भाग-8 "मेरी किन्नर कैलाश यात्रा"
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"जिसे रखे.....भोलेनाथ!"
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"जिसे रखे.....भोलेनाथ!"
22 अगस्त 2017......तड़के साढे तीन बजे मेरा "गधा मोबाइल सेट" कुकड़ू-कड़ू करने लगा, मैंने झट से जाग नंदू को भी हिला दिया....चल उठ तैयार हो जा जल्दी से!
और, नंदू को यह भी बोलता हूँ कि अपनी बोतल में अभी थोड़ा सा ही पानी भरे, क्योंकि ढाबा मालिक सीताराम जी को बहुत गहराई से यहाँ पानी लाना पड़ता है, तो हम आगे जाकर गुफा से पहले आते एकमात्र झरने से अपनी बोतलों को भर लेंगे।
खैर अपने फीते-नाले-बेल्टें बांधते-कसते हमें आधा-पौना घंटा बीत ही गया। आखिर सवा चार बजे हमने किन्नर कैलाश की ओर पहला कदम बढ़ा ही दिया।
चारों ओर अंधेरा था, आसमान का रंग अभी काला ही था....तारे टिमटिमा रहे थे। नंदू के हाथ में बैटरी थी, जबकि मैंने अपनी गर्म टोपी पर "माथा बैटरी" बांध ली...क्योंकि मैंने अपने दोनों हाथों में ट्रेकिंग स्टिकस् जो थाम रखी थी। रात की खामोशी में हमारे बूटों की आवाज़ फैल रही थी। पगडंडी पर रौशनी फैलाते हुए हम कुछ मिनट चलते रहे कि पगडंडी हमें फॉरेस्ट शेड के पास ले आती है, कांटेदार तारों की बाड़ को पार कर हम अंदर दाखिल होते हैं। दूर से बैटरी की रौशनी मार कर देखते हैं कि फॉरेस्ट शेड में अभी कोई भी हलचल नहीं है, मतलब घर से भागे हुए उन तीन बच्चों के साथ बाकी रुके सब जन अभी सो रहे हैं। नंदू पगडंडी की दूसरी तरफ बैटरी की रौशनी करता है तो एक छोटी सी झोपड़ीनुमा छत पर लाल झंडा नज़र आता है, निश्चित है यह मंदिर ही होगा। पास पहुँच देखते हैं कि आशा के अनुरूप ही उस छोटे से मंदिर में भोलेनाथ विराजमान है, हमारे हाथ खुद-ब-खुद जुड़ जाते हैं। फ़ॉरेस्ट शेड के बाड़े को पार करवा, हमें पगडंडी ऊपर की ओर चढ़ाती ले जा रही थी।
"हवा बिल्कुल ही बंद है, यदि चल पड़े तो इतनी ऊँचाई पर चलने वाली हिमानी हवा इस वक्त हमें चीर ही देगी!" मैं नंदू से बोलता हूँ।
"हां, कितना अजीब सा सन्नाटा पसरा हुआ है विक्की!" नंदू बोला।
"हां नंदू ऐसा प्रतीत हो रहा कि हमें छोड़कर यहाँ सब कुछ ठहरा हुआ है जैसे वो इस अंधेरे के बीतने का इंतजार कर रहे हो, और एक हम हैं जिन्हें इस अंधेरे में भी चैन नहीं...!!" कह कर मैं हंस देता हूँ।
पगडंडी हमें कदम-दर-कदम "बाटूसकार पर्वत" शिखर की तरफ चढ़ाती ले जा रही थी। आसमान पर पड़ी रात की कालिख अब फीकी पड़ने लगी थी। पांच बजे के करीब हम पर्वत की उस ऊँचाई पर जा पहुँचते हैं, जहाँ से उस पार का नज़ारा दिखाई पड़ने लगता है। पहली ही नज़र में, मैं उस पार दिख रहे नज़ारे को पहचान लेता हूँ। उस हल्के से अंधेरे में सामने दिख रहे पर्वत की बनावट देख खुशी से चहकता हुआ बच्चों सा उत्साहित को बोलता हूँ- "नंदू, वो देख सामने किन्नर कैलाश शिला" और मेरे हाथ जुड़ जाते हैं। हम दोनों किन्नर कैलाश शिला के दूरदर्शन पा वहीं नतमस्तक हो जाते हैं।
"नंदू यहीं से ही उन दोनों मध्य प्रदेश वाले मित्रों ने किन्नर कैलाश को माथा टेक वापसी कर ली होगी, जो हमें कल ऊपर चढ़ते वक्त रास्ते में मिले थे। हर आठ-दस कदम चलने के बाद मेरी आँखें खुद-ब-खुद किन्नर कैलाश शिला को देखने चली जाती।
शिला की पृष्ठभूमि में आसमान का रंग नीला होना आरंभ हो चला था। यह देख नंदू को एकाएक कहता हूँ- "याद आया, जब मैंने पिछली बार कल्पा से किन्नर कैलाश को देखा था....तो वहाँ एक बुजुर्ग से हुई बातचीत में उन्होंने मुझे बताया था कि किन्नर कैलाश शिला दिन में कई रंग बदलती है।"
पांच-सात मिनट बाद वह नीलिमा सारे आसमान में फैल गई, पर पर्वत अभी भी अंधेरे में ही थे। साढे पांच बजे इतना प्रकाश आ फैला कि हमारी बैटरियाँ नकारा साबित हो गई। पर्वतों पर पड़ा अंधेरे का काला रंग अब हरा दिखाई पड़ने लगा, जिनके शिखर बर्फ की वजह से सदा के लिए झुलस चुके हैं। पीछे मुड़ देखता हूँ तो मलिंगखट्टा उग रहे दिन की प्रथम रौशनी में नहा रहा है, हम उससे काफी ऊपर चढ़ आए हैं....फॉरेस्ट शेड और सीताराम जी का ढाबा अब स्पष्ट दिखाई पड़ने लगा। "बाटूसकार पर्वत" के बगल से दिख रहे "रंगकूम्मो पर्वत" शिखर की धौली-धार भी उग रहे दिन का प्रकाश पा चमकने लगी।
पौने छह बज रहे थे और हम चलते-चलते उस जगह पर पहुँचते हैं, जहाँ पगडंडी किनारे छोटी-बड़ी चट्टानों को चिनकर स्तम्भ नुमा कुछ बनाया गया है...यह रास्ते का दिशा चिन्ह ही हो सकता है। वहाँ पहुँच तुंगमापी घड़ी पर नज़र डालता हूँ....तो हम 3795मीटर की ऊँचाई को प्राप्त हो चले थे, मतलब पहले डेढ़ घंटे में ही हम मलिंगखट्टा गणेश पार्क से 275मीटर की ऊँचाई तक आ पहुँचे हैं। कल सुबह जब से हमने तंगलिंग से किन्नर कैलाश ट्रैक को आरंभ किया है, कहीं भी हमें उतराई नहीं मिली....बढ़ता चला जा रहा प्रत्येक कदम चढ़ाई पर ही पड़ता जा रहा था।
सूर्यादय होने से पहले ही उसकी दीप्ति तमाम अंधेरी घाटियों में पहुँच उन्हें उज्जवलित करती जा रही है। बादलों का आवारापन फिर से अब दिखाई पड़ने लगा, कभी वो इस शिखर तो कभी उस शिखर की ख़बर-सार लेने पहुँच जाते....कभी सामने दिख रही किन्नर कैलाश शिला को मेरी आँखों से ओझल कर देते, तो कभी उन बादलों में केवल किन्नर कैलाश शिला ही नज़र आती। फिर सतलुज घाटी की तरफ नज़र ले जाता हूँ तो उस पर भी बादल मंडरा रहे थे और हम उन बादलों से भी ऊपर चले जा रहे थे। सूर्यादय का स्वर्ण मुकुट हमें सतलुज घाटी के पार दूर दिखाई पड़ रही पर्वत श्रृंखला के सिर चढ़ा नज़र आने लगता है, क्या खूबसूरत नज़ारा था वो!
चलते-चलते अब हमें पगडंडी उस ओर ले जा रही है, जहाँ बैठे कई सारे जन हमें दूर से ही दिखाई देने लग पड़ते हैं। अब उनका ध्यान भी हमारी तरफ हो गया है, यह बाटूसकार पर्वत के शिखर से ज़रा सा नीचे....उसे पार करने का रास्ता जान पड़ता है, ऐसा सोचते हुए मैं वहाँ पहुँचकर ऐसा ही पाता हूँ।
वहाँ दस-ग्यारह यात्री बैठे विश्राम कर रहे थे, जो अब वापसी पर हैं.....शिव के ज़ोरदार जयकारे से हम सब एक-दूसरे का स्वागत करते हैं। वहाँ पहुँच सबसे पहले अपनी तुंगमापी घड़ी की शरण में जाता हूँ, 3900मीटर समय साढे छह बजे का.....मतलब पिछले आधे घंटे में हम 100मीटर और ज्यादा चढ़ आए हैं। इस स्थान को स्थानीय लोग "शाखर" नाम से सम्बोधित करते हैं, शाखर शब्द शिखर का ही पर्यायवाची होगा और इस शाखर स्थान के बारे में स्थानीय लोक-गाथा भी है कि भस्मासुर ने इसी जगह पर बैठ भगवान शिव की तपस्या कर उन्हें प्रसन्न कर वरदान प्राप्त किया था और वही वरदान खुद भगवान शिव पर भारी पड़ गया। भस्मासुर भगवान शिव के सिर पर हाथ रख उन्हें ही भस्म करने के षड्यंत्र से उनकी ओर जैसे ही बढ़ा, शिव भांप गए....फिर क्या था पकड़न-पकड़ाई शुरू! शिव आगे-आगे, भस्मासुर अपना वरदानी हाथ उठाकर शिव के पीछे-पीछे। शाखर से भागे शिव बचते-बचते निरमंड कस्बे के पास "देव-ढाक" की गुफा में घुसकर श्रीखंड कैलाश जा निकले। भस्मासुर भी उनके पीछे-पीछे श्रीखंड कैलाश के नीचे आती जगह "भीमद्वारी" तक पहुँच जाता है, तब भगवान विष्णु ने "मोहिनी" रूप धरकर भस्मासुर को अपनी अदाओं के रूप जाल और सुरा के नशे में ऐसा फांसा कि वह मोहित हो मोहिनी के साथ नृत्य करने को विवश हो गया....और मोहिनी ने छल से भस्मासुर से अपने नृत्य की नकल करवा कर, उसी का वरदानी हाथ उठवा कर उसी के सिर पर रखवा दिया और शिव से वरदान प्राप्त अपने हाथ से ही भस्मासुर खुद ही अपने-आप को भस्म कर बैठा...!!!
खैर, "शाखर" पर तीन दल बैठे थे...एक तरफ एक चट्टान पर तीन हंसते-मुस्कुराते दोस्त विराजमान थे, मैं भूल चुका हूँ कि वह कहाँ से थे। दूसरी तरफ आठ जन एक एक पंक्ति में बैठे थे, जिनमें से दो को छोड़ तीसरा दल छह नौजवानों का था....जिनमें एक "चिलम" घूम रही थी। शिव भोले की यात्रा और चिलम ना मिले, ऐसा कभी नहीं हो सकता...!!!
उनसे हुई बातचीत का सार निकलता है कि उन नौजवानों में से दो नौजवान अपनी उपलब्धि गिना रहे थे कि इस वर्ष की श्रीखंड कैलाश यात्रा शुरू होने से एक महीना पहले, वह सबसे पहले हैं जो श्रीखंड शिला तक जा पहुँचे।
शाखर से दूसरी तरफ पगडंडी एकदम से नीचे गिरती हुई दिखाई पड़ती है, यह उस कठिन पदयात्रा की पहली और आखिरी उतराई है। उतराई भी ऐसी कि अपने शरीर को इस पर रोकना भी मुश्किल सा हो जाता है, वापसी पर यह उतराई उल्टी हो जबरदस्त चढ़ाई का सबब बन जाती है।
तड़के से ही मेरे आगे-आगे चला नंदू यहाँ भी मुझसे पहले उतराई पर उतर जाता है। मैं शाखर पर रुक जाता हूँ, तांकि नीचे उतर रहे नंदू की फोटो खींच सकूँ। फिर शाखर पर बैठे सब यात्रियों को जय भोलेनाथ बोल, उस कुआँ नुमा उतराई में उतरने लग पड़ता हूँ।
पांच-सात मिनट बाद, नीचे उतर पीछे मुड़कर देखता हूँ तो शाखर से उतर आए उस रास्ते को देख रोमांच पैदा हो जाता है। सतलुज घाटी के पास खड़े पर्वतों पर कहीं-कहीं पड़ रही मनमौजी बादलों की छाया पर्वतों के रंगों से खेल रही थी.....यह दृश्य देख स्वप्नलोक सा आभास होता है मुझे!
रूखे-सूखे पर्वत पर घूमती-घूमाती पगडंडी अब मुझे दूर तक दिखाई पड़ने लगी, जिस पर अकेला नंदू ही भागा जा रहा था। जब कि मैं अपने शरीर को उस उतराई पर भागने से जबरदस्ती रोकता हुआ नीचे उतर रहा था।
सात बजने को हो लिये, ऊपर से देखता हूँ कि नंदू पगडंडी किनारे एक ऊँची चट्टान पर बैठ, मेरा इंतजार करते हुए वापसी की राह पर चले तीन जनों को रोक उनसे आगे की जानकारी ले रहा है। मेरे नीचे उतरते-उतरते वो तीन जन ऊपर की ओर चल देतें हैं। उनके पास पहुँच मैं जय भोलेनाथ का सम्बोधन कर पूछता हूँ- "भगतों कहाँ से...?"
"चण्डीगढ़।"
"कौन सा सेक्टर..?"
"छतबीड़ चिड़ियाघर के पास हमारा गाँव रामपुर है जी" तीनों में सबसे पहले वाला नौजवान बोला। उन तीनों नौजवानों में दो नौजवानों का चेहरा-मोहरा, कद- काठी एक सी देख मैं बोलता हूँ- "आप दोनों तो भाई जान पड़ते हो।" मेरी बात सुन उनके चेहरों पर मुस्कुराहट फैल जाती है और सबसे पीछे वाला नौजवान बोलता है- "हां जी, हम दोनों भाई ही हैं....यह अमन शर्मा और मैं रमन शर्मा और यह हमारा मित्र है राजेश।"
"अच्छा जी, दर्शन हो गए...!" मैं औपचारिक रूप से पूछ लेता हूँ।
"जी हां, कल हो गए थे।"
"तो, रात आप लोग गुफा में रुके होंगे" मैं पूछता हूँ।
तभी राजेश जी एकदम से बोलते हैं- "नहीं, हम तो ऊपर ही फंस गए थे!!!" यह सुन मेरे कान एकदम से खड़े हो जाते हैं, मैं नंदू को रुकने का इशारा करता हूँ।
"क्या कहा आपने, ऊपर फंस गए...वो कैसे भाई?"
तब रमन जी ने नीचे की तरफ इशारा कर कहा- "वो जो दो महिलाएँ चली आ रही हैं, उनके भी पीछे जो बंदा धीरे-धीरे चला आ रहा है...उसे बचाने के चक्कर में हम तीनों ऊपर ही फंस गए...!"
मैं और नंदू एकदम से मुँह घुमा कर उस तरफ देखते हैं तो दूर पगडंडी पर एक बंदा मरता-गिरता सा धीरे-धीरे चला आ रहा था। मुँह पलट कर जैसे ही हमने फिर उन तीनों की तरफ किया तो रमन जी बोले- "दरअसल वह दोनों महिलाएँ तंगलिंग गाँव की हैं, हमें किन्नर कैलाश जाते हुए बीच रास्ते में मिली थी....तो हम इनके साथ-साथ परसो शाम तक गणेश पार्क पहुँच सीताराम के ढाबे पर रुक गए, हमें कल दर्शन कर वापस गणेश पार्क सीताराम के ढाबे पर रुकना था........"
रमन जी की बात बीच में काट कर मैं बोलता हूँ- "ओह हो, तभी कल रात सीताराम जी बार-बार अपने नौकर को कह रहे थे कि वो चण्डीगढ़ वाले लड़के वापस नहीं आए अभी तक.......उन्होंने हमारे तम्बू में आपके लिए जगह भी रख छोड़ी थी, अच्छा फिर आगे बताएं रमन जी।"
इतने में वो दोनों स्थानीय महिलाएँ भी हमारे पास आ रुकती हैं। रमन जी ने आगे बोलना आरंभ किया कि कल सुबह हम पांचों गणेश पार्क से इकट्ठे ही निकले थे किन्नर कैलाश जाने के लिए, तो रास्ते में हमें यह बंदा मिल गया.....यह अकेला ही किन्नर कैलाश की ओर चला जा रहा था। इसने हमें बताया कि इसके तीन साथी उसे बीच रास्ते में छोड़ कर वापस तंगलिंग की तरफ उतर गए, यह कहते हुए कि हमारे बस का नहीं है...! तो यह बंदा अकेला ही ऊपर की ओर चढ़ आया, अब हमारा दल 6जनों का हो गया। दोपहर के बाद हम किन्नर कैलाश जा पहुँचे, जहाँ पहुँच इस बंदे को हाई एल्टीट्यूड सिकनेस का अटैक हो गया....इसे बेहोशी सी आनी शुरू हो गई, तो हमने इसे पकड़ कर नीचे उतराना चालू किया। इसकी वजह से हम इन दोनों महिलाओं से बिछुड़ गए, ये बहुत आगे निकल गई....क्योंकि इस बंदे ने हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाते हुए हमें कहा कि मुझे यहाँ अकेला छोड़कर मत जाओ, नहीं तो मेरी यहाँ मौत हो जाएगी! तो हम तीनों ने ठान लिया कि इंसानियत के नाते हमें इसकी मदद करनी है और इसे धीरे-धीरे कर नीचे उतार लेते हैं। इसी चक्कर में पार्वती कुण्ड से आगे पहुँचते ही हमें अंधेरे ने आ घेरा, और हम पगडंडी से भटक गए। बैटरियों की रौशनी में पगडंडी को फिर से खोजते रहे....नीचे गुफा के बाहर खड़े लोग हमें बैटरियों की रौशनी दिखाकर दिशा बताते रहे, परंतु जब भी हम उस ओर बढ़ते तो आगे खाई आ जाती। फिर हमने दो दल बनाकर बैटरियों की रौशनी में अलग-अलग दिशाओं में जाकर भी पगडंडी को ढूँढना चाहा, परंतु निराशा ही हाथ लगी। रात के 10बज गए, तो हमने पगडंडी को खोजना बंद कर....किसी ऐसी जगह को खोजना शुरू किया, जहाँ बैठकर हम रात काट सकें क्योंकि ठंड भी अब बढ़ने लगी थी। आखिर आधे-पौने घंटे की खोज के बाद हमें एक ऐसी चट्टान मिल जाती है जिसके नीचे हम चारों बैठ सकते थे। इस चट्टान के नीचे से हमने छोटे-बड़े पत्थर उठाकर समतल जगह बनाई, इस भागदौड़ में इस बंदे को बुखार चढ़ गया। खैर, हमारे पास दवाई और तीन सेब थे, वो सब कुछ हम चारों ने बांट खाया और उस चट्टान के नीचे हम चारों एक-दूसरे से जुड़ कर बैठ गए। नींद भी कहाँ आनी थी इतनी ठंड में, ऊपर से सारी रात पहाड़ टूट-टूट कर चट्टानें गिरने की डरावनी आवाज़ें कहाँ सोने देती है......गुफा से ऊपर जाते ही आप लोग भी ध्यान रखना वहाँ पहाड़ से चट्टाने टूट-टूट कर नीचे गिरती रहती हैं, यहाँ तक कि कल मैं बच गया नहीं तो यह सब आपको बताने योग्य भी नहीं रहता....!!!!!!
"है, वो कैसे भाई...?" मैं हैरानी से पूछता हूँ।
दरअसल जब हम किन्नर कैलाश से नीचे उतर रहे थे तो हमारे पीछे एक और दल उतर रहा था.... उनमें से एक लड़के का पैर फिसला और उसके फिसलने से पत्थर खिसक गए। एक पत्थर मेरे चेहरे के इतना करीब से निकला कि मेरे कान में सूँ की आवाज़ और चेहरे पर पत्थर से कटी हवा भी टकराई। मैं वहीं सुन्न खड़ा उस पत्थर रुपी मौत को खाई में गिरने तक देखता रहा और फिर ऊपर की ओर किन्नर कैलाश भगवान को देख हाथ जोड़ दिए कि आज तो तूने रख लिया भोलेनाथ...!!!!!
नीचे पगडंडी किनारे बैठ चुके उस बंदे की तरफ इशारा कर मैं कहता हूँ- "आपको तो भोलेनाथ ने रखना ही था, क्योंकि आपके द्वारा ही वह अपने इस भगत को रख रहा है जो अकेला ही चला जा रहा था उसकी चौखट पर, रमन जी...!!!" यह कहकर मैं हर-हर- महादेव का उद्घोष कर नीचे की तरफ चल देता हूँ।
पांच-सात मिनट बाद ही हम उस बंदे के पास जा पहुँचतें हैं, उसकी हिम्मत की दाद देते हुए उसका नाम पूछता हूँ जो अब मुझे याद नहीं रहा....हां वह भी चण्डीगढ़ वासी ही निकला। नंदू को कहता हूँ कि इस बंदे को कुछ खाने को दे दो क्योंकि कल से यह भूखा भी है। नंदू अपने रक्सैक उतार उसमें से बिस्कुट का पैकेट निकाल, उसे देता है....तो उस बंदे के मुरझाए चेहरे पर एक दम से ताज़गी का भाव उभर आता है।
और, नंदू को यह भी बोलता हूँ कि अपनी बोतल में अभी थोड़ा सा ही पानी भरे, क्योंकि ढाबा मालिक सीताराम जी को बहुत गहराई से यहाँ पानी लाना पड़ता है, तो हम आगे जाकर गुफा से पहले आते एकमात्र झरने से अपनी बोतलों को भर लेंगे।
खैर अपने फीते-नाले-बेल्टें बांधते-कसते हमें आधा-पौना घंटा बीत ही गया। आखिर सवा चार बजे हमने किन्नर कैलाश की ओर पहला कदम बढ़ा ही दिया।
चारों ओर अंधेरा था, आसमान का रंग अभी काला ही था....तारे टिमटिमा रहे थे। नंदू के हाथ में बैटरी थी, जबकि मैंने अपनी गर्म टोपी पर "माथा बैटरी" बांध ली...क्योंकि मैंने अपने दोनों हाथों में ट्रेकिंग स्टिकस् जो थाम रखी थी। रात की खामोशी में हमारे बूटों की आवाज़ फैल रही थी। पगडंडी पर रौशनी फैलाते हुए हम कुछ मिनट चलते रहे कि पगडंडी हमें फॉरेस्ट शेड के पास ले आती है, कांटेदार तारों की बाड़ को पार कर हम अंदर दाखिल होते हैं। दूर से बैटरी की रौशनी मार कर देखते हैं कि फॉरेस्ट शेड में अभी कोई भी हलचल नहीं है, मतलब घर से भागे हुए उन तीन बच्चों के साथ बाकी रुके सब जन अभी सो रहे हैं। नंदू पगडंडी की दूसरी तरफ बैटरी की रौशनी करता है तो एक छोटी सी झोपड़ीनुमा छत पर लाल झंडा नज़र आता है, निश्चित है यह मंदिर ही होगा। पास पहुँच देखते हैं कि आशा के अनुरूप ही उस छोटे से मंदिर में भोलेनाथ विराजमान है, हमारे हाथ खुद-ब-खुद जुड़ जाते हैं। फ़ॉरेस्ट शेड के बाड़े को पार करवा, हमें पगडंडी ऊपर की ओर चढ़ाती ले जा रही थी।
"हवा बिल्कुल ही बंद है, यदि चल पड़े तो इतनी ऊँचाई पर चलने वाली हिमानी हवा इस वक्त हमें चीर ही देगी!" मैं नंदू से बोलता हूँ।
"हां, कितना अजीब सा सन्नाटा पसरा हुआ है विक्की!" नंदू बोला।
"हां नंदू ऐसा प्रतीत हो रहा कि हमें छोड़कर यहाँ सब कुछ ठहरा हुआ है जैसे वो इस अंधेरे के बीतने का इंतजार कर रहे हो, और एक हम हैं जिन्हें इस अंधेरे में भी चैन नहीं...!!" कह कर मैं हंस देता हूँ।
पगडंडी हमें कदम-दर-कदम "बाटूसकार पर्वत" शिखर की तरफ चढ़ाती ले जा रही थी। आसमान पर पड़ी रात की कालिख अब फीकी पड़ने लगी थी। पांच बजे के करीब हम पर्वत की उस ऊँचाई पर जा पहुँचते हैं, जहाँ से उस पार का नज़ारा दिखाई पड़ने लगता है। पहली ही नज़र में, मैं उस पार दिख रहे नज़ारे को पहचान लेता हूँ। उस हल्के से अंधेरे में सामने दिख रहे पर्वत की बनावट देख खुशी से चहकता हुआ बच्चों सा उत्साहित को बोलता हूँ- "नंदू, वो देख सामने किन्नर कैलाश शिला" और मेरे हाथ जुड़ जाते हैं। हम दोनों किन्नर कैलाश शिला के दूरदर्शन पा वहीं नतमस्तक हो जाते हैं।
"नंदू यहीं से ही उन दोनों मध्य प्रदेश वाले मित्रों ने किन्नर कैलाश को माथा टेक वापसी कर ली होगी, जो हमें कल ऊपर चढ़ते वक्त रास्ते में मिले थे। हर आठ-दस कदम चलने के बाद मेरी आँखें खुद-ब-खुद किन्नर कैलाश शिला को देखने चली जाती।
शिला की पृष्ठभूमि में आसमान का रंग नीला होना आरंभ हो चला था। यह देख नंदू को एकाएक कहता हूँ- "याद आया, जब मैंने पिछली बार कल्पा से किन्नर कैलाश को देखा था....तो वहाँ एक बुजुर्ग से हुई बातचीत में उन्होंने मुझे बताया था कि किन्नर कैलाश शिला दिन में कई रंग बदलती है।"
पांच-सात मिनट बाद वह नीलिमा सारे आसमान में फैल गई, पर पर्वत अभी भी अंधेरे में ही थे। साढे पांच बजे इतना प्रकाश आ फैला कि हमारी बैटरियाँ नकारा साबित हो गई। पर्वतों पर पड़ा अंधेरे का काला रंग अब हरा दिखाई पड़ने लगा, जिनके शिखर बर्फ की वजह से सदा के लिए झुलस चुके हैं। पीछे मुड़ देखता हूँ तो मलिंगखट्टा उग रहे दिन की प्रथम रौशनी में नहा रहा है, हम उससे काफी ऊपर चढ़ आए हैं....फॉरेस्ट शेड और सीताराम जी का ढाबा अब स्पष्ट दिखाई पड़ने लगा। "बाटूसकार पर्वत" के बगल से दिख रहे "रंगकूम्मो पर्वत" शिखर की धौली-धार भी उग रहे दिन का प्रकाश पा चमकने लगी।
पौने छह बज रहे थे और हम चलते-चलते उस जगह पर पहुँचते हैं, जहाँ पगडंडी किनारे छोटी-बड़ी चट्टानों को चिनकर स्तम्भ नुमा कुछ बनाया गया है...यह रास्ते का दिशा चिन्ह ही हो सकता है। वहाँ पहुँच तुंगमापी घड़ी पर नज़र डालता हूँ....तो हम 3795मीटर की ऊँचाई को प्राप्त हो चले थे, मतलब पहले डेढ़ घंटे में ही हम मलिंगखट्टा गणेश पार्क से 275मीटर की ऊँचाई तक आ पहुँचे हैं। कल सुबह जब से हमने तंगलिंग से किन्नर कैलाश ट्रैक को आरंभ किया है, कहीं भी हमें उतराई नहीं मिली....बढ़ता चला जा रहा प्रत्येक कदम चढ़ाई पर ही पड़ता जा रहा था।
सूर्यादय होने से पहले ही उसकी दीप्ति तमाम अंधेरी घाटियों में पहुँच उन्हें उज्जवलित करती जा रही है। बादलों का आवारापन फिर से अब दिखाई पड़ने लगा, कभी वो इस शिखर तो कभी उस शिखर की ख़बर-सार लेने पहुँच जाते....कभी सामने दिख रही किन्नर कैलाश शिला को मेरी आँखों से ओझल कर देते, तो कभी उन बादलों में केवल किन्नर कैलाश शिला ही नज़र आती। फिर सतलुज घाटी की तरफ नज़र ले जाता हूँ तो उस पर भी बादल मंडरा रहे थे और हम उन बादलों से भी ऊपर चले जा रहे थे। सूर्यादय का स्वर्ण मुकुट हमें सतलुज घाटी के पार दूर दिखाई पड़ रही पर्वत श्रृंखला के सिर चढ़ा नज़र आने लगता है, क्या खूबसूरत नज़ारा था वो!
चलते-चलते अब हमें पगडंडी उस ओर ले जा रही है, जहाँ बैठे कई सारे जन हमें दूर से ही दिखाई देने लग पड़ते हैं। अब उनका ध्यान भी हमारी तरफ हो गया है, यह बाटूसकार पर्वत के शिखर से ज़रा सा नीचे....उसे पार करने का रास्ता जान पड़ता है, ऐसा सोचते हुए मैं वहाँ पहुँचकर ऐसा ही पाता हूँ।
वहाँ दस-ग्यारह यात्री बैठे विश्राम कर रहे थे, जो अब वापसी पर हैं.....शिव के ज़ोरदार जयकारे से हम सब एक-दूसरे का स्वागत करते हैं। वहाँ पहुँच सबसे पहले अपनी तुंगमापी घड़ी की शरण में जाता हूँ, 3900मीटर समय साढे छह बजे का.....मतलब पिछले आधे घंटे में हम 100मीटर और ज्यादा चढ़ आए हैं। इस स्थान को स्थानीय लोग "शाखर" नाम से सम्बोधित करते हैं, शाखर शब्द शिखर का ही पर्यायवाची होगा और इस शाखर स्थान के बारे में स्थानीय लोक-गाथा भी है कि भस्मासुर ने इसी जगह पर बैठ भगवान शिव की तपस्या कर उन्हें प्रसन्न कर वरदान प्राप्त किया था और वही वरदान खुद भगवान शिव पर भारी पड़ गया। भस्मासुर भगवान शिव के सिर पर हाथ रख उन्हें ही भस्म करने के षड्यंत्र से उनकी ओर जैसे ही बढ़ा, शिव भांप गए....फिर क्या था पकड़न-पकड़ाई शुरू! शिव आगे-आगे, भस्मासुर अपना वरदानी हाथ उठाकर शिव के पीछे-पीछे। शाखर से भागे शिव बचते-बचते निरमंड कस्बे के पास "देव-ढाक" की गुफा में घुसकर श्रीखंड कैलाश जा निकले। भस्मासुर भी उनके पीछे-पीछे श्रीखंड कैलाश के नीचे आती जगह "भीमद्वारी" तक पहुँच जाता है, तब भगवान विष्णु ने "मोहिनी" रूप धरकर भस्मासुर को अपनी अदाओं के रूप जाल और सुरा के नशे में ऐसा फांसा कि वह मोहित हो मोहिनी के साथ नृत्य करने को विवश हो गया....और मोहिनी ने छल से भस्मासुर से अपने नृत्य की नकल करवा कर, उसी का वरदानी हाथ उठवा कर उसी के सिर पर रखवा दिया और शिव से वरदान प्राप्त अपने हाथ से ही भस्मासुर खुद ही अपने-आप को भस्म कर बैठा...!!!
खैर, "शाखर" पर तीन दल बैठे थे...एक तरफ एक चट्टान पर तीन हंसते-मुस्कुराते दोस्त विराजमान थे, मैं भूल चुका हूँ कि वह कहाँ से थे। दूसरी तरफ आठ जन एक एक पंक्ति में बैठे थे, जिनमें से दो को छोड़ तीसरा दल छह नौजवानों का था....जिनमें एक "चिलम" घूम रही थी। शिव भोले की यात्रा और चिलम ना मिले, ऐसा कभी नहीं हो सकता...!!!
उनसे हुई बातचीत का सार निकलता है कि उन नौजवानों में से दो नौजवान अपनी उपलब्धि गिना रहे थे कि इस वर्ष की श्रीखंड कैलाश यात्रा शुरू होने से एक महीना पहले, वह सबसे पहले हैं जो श्रीखंड शिला तक जा पहुँचे।
शाखर से दूसरी तरफ पगडंडी एकदम से नीचे गिरती हुई दिखाई पड़ती है, यह उस कठिन पदयात्रा की पहली और आखिरी उतराई है। उतराई भी ऐसी कि अपने शरीर को इस पर रोकना भी मुश्किल सा हो जाता है, वापसी पर यह उतराई उल्टी हो जबरदस्त चढ़ाई का सबब बन जाती है।
तड़के से ही मेरे आगे-आगे चला नंदू यहाँ भी मुझसे पहले उतराई पर उतर जाता है। मैं शाखर पर रुक जाता हूँ, तांकि नीचे उतर रहे नंदू की फोटो खींच सकूँ। फिर शाखर पर बैठे सब यात्रियों को जय भोलेनाथ बोल, उस कुआँ नुमा उतराई में उतरने लग पड़ता हूँ।
पांच-सात मिनट बाद, नीचे उतर पीछे मुड़कर देखता हूँ तो शाखर से उतर आए उस रास्ते को देख रोमांच पैदा हो जाता है। सतलुज घाटी के पास खड़े पर्वतों पर कहीं-कहीं पड़ रही मनमौजी बादलों की छाया पर्वतों के रंगों से खेल रही थी.....यह दृश्य देख स्वप्नलोक सा आभास होता है मुझे!
रूखे-सूखे पर्वत पर घूमती-घूमाती पगडंडी अब मुझे दूर तक दिखाई पड़ने लगी, जिस पर अकेला नंदू ही भागा जा रहा था। जब कि मैं अपने शरीर को उस उतराई पर भागने से जबरदस्ती रोकता हुआ नीचे उतर रहा था।
सात बजने को हो लिये, ऊपर से देखता हूँ कि नंदू पगडंडी किनारे एक ऊँची चट्टान पर बैठ, मेरा इंतजार करते हुए वापसी की राह पर चले तीन जनों को रोक उनसे आगे की जानकारी ले रहा है। मेरे नीचे उतरते-उतरते वो तीन जन ऊपर की ओर चल देतें हैं। उनके पास पहुँच मैं जय भोलेनाथ का सम्बोधन कर पूछता हूँ- "भगतों कहाँ से...?"
"चण्डीगढ़।"
"कौन सा सेक्टर..?"
"छतबीड़ चिड़ियाघर के पास हमारा गाँव रामपुर है जी" तीनों में सबसे पहले वाला नौजवान बोला। उन तीनों नौजवानों में दो नौजवानों का चेहरा-मोहरा, कद- काठी एक सी देख मैं बोलता हूँ- "आप दोनों तो भाई जान पड़ते हो।" मेरी बात सुन उनके चेहरों पर मुस्कुराहट फैल जाती है और सबसे पीछे वाला नौजवान बोलता है- "हां जी, हम दोनों भाई ही हैं....यह अमन शर्मा और मैं रमन शर्मा और यह हमारा मित्र है राजेश।"
"अच्छा जी, दर्शन हो गए...!" मैं औपचारिक रूप से पूछ लेता हूँ।
"जी हां, कल हो गए थे।"
"तो, रात आप लोग गुफा में रुके होंगे" मैं पूछता हूँ।
तभी राजेश जी एकदम से बोलते हैं- "नहीं, हम तो ऊपर ही फंस गए थे!!!" यह सुन मेरे कान एकदम से खड़े हो जाते हैं, मैं नंदू को रुकने का इशारा करता हूँ।
"क्या कहा आपने, ऊपर फंस गए...वो कैसे भाई?"
तब रमन जी ने नीचे की तरफ इशारा कर कहा- "वो जो दो महिलाएँ चली आ रही हैं, उनके भी पीछे जो बंदा धीरे-धीरे चला आ रहा है...उसे बचाने के चक्कर में हम तीनों ऊपर ही फंस गए...!"
मैं और नंदू एकदम से मुँह घुमा कर उस तरफ देखते हैं तो दूर पगडंडी पर एक बंदा मरता-गिरता सा धीरे-धीरे चला आ रहा था। मुँह पलट कर जैसे ही हमने फिर उन तीनों की तरफ किया तो रमन जी बोले- "दरअसल वह दोनों महिलाएँ तंगलिंग गाँव की हैं, हमें किन्नर कैलाश जाते हुए बीच रास्ते में मिली थी....तो हम इनके साथ-साथ परसो शाम तक गणेश पार्क पहुँच सीताराम के ढाबे पर रुक गए, हमें कल दर्शन कर वापस गणेश पार्क सीताराम के ढाबे पर रुकना था........"
रमन जी की बात बीच में काट कर मैं बोलता हूँ- "ओह हो, तभी कल रात सीताराम जी बार-बार अपने नौकर को कह रहे थे कि वो चण्डीगढ़ वाले लड़के वापस नहीं आए अभी तक.......उन्होंने हमारे तम्बू में आपके लिए जगह भी रख छोड़ी थी, अच्छा फिर आगे बताएं रमन जी।"
इतने में वो दोनों स्थानीय महिलाएँ भी हमारे पास आ रुकती हैं। रमन जी ने आगे बोलना आरंभ किया कि कल सुबह हम पांचों गणेश पार्क से इकट्ठे ही निकले थे किन्नर कैलाश जाने के लिए, तो रास्ते में हमें यह बंदा मिल गया.....यह अकेला ही किन्नर कैलाश की ओर चला जा रहा था। इसने हमें बताया कि इसके तीन साथी उसे बीच रास्ते में छोड़ कर वापस तंगलिंग की तरफ उतर गए, यह कहते हुए कि हमारे बस का नहीं है...! तो यह बंदा अकेला ही ऊपर की ओर चढ़ आया, अब हमारा दल 6जनों का हो गया। दोपहर के बाद हम किन्नर कैलाश जा पहुँचे, जहाँ पहुँच इस बंदे को हाई एल्टीट्यूड सिकनेस का अटैक हो गया....इसे बेहोशी सी आनी शुरू हो गई, तो हमने इसे पकड़ कर नीचे उतराना चालू किया। इसकी वजह से हम इन दोनों महिलाओं से बिछुड़ गए, ये बहुत आगे निकल गई....क्योंकि इस बंदे ने हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाते हुए हमें कहा कि मुझे यहाँ अकेला छोड़कर मत जाओ, नहीं तो मेरी यहाँ मौत हो जाएगी! तो हम तीनों ने ठान लिया कि इंसानियत के नाते हमें इसकी मदद करनी है और इसे धीरे-धीरे कर नीचे उतार लेते हैं। इसी चक्कर में पार्वती कुण्ड से आगे पहुँचते ही हमें अंधेरे ने आ घेरा, और हम पगडंडी से भटक गए। बैटरियों की रौशनी में पगडंडी को फिर से खोजते रहे....नीचे गुफा के बाहर खड़े लोग हमें बैटरियों की रौशनी दिखाकर दिशा बताते रहे, परंतु जब भी हम उस ओर बढ़ते तो आगे खाई आ जाती। फिर हमने दो दल बनाकर बैटरियों की रौशनी में अलग-अलग दिशाओं में जाकर भी पगडंडी को ढूँढना चाहा, परंतु निराशा ही हाथ लगी। रात के 10बज गए, तो हमने पगडंडी को खोजना बंद कर....किसी ऐसी जगह को खोजना शुरू किया, जहाँ बैठकर हम रात काट सकें क्योंकि ठंड भी अब बढ़ने लगी थी। आखिर आधे-पौने घंटे की खोज के बाद हमें एक ऐसी चट्टान मिल जाती है जिसके नीचे हम चारों बैठ सकते थे। इस चट्टान के नीचे से हमने छोटे-बड़े पत्थर उठाकर समतल जगह बनाई, इस भागदौड़ में इस बंदे को बुखार चढ़ गया। खैर, हमारे पास दवाई और तीन सेब थे, वो सब कुछ हम चारों ने बांट खाया और उस चट्टान के नीचे हम चारों एक-दूसरे से जुड़ कर बैठ गए। नींद भी कहाँ आनी थी इतनी ठंड में, ऊपर से सारी रात पहाड़ टूट-टूट कर चट्टानें गिरने की डरावनी आवाज़ें कहाँ सोने देती है......गुफा से ऊपर जाते ही आप लोग भी ध्यान रखना वहाँ पहाड़ से चट्टाने टूट-टूट कर नीचे गिरती रहती हैं, यहाँ तक कि कल मैं बच गया नहीं तो यह सब आपको बताने योग्य भी नहीं रहता....!!!!!!
"है, वो कैसे भाई...?" मैं हैरानी से पूछता हूँ।
दरअसल जब हम किन्नर कैलाश से नीचे उतर रहे थे तो हमारे पीछे एक और दल उतर रहा था.... उनमें से एक लड़के का पैर फिसला और उसके फिसलने से पत्थर खिसक गए। एक पत्थर मेरे चेहरे के इतना करीब से निकला कि मेरे कान में सूँ की आवाज़ और चेहरे पर पत्थर से कटी हवा भी टकराई। मैं वहीं सुन्न खड़ा उस पत्थर रुपी मौत को खाई में गिरने तक देखता रहा और फिर ऊपर की ओर किन्नर कैलाश भगवान को देख हाथ जोड़ दिए कि आज तो तूने रख लिया भोलेनाथ...!!!!!
नीचे पगडंडी किनारे बैठ चुके उस बंदे की तरफ इशारा कर मैं कहता हूँ- "आपको तो भोलेनाथ ने रखना ही था, क्योंकि आपके द्वारा ही वह अपने इस भगत को रख रहा है जो अकेला ही चला जा रहा था उसकी चौखट पर, रमन जी...!!!" यह कहकर मैं हर-हर- महादेव का उद्घोष कर नीचे की तरफ चल देता हूँ।
पांच-सात मिनट बाद ही हम उस बंदे के पास जा पहुँचतें हैं, उसकी हिम्मत की दाद देते हुए उसका नाम पूछता हूँ जो अब मुझे याद नहीं रहा....हां वह भी चण्डीगढ़ वासी ही निकला। नंदू को कहता हूँ कि इस बंदे को कुछ खाने को दे दो क्योंकि कल से यह भूखा भी है। नंदू अपने रक्सैक उतार उसमें से बिस्कुट का पैकेट निकाल, उसे देता है....तो उस