड़ता। चमकती धूप ने मेरी गर्म जैकेट को उतरवा दिया था, जो मेरी कमर पर बंधी थी। साँसों को सामान्य कर फिर से चल देता हूँ ऊपर की ओर।
अब मिट्टी की बनी पगडंडी पीछे रह गई थी, सामने चट्टानें ही चट्टानें बिखरी दिखाई पड़ रही थी...जिन पर रास्ता बताने के लिए कुछ-कुछ दूरी पर पांच-सात पत्थर एक-दूसरे के ऊपर चिन कर रखे गए थे। मैं ऐसे एक चिन्ह पर पहुँच, उस जैसे दूसरे चिन्ह को ढूँढने लगता। अब मुझे समझ आ रहा था कि क्यों चंडीगढ़ वाले रमन शर्मा जी के दल को अंधेरा होने पर नीचे उतरने के लिए पगडंडी नहीं मिली, उन्होंने यहीं कहीं बैठकर रात काटी होगी। उन चट्टानों में एक ऊँची चट्टान पर खड़ा हो, मैं पांच-सात वैसे ही चिन्हों की खोज कर रास्ते की दिशा देख, उस ओर बढ़ जाता।
दाईं तरफ के पहाड़ पर हर पांच-सात मिनट बाद हरकत होती, धड़ाधड़ पत्थर गिरने की आवाज़.... और मैं उस तरफ़ देखने की बजाय अपनी तरफ के पहाड़ के शिखर की ओर झट से भय-मिश्रित शंकित नज़रें गड़ा देता। आख़िर इस तरफ़ की चट्टानें भी तो कभी-ना-कभी टूट कर ही तो मेरे पैरों के नीचे बिखरी पड़ी है...!
अभी बीच-बीच में कहीं-कहीं रास्ता बताने के लिए पत्थरों पर लाल रंग से बनाए निशान भी मुझे रास्ता सुलझाने लग पड़े।
सवा ग्यारह बजे, मुझे मेरी मंज़िल के प्रथम दर्शन होते हैं...वो दूर सामने चट्टानों के ढेर के सिर पर असाधारण रूप से आसमान की तरफ़ तनी एक शिला पर नज़र जा पड़ती है, हां यही "किन्नर कैलाश" है.....अब यह खुशी खुद को ही तो सुना सकता हूँ, इन चहकती हुई मेरी बातों को सुनने वाला तो....गुफ़ा मे कब का पहुँच चुका होगा। नंदू की याद आते ही मोबाइल पर सिग्नल तलाशता हूँ, जो पूरी मुस्तैदी से मेरे "गधा मोबाइल सेट" पर पहरा दे रहा था....नंदू को फोन लगाता हूँ, उसकी खैरियत जानने के लिए।
नंदू से बात हो जाती है, वह गुफ़ा में पहुँचकर पिछले एक घंटे से लेटा हुआ है और धीरे-धीरे उसकी तबीयत में सुधार आ रहा है। खैर इस किन्नर कैलाश ट्रैक की कई सारी खूबियों में यह भी बहुत तसल्लीदार खूबी है कि इस ट्रैक पर मोबाइल फोन का नेटवर्क आपका अदृश्य रक्षक बन, आपके अंग-संग चलता रहता है....जो किसी भी पर्वतारोही के लिए वरदान से कम नहीं है। इस नेटवर्क की बदौलत ही तो जून2019 में, तय समय से पहले किन्नर कैलाश चढ़ आया पांच दोस्तों का वो दल (जिन की कहानी मैंने आपको 6वें भाग में सुनाई थी) जिनमें से दो लड़के मर गए और तीन को पुलिस ने रेस्क्यू अभियान चलाकर बचाया था। ज्यादातर पर्वतारोहण यात्रा में मोबाइल नेटवर्क एक दग़ाबाज़ दोस्त की तरह ही हमारा साथ छोड़ देता है, परंतु किन्नर कैलाश ट्रैक पर जेब में पड़े नेटवर्क वाले मोबाइल फोन का यात्री से ऐसा रिश्ता हो जाता है जैसे "धर्म-वीर की जोड़ी!"
मैं अपनी पर्वतारोहण यात्राओं में कई बार घर-परिवार व समाज से लापता हो जाता हूँ....जैसे मेरी लमडल यात्रा में, मैं पहली बार चार दिनों के लिए मोबाइल नेटवर्क क्षेत्र से बाहर रहा और अभी पिछले वर्ष की हुई "बैजनाथ से मणिमहेश" की पदयात्रा में चौथे दिन अपने परिवार को अपनी सलामती की ख़बर पहुँचा पाया। इस प्रकार के दिन काटना, मेरे अपनों के लिए बहुत कष्टदायक होते हैं....और इन दिनों में, मैं भी ना जाने कितनी बार अपने फोन पर टटोलता रहता हूँ कि कहीं से कोई हवा का झोंका आए और मेरी खैरियत मेरे अपनों तक जा पहुँचाऐ।
तभी ऊपर की तरफ़ से तीन नवयुवक उछलते-कूदते मेरी ओर बढ़ते चले आ रहे दूर से दिखाई पड़े। उनके हाथों में पकड़े फूलों को देख मेरी बांछें खिल गई.... वह "ब्रह्मकमल" के फूल थे। नजदीक आने पर उन तीनों को पहचान लेता हूँ....तंगलिंग गाँव का आशीष नेगी और उसके दो मित्र आकाश (पडसेरी गाँव) व सोनू(तेलिंगी गाँव) ये तीनों हमें कल दोपहर में मलिंगखट्टा की चढ़ाई चढ़ते हुए बीच रास्ते में मिले थे। स्थानीय होने के कारण ये तीनों हिरनों सी छलांगें मारते ऊपर चढ़ते जा रहे थे। वे भी मुझे पहचान कर नंदू के विषय में पूछते हैं।
ब्रह्मकमलों के साथ उनके हाथों में नीले रंग के फूलों के भी गुच्छे थे, जिन्हें मैं पहली बार देख रहा था... "खसबल के फूल" नाम बताया गया मुझ को, यह फूल जख़्म भरने के लिए औषधि के रूप में इस्तेमाल होता है। मैं उत्साहित हो, आशीष नेगी से पूछता हूँ - "तो, अब कितनी और आगे जाकर मुझे ब्रह्मकमल के फूल मिलने लगेंगे...?"
आशीष हंसते हुए बोला- "अब तो किन्नर कैलाश के रास्ते में कहीं भी ब्रह्मकमल नहीं मिलेगा, क्योंकि यात्रा के समय में रास्ते के सारे फूल यात्रियों द्वारा तोड़ लिये गए हैं....हम भी यह सारे फूल किन्नर कैलाश से भी और आगे जाकर इकट्ठा कर लाए हैं।"
मैं उनके हाथों से सारे फूल अपने हाथों में ऐसे लेता हूँ जैसे किसी नए जन्मे शिशु को अपने हाथों में थाम रहा हूँ। मेरे हाथों में आते ही ब्रह्मकमल की सुगंध ने मुझे चंद क्षणों के लिए ही सही, एक अलौकिक अनुभूति करा दी। फूलों को अपने हाथों में थाम, मैं घर से भाग कर किन्नर कैलाश आए बच्चों के विषय में उनसे पूछता हूँ कि वे दोनों बच्चे उन्हें ऊपर मिले थे....तो उन्होंने उन दोनों बच्चों के बारे में अज्ञानता जताई कि हमें किन्नर कैलाश और उसके रास्ते में कहीं भी कोई बच्चे नहीं मिले।
"परंतु वे दोनों बच्चे तो कह रहे थे कि वे किन्नर कैलाश माथा टेक आए हैं, वे मुझे अभी नीचे वापसी करते हुए मिले हैं....मैं खुद हैरान था कि वे ढाई घंटे में किन्नर कैलाश माथा टेक भी आए!!"
मेरी बात सुन आशीष बोला- "फिर तो, वे बच्चे पार्वती कुण्ड पर ही किन्नर कैलाश शिला के दर्शन कर वापस हो लिये होंगे।"
"ऐसा ही हुआ होगा आशीष जी, उन बच्चों ने पार्वती कुण्ड को ही किन्नर कैलाश मान लिया होगा।"
"अच्छा, अभी ऊपर और कितने लोग हैं" के मेरे सवाल पर वे तीनों एक साथ बोले- "कोई नहीं, हम तीनों ही आज तड़के गुफ़ा से किन्नर कैलाश के लिए चले थे।"
"ऊपर कोई नहीं है" सुन कर एक बार तो मेरी घिग्घी बंध गई। परंतु संकल्प में बहुत ताकत होती है, दूसरे ही क्षण संकल्प ने मेरे ढीले पड़े कंधों में फिर से अकड़ फूँक दी.....और मैं उसी जोश में उन तीनों को उनके ब्रह्मकमल वापस थमा, हर-हर-महादेव का उद्घोष कर ऊपर की तरफ़ चल देता हूँ। आशा और आशंका के सुविचारों और कुविचारों से एकदम अपने दिमाग को शून्य कर लेता हूँ और हर बार की तरह मन ही मन बुदबुदाने लगता हूँ- "अब आगे जो होगा देखा जाएगा!!!"
चलते-चलते अब मैं वहाँ तक पहुँच चुका हूँ, जहाँ से इंद्रकील पर्वत शिखर के नीचे एक मैदान नुमा समतल जगह नज़र आने लगी, जिसमें अब कहीं भी झरने का पानी नज़र नहीं आ रहा था....मतलब कि पानी वहाँ भूमिगत बह रहा है। इंद्रकील पर्वत शिखर से नीचे बाईं तरफ़ किन्नर कैलाश शिला अब और स्पष्ट दिखाई पड़ने लगी। शिखर को छोड़ कहीं भी बर्फ़ नहीं नज़र आ रही थी और पर्वत शिखर से फिसल कुछ नीचे पड़ी बर्फ़ भी छोटे-छोटे ग्लेशियरों के रूप में थी, जो कि कभी भी पूरे नहीं पिघले होंगे। शिखर पर पड़ी सफ़ेद बर्फ़ और शिखर को चूमने आए सफ़ेद बादलों के रंग में, मैं फ़र्क नहीं देख पा रहा था...दोनों का रंग एक सा ही था। पहली नज़र में मुझे ऐसा लगा था कि नीले आसमान से बर्फ़ पर्वत शिखर पर उतर रही हो जैसे...!!
तुंगमापी घड़ी पर नज़र डालता हूँ- 4315मीटर, मतलब पिछले ढाई घंटे में....मैं गुफ़ा से 425 मीटर ऊँचा चढ़ आया हूँ। अब जहाँ-तहाँ कई जगहों पर ब्रह्मकमल के बूटे(पौधे) दिखाई पड़ने लगे, परंतु उन पर से सारे के सारे ब्रह्मकमल तोड़े जा चुके थे। मन में एक टीस सी उठती है कि यदि इसी प्रकार ब्रह्मकमल और अन्य फूलों को यात्री अंधाधुंध तोड़कर अपने साथ ले जाते रहे...तो आख़िर किन्नर कैलाश ट्रैक से ये फूल विलुप्त हो जाएंगे। फूल तोड़ कर अपने साथ ले जाने का अर्थ है, कि हम उस बूटे के जीवन चक्र का कत्ल कर रहे हैं....क्योंकि फूल से ही बीज बनता है, जो इस बूटे को पुनर्जीवित कर देता है।
हालांकि मैं आशीष नेगी और उसके दोनों दोस्तों के द्वारा तोड़े गए फूलों का समर्थन भी नहीं करता, तब भी मैंने विरोधी स्वर में उनसे पूछा था कि इतने सारे फूलों का तुम लोग क्या करोगे...?
तो, आशीष बोला- "हम इन ब्रह्मकमलों को सुखाकर रख लेते हैं और सारा वर्ष होने वाली भिन्न-भिन्न पूजाओं में शंकरस के मंदिर में जाकर इन्हें चढ़ाते हैं।" आशीष की बात सुन मैं समझ गया कि चलो स्थानीय लोगों में तो इस दुर्लभ पुष्प से संबंधित कई रीति-रिवाज़ होंगे, पर मुझ जैसे उन यात्रियों का क्या जो बाहर से आकर अंधाधुंध इन फूलों का शिकार कर, उन्हें अपने बैगों में ठूँस कर भर लेते हैं और नीचे उतरते ही जब ये फूल दो-चार दिन में मुरझा जाते हैं तो इन्हें फेंक देते हैं। मैंने श्रीखंड कैलाश यात्रा पर भी पार्वती बाग पर लगे बेशुमार ब्रह्मकमलों में से लोगों को ब्रह्मकमल तोड़ उन्हें अपने बैग में छिपाते देखा है। मैंने वहाँ इन ब्रह्मकमलों को जीवन में पहली बार देखा था और बस देखता ही रहा, ऐसे जैसे पालने में सो रहे शिशु को देखते हैं....उन फूलों को छूने की हिम्मत भी नहीं जुटा सका।
चट्टानों के मलबे में मेरी आँखें उन चिन्हों को ढूँढ रही थी जो मेरे पथ-प्रदर्शक बने हुए थे, यह तलाश ही मुझे आगे और आगे बढ़ाती जा रही थी। वैसे पत्थर के ऊपर पत्थर चिन कर बनाए जाते इन चिन्हों को धौलाधार हिमालय में रहने वाले गद्दी लोग "हीआ" या "खूंडी" कहते हैं, पर यहाँ के किन्नर इन चिन्हों को किस नाम से पुकारते होंगे, मैं नहीं जानता।
पीछे रास्ते में आई एक चट्टान पर स्प्रे पेंट से "ॐ" लिखने वाले उस सज्जन ने यहाँ पहुँच कर, फिर से एक चट्टान पर लिखा था- "सब्र का फल मीठा, बोलो शंकर" पढ़कर मैं मन ही मन बोलता हूँ- "इस जगह पर तुमने बहुत सही लिखा है भाई, यह तमाम यात्रा ही सब्र वालों के लिए है....बेसब्रें इस यात्रा में फिट नहीं बैठते...!!!"
सवा बारह बज चुके हैं और मुझे सामने ज़रा सा नीचे की तरफ़ बिखरी पड़ी बड़ी-बड़ी चट्टानों पर रंग- बिरंगी प्रार्थना झंडियों की लड़ियाँ बंधी दिखाई पड़ने लगी, मतलब मैं "पार्वती कुण्ड" पहुँचने वाला हूँ।
(क्रमश:)
"नंदू, मुड़ आ....चलते हैं यार, ज्यादा दूर नहीं होगा किन्नर कैलाश!"
नंदू भी चीखा- "नहीं विक्की, तू चला जा... मेरी बस है अब, मैं तेरा गुफ़ा में इंतजार करूँगा!!"
मुझे पता था कि मैं एक औपचारिकता ही निभा रहा हूँ, परंतु नंदू ने अपने त्याग से मुझे बंधन-मुक्त कर डाला कि मैं हर हाल में किन्नर कैलाश जा सकूँ।
फिर से खड़ा हो....नीचे बहुत दूर पहुँच चुके नंदू को देखता रहता हूँ तब तक, जब तक वह मेरी आँखों से ओझल नहीं हो जाता। तब एकाएक मुझे एकाकीपन का एहसास होता है, घाटी के मध्य पत्थरों पर उछल-कूद मचा रहे बर्फीले पानी की आवाज़ मेरे कानों में गूंजने लगी... जिसे मैं कुछ समय पहले तक सुनकर अनसुना कर रहा था।
चंद कदम और ही चढ़ा था कि एक गर्जना सुनाई दी, सामने मेरी दाईं ओर के पहाड़ पर से चट्टानें टूट-टूट कर नीचे गिर रही थी। अपनी तरफ यानि बाईं ओर के पहाड़ के ऊपर की तरफ़ देख शुक्र मनाता हूँ कि यहाँ पहाड़ शांत बैठा है, उसमें दाईं तरफ़ के पहाड़ सी बेचैनी नहीं है.....परंतु मेरे मन को बेचैन होने से कौन रोक सकता था भला!!!!
बीस-तीस कदम चढ़ते ही पगडंडी किनारे एक चट्टान पर "ॐ" लिखा देख ठहर जाता हूँ, नास्तिक होने के बावजूद भी मुझ में श्रद्धा के कुछ भाव जीवित हैं....शायद मेरे जीवन के पहले 18वर्ष जो आस्तिकता में बीते हैं या मेरे संस्कारों की वजह से। चट्टान पर स्प्रे पेंट से लिखा "ॐ" देख मन की बेचैनी को ठहराव मिलने लगता है।
दाईं तरफ़ के इंद्रकील पर्वत के कंधे से रह-रहकर चट्टानें व पत्थर टूट-टूट कर नीचे गिरतें जा रहे थे, पत्थरों पर पत्थर बजने की आवाज़ उस ख़ामोशी में भयभीत करने के लिए काफी थी.....भय इस बात का, कि कहीं पर्वतराज अपनी बाईं तरफ के कंधे पर "खुजली" ना कर बैठे, जिस पर मैं दबे पाँव ऊपर की ओर चल रहा हूँ।
कुछ और ऊपर जा कर देखता हूँ कि झरने की तरफ पगडंडी से दूर वो दोनों घर से भागे हुए बच्चे जंगली फूल तोड़, एक गुलदस्ता सा बना रहे थे। उन्हें ऊँची आवाज़ देता हूँ, तो वो प्रवासी लड़का ही जवाब देता है- "हम ऊपर माथा टेक आए, अंकल।"
आगे बढ़ते-बढ़ते मैं सोच में था कि ये बच्चे ढाई-तीन घंटे में जा कर वापस आ भी गए हैं, शायद इतना सा ही रास्ता हो......या फिर यह दोनों बच्चे भाग-भाग कर ऊपर जा आए हो, खुद को किये इस प्रश्न का उत्तर मैं क्या जानूँ....चला तो जा रहा हूँ देखो मुझे कितना समय लगता है किन्नर कैलाश पहुँचने में....!!
गुफ़ा से चले मुझ को अब तक दो-तीन जगह पर चूहों जैसे, पर उससे काफी बड़े आकार के जंतु नज़र आए...जो मुझे पास आता देख अपने बिल में घुस जाते, उनकी फोटो खींचने का अवसर हर बार मुझ से ऐन मौके पर फिसल जाता।
11बज चुके थे, कुछ समय पगडंडी किनारे एक समतल सी चट्टान पर बैठ कभी नीचे की तरफ़ देखता हुआ 'रिकांगपिओ-कल्पा' को निहारने लगता, तो कभी ऊपर की तरफ़ मुझे झाँक रहे पर्वत शिखरों को झाँकने लग पड़ता। चमकती धूप ने मेरी गर्म जैकेट को उतरवा दिया था, जो मेरी कमर पर बंधी थी। साँसों को सामान्य कर फिर से चल देता हूँ ऊपर की ओर।
अब मिट्टी की बनी पगडंडी पीछे रह गई थी, सामने चट्टानें ही चट्टानें बिखरी दिखाई पड़ रही थी...जिन पर रास्ता बताने के लिए कुछ-कुछ दूरी पर पांच-सात पत्थर एक-दूसरे के ऊपर चिन कर रखे गए थे। मैं ऐसे एक चिन्ह पर पहुँच, उस जैसे दूसरे चिन्ह को ढूँढने लगता। अब मुझे समझ आ रहा था कि क्यों चंडीगढ़ वाले रमन शर्मा जी के दल को अंधेरा होने पर नीचे उतरने के लिए पगडंडी नहीं मिली, उन्होंने यहीं कहीं बैठकर रात काटी होगी। उन चट्टानों में एक ऊँची चट्टान पर खड़ा हो, मैं पांच-सात वैसे ही चिन्हों की खोज कर रास्ते की दिशा देख, उस ओर बढ़ जाता।
दाईं तरफ के पहाड़ पर हर पांच-सात मिनट बाद हरकत होती, धड़ाधड़ पत्थर गिरने की आवाज़.... और मैं उस तरफ़ देखने की बजाय अपनी तरफ के पहाड़ के शिखर की ओर झट से भय-मिश्रित शंकित नज़रें गड़ा देता। आख़िर इस तरफ़ की चट्टानें भी तो कभी-ना-कभी टूट कर ही तो मेरे पैरों के नीचे बिखरी पड़ी है...!
अभी बीच-बीच में कहीं-कहीं रास्ता बताने के लिए पत्थरों पर लाल रंग से बनाए निशान भी मुझे रास्ता सुलझाने लग पड़े।
सवा ग्यारह बजे, मुझे मेरी मंज़िल के प्रथम दर्शन होते हैं...वो दूर सामने चट्टानों के ढेर के सिर पर असाधारण रूप से आसमान की तरफ़ तनी एक शिला पर नज़र जा पड़ती है, हां यही "किन्नर कैलाश" है.....अब यह खुशी खुद को ही तो सुना सकता हूँ, इन चहकती हुई मेरी बातों को सुनने वाला तो....गुफ़ा मे कब का पहुँच चुका होगा। नंदू की याद आते ही मोबाइल पर सिग्नल तलाशता हूँ, जो पूरी मुस्तैदी से मेरे "गधा मोबाइल सेट" पर पहरा दे रहा था....नंदू को फोन लगाता हूँ, उसकी खैरियत जानने के लिए।
नंदू से बात हो जाती है, वह गुफ़ा में पहुँचकर पिछले एक घंटे से लेटा हुआ है और धीरे-धीरे उसकी तबीयत में सुधार आ रहा है। खैर इस किन्नर कैलाश ट्रैक की कई सारी खूबियों में यह भी बहुत तसल्लीदार खूबी है कि इस ट्रैक पर मोबाइल फोन का नेटवर्क आपका अदृश्य रक्षक बन, आपके अंग-संग चलता रहता है....जो किसी भी पर्वतारोही के लिए वरदान से कम नहीं है। इस नेटवर्क की बदौलत ही तो जून2019 में, तय समय से पहले किन्नर कैलाश चढ़ आया पांच दोस्तों का वो दल (जिन की कहानी मैंने आपको 6वें भाग में सुनाई थी) जिनमें से दो लड़के मर गए और तीन को पुलिस ने रेस्क्यू अभियान चलाकर बचाया था। ज्यादातर पर्वतारोहण यात्रा में मोबाइल नेटवर्क एक दग़ाबाज़ दोस्त की तरह ही हमारा साथ छोड़ देता है, परंतु किन्नर कैलाश ट्रैक पर जेब में पड़े नेटवर्क वाले मोबाइल फोन का यात्री से ऐसा रिश्ता हो जाता है जैसे "धर्म-वीर की जोड़ी!"
मैं अपनी पर्वतारोहण यात्राओं में कई बार घर-परिवार व समाज से लापता हो जाता हूँ....जैसे मेरी लमडल यात्रा में, मैं पहली बार चार दिनों के लिए मोबाइल नेटवर्क क्षेत्र से बाहर रहा और अभी पिछले वर्ष की हुई "बैजनाथ से मणिमहेश" की पदयात्रा में चौथे दिन अपने परिवार को अपनी सलामती की ख़बर पहुँचा पाया। इस प्रकार के दिन काटना, मेरे अपनों के लिए बहुत कष्टदायक होते हैं....और इन दिनों में, मैं भी ना जाने कितनी बार अपने फोन पर टटोलता रहता हूँ कि कहीं से कोई हवा का झोंका आए और मेरी खैरियत मेरे अपनों तक जा पहुँचाऐ।
तभी ऊपर की तरफ़ से तीन नवयुवक उछलते-कूदते मेरी ओर बढ़ते चले आ रहे दूर से दिखाई पड़े। उनके हाथों में पकड़े फूलों को देख मेरी बांछें खिल गई.... वह "ब्रह्मकमल" के फूल थे। नजदीक आने पर उन तीनों को पहचान लेता हूँ....तंगलिंग गाँव का आशीष नेगी और उसके दो मित्र आकाश (पडसेरी गाँव) व सोनू(तेलिंगी गाँव) ये तीनों हमें कल दोपहर में मलिंगखट्टा की चढ़ाई चढ़ते हुए बीच रास्ते में मिले थे। स्थानीय होने के कारण ये तीनों हिरनों सी छलांगें मारते ऊपर चढ़ते जा रहे थे। वे भी मुझे पहचान कर नंदू के विषय में पूछते हैं।
ब्रह्मकमलों के साथ उनके हाथों में नीले रंग के फूलों के भी गुच्छे थे, जिन्हें मैं पहली बार देख रहा था... "खसबल के फूल" नाम बताया गया मुझ को, यह फूल जख़्म भरने के लिए औषधि के रूप में इस्तेमाल होता है। मैं उत्साहित हो, आशीष नेगी से पूछता हूँ - "तो, अब कितनी और आगे जाकर मुझे ब्रह्मकमल के फूल मिलने लगेंगे...?"
आशीष हंसते हुए बोला- "अब तो किन्नर कैलाश के रास्ते में कहीं भी ब्रह्मकमल नहीं मिलेगा, क्योंकि यात्रा के समय में रास्ते के सारे फूल यात्रियों द्वारा तोड़ लिये गए हैं....हम भी यह सारे फूल किन्नर कैलाश से भी और आगे जाकर इकट्ठा कर लाए हैं।"
मैं उनके हाथों से सारे फूल अपने हाथों में ऐसे लेता हूँ जैसे किसी नए जन्मे शिशु को अपने हाथों में थाम रहा हूँ। मेरे हाथों में आते ही ब्रह्मकमल की सुगंध ने मुझे चंद क्षणों के लिए ही सही, एक अलौकिक अनुभूति करा दी। फूलों को अपने हाथों में थाम, मैं घर से भाग कर किन्नर कैलाश आए बच्चों के विषय में उनसे पूछता हूँ कि वे दोनों बच्चे उन्हें ऊपर मिले थे....तो उन्होंने उन दोनों बच्चों के बारे में अज्ञानता जताई कि हमें किन्नर कैलाश और उसके रास्ते में कहीं भी कोई बच्चे नहीं मिले।
"परंतु वे दोनों बच्चे तो कह रहे थे कि वे किन्नर कैलाश माथा टेक आए हैं, वे मुझे अभी नीचे वापसी करते हुए मिले हैं....मैं खुद हैरान था कि वे ढाई घंटे में किन्नर कैलाश माथा टेक भी आए!!"
मेरी बात सुन आशीष बोला- "फिर तो, वे बच्चे पार्वती कुण्ड पर ही किन्नर कैलाश शिला के दर्शन कर वापस हो लिये होंगे।"
"ऐसा ही हुआ होगा आशीष जी, उन बच्चों ने पार्वती कुण्ड को ही किन्नर कैलाश मान लिया होगा।"
"अच्छा, अभी ऊपर और कितने लोग हैं" के मेरे सवाल पर वे तीनों एक साथ बोले- "कोई नहीं, हम तीनों ही आज तड़के गुफ़ा से किन्नर कैलाश के लिए चले थे।"
"ऊपर कोई नहीं है" सुन कर एक बार तो मेरी घिग्घी बंध गई। परंतु संकल्प में बहुत ताकत होती है, दूसरे ही क्षण संकल्प ने मेरे ढीले पड़े कंधों में फिर से अकड़ फूँक दी.....और मैं उसी जोश में उन तीनों को उनके ब्रह्मकमल वापस थमा, हर-हर-महादेव का उद्घोष कर ऊपर की तरफ़ चल देता हूँ। आशा और आशंका के सुविचारों और कुविचारों से एकदम अपने दिमाग को शून्य कर लेता हूँ और हर बार की तरह मन ही मन बुदबुदाने लगता हूँ- "अब आगे जो होगा देखा जाएगा!!!"
चलते-चलते अब मैं वहाँ तक पहुँच चुका हूँ, जहाँ से इंद्रकील पर्वत शिखर के नीचे एक मैदान नुमा समतल जगह नज़र आने लगी, जिसमें अब कहीं भी झरने का पानी नज़र नहीं आ रहा था....मतलब कि पानी वहाँ भूमिगत बह रहा है। इंद्रकील पर्वत शिखर से नीचे बाईं तरफ़ किन्नर कैलाश शिला अब और स्पष्ट दिखाई पड़ने लगी। शिखर को छोड़ कहीं भी बर्फ़ नहीं नज़र आ रही थी और पर्वत शिखर से फिसल कुछ नीचे पड़ी बर्फ़ भी छोटे-छोटे ग्लेशियरों के रूप में थी, जो कि कभी भी पूरे नहीं पिघले होंगे। शिखर पर पड़ी सफ़ेद बर्फ़ और शिखर को चूमने आए सफ़ेद बादलों के रंग में, मैं फ़र्क नहीं देख पा रहा था...दोनों का रंग एक सा ही था। पहली नज़र में मुझे ऐसा लगा था कि नीले आसमान से बर्फ़ पर्वत शिखर पर उतर रही हो जैसे...!!
तुंगमापी घड़ी पर नज़र डालता हूँ- 4315मीटर, मतलब पिछले ढाई घंटे में....मैं गुफ़ा से 425 मीटर ऊँचा चढ़ आया हूँ। अब जहाँ-तहाँ कई जगहों पर ब्रह्मकमल के बूटे(पौधे) दिखाई पड़ने लगे, परंतु उन पर से सारे के सारे ब्रह्मकमल तोड़े जा चुके थे। मन में एक टीस सी उठती है कि यदि इसी प्रकार ब्रह्मकमल और अन्य फूलों को यात्री अंधाधुंध तोड़कर अपने साथ ले जाते रहे...तो आख़िर किन्नर कैलाश ट्रैक से ये फूल विलुप्त हो जाएंगे। फूल तोड़ कर अपने साथ ले जाने का अर्थ है, कि हम उस बूटे के जीवन चक्र का कत्ल कर रहे हैं....क्योंकि फूल से ही बीज बनता है, जो इस बूटे को पुनर्जीवित कर देता है।
हालांकि मैं आशीष नेगी और उसके दोनों दोस्तों के द्वारा तोड़े गए फूलों का समर्थन भी नहीं करता, तब भी मैंने विरोधी स्वर में उनसे पूछा था कि इतने सारे फूलों का तुम लोग क्या करोगे...?
तो, आशीष बोला- "हम इन ब्रह्मकमलों को सुखाकर रख लेते हैं और सारा वर्ष होने वाली भिन्न-भिन्न पूजाओं में शंकरस के मंदिर में जाकर इन्हें चढ़ाते हैं।" आशीष की बात सुन मैं समझ गया कि चलो स्थानीय लोगों में तो इस दुर्लभ पुष्प से संबंधित कई रीति-रिवाज़ होंगे, पर मुझ जैसे उन यात्रियों का क्या जो बाहर से आकर अंधाधुंध इन फूलों का शिकार कर, उन्हें अपने बैगों में ठूँस कर भर लेते हैं और नीचे उतरते ही जब ये फूल दो-चार दिन में मुरझा जाते हैं तो इन्हें फेंक देते हैं। मैंने श्रीखंड कैलाश यात्रा पर भी पार्वती बाग पर लगे बेशुमार ब्रह्मकमलों में से लोगों को ब्रह्मकमल तोड़ उन्हें अपने बैग में छिपाते देखा है। मैंने वहाँ इन ब्रह्मकमलों को जीवन में पहली बार देखा था और बस देखता ही रहा, ऐसे जैसे पालने में सो रहे शिशु को देखते हैं....उन फूलों को छूने की हिम्मत भी नहीं जुटा सका।
चट्टानों के मलबे में मेरी आँखें उन चिन्हों को ढूँढ रही थी जो मेरे पथ-प्रदर्शक बने हुए थे, यह तलाश ही मुझे आगे और आगे बढ़ाती जा रही थी। वैसे पत्थर के ऊपर पत्थर चिन कर बनाए जाते इन चिन्हों को धौलाधार हिमालय में रहने वाले गद्दी लोग "हीआ" या "खूंडी" कहते हैं, पर यहाँ के किन्नर इन चिन्हों को किस नाम से पुकारते होंगे, मैं नहीं जानता।
पीछे रास्ते में आई एक चट्टान पर स्प्रे पेंट से "ॐ" लिखने वाले उस सज्जन ने यहाँ पहुँच कर, फिर से एक चट्टान पर लिखा था- "सब्र का फल मीठा, बोलो शंकर" पढ़कर मैं मन ही मन बोलता हूँ- "इस जगह पर तुमने बहुत सही लिखा है भाई, यह तमाम यात्रा ही सब्र वालों के लिए है....बेसब्रें इस यात्रा में फिट नहीं बैठते...!!!"
सवा बारह बज चुके हैं और मुझे सामने ज़रा सा नीचे की तरफ़ बिखरी पड़ी बड़ी-बड़ी चट्टानों पर रंग- बिरंगी प्रार्थना झंडियों की लड़ियाँ बंधी दिखाई पड़ने लगी, मतलब मैं "पार्वती कुण्ड" पहुँचने वाला हूँ।
(क्रमश:)
पगडंडी किनारे एक चट्टान पर "ॐ" लिखा देख ठहर जाता हूँ, नास्तिक होने के बावजूद भी मुझ में श्रद्धा के कुछ भाव जीवित हैं। |
दाईं तरफ़ के इंद्रकील पर्वत के कंधे से रह-रहकर चट्टानें व पत्थर टूट-टूट कर नीचे गिरतें जा रहे थे, पत्थरों पर पत्थर बजने की आवाज़ उस ख़ामोशी में भयभीत करने के लिए काफी थी। |
पीछे रह गया रास्ता। |
भय इस बात का, कि कहीं पर्वतराज अपनी बाईं तरफ के कंधे पर "खुजली" ना कर बैठे, जिस पर मैं दबे पाँव ऊपर की ओर चल रहा हूँ। |
11बज चुके थे, कुछ समय पगडंडी किनारे एक समतल सी चट्टान पर बैठ जाता हूँ। |
उस चट्टान पर बैठ कभी नीचे की तरफ़ देखता हुआ 'रिकांगपिओ-कल्पा' को निहारने लगता। |
तो, कभी ऊपर की तरफ़ मुझे झाँक रहे पर्वत शिखरों को झाँकने लग पड़ता। |
वहीं सामने नीचे की तरफ़ दिख रहा "शाखर" जिसे लाँघ कर हम सुबह गुफ़ा तक पहुँचें थे। |
अब मिट्टी की बनी पगडंडी पीछे रह गई थी, सामने चट्टानें ही चट्टानें बिखरी दिखाई पड़ रही थी। |
जिन पर रास्ता बताने के लिए कुछ-कुछ दूरी पर पांच-सात पत्थर एक-दूसरे के ऊपर चिन कर रखे गए थे। मैं ऐसे एक चिन्ह पर पहुँच, उस जैसे दूसरे चिन्ह को ढूँढने लगता। |
ऊपर-नीचे के दृश्यों संग स्वयंचित्र...! |
इंद्रकील पर्वत शिखर। |
सवा ग्यारह बजे, मुझे मेरी मंज़िल के प्रथम दर्शन होते हैं...वो दूर सामने चट्टानों के ढेर के सिर पर असाधारण रूप से आसमान की तरफ़ तनी एक शिला पर नज़र जा पड़ती है, हां यही "किन्नर कैलाश" है। |
मोबाइल से ही जूम कर खिंचा गया किन्नर कैलाश शिला का एक निकट चित्र। |
ले यार, इसी कोण पर मेरी भी एक फोटो खींच दो। |
इंद्रकील पर्वत शिखर से नीचे बाईं तरफ़ किन्नर कैलाश शिला अब और स्पष्ट दिखाई पड़ने लगी। |
किन्नर कैलाश शिला का निकट चित्र। |
शिखर पर पड़ी सफ़ेद बर्फ़ और शिखर को चूमने आए सफ़ेद बादलों के रंग में, मैं फ़र्क नहीं देख पा रहा था...दोनों का रंग एक सा ही था। |
पहली नज़र में मुझे ऐसा लगा था कि नीले आसमान से बर्फ़ पर्वत शिखर पर उतर रही हो जैसे...!! |
तुंगमापी घड़ी पर नज़र डालता हूँ- 4315मीटर, मतलब पिछले ढाई घंटे में....मैं गुफ़ा से 425 मीटर ऊँचा चढ़ आया हूँ।
|
ज़रा सा दम ले लेता हूँ। |
चट्टानों के मलबे में मेरी आँखें इन चिन्हों को ढूँढ रही थी जो मेरे पथ-प्रदर्शक बने हुए थे, यह तलाश ही मुझे आगे और आगे बढ़ाती जा रही थी। |
पीछे मुड़कर देखता हूँ....इन चट्टानों को पार कर आया हूँ। |
सवा बारह बज चुके हैं और मुझे सामने ज़रा सा नीचे की तरफ़ बिखरी पड़ी बड़ी-बड़ी चट्टानों पर रंग-बिरंगी प्रार्थना झंडियों की लड़ियाँ बंधी दिखाई पड़ने लगी। |
मतलब मैं "पार्वती कुण्ड" पहुँचने वाला हूँ। |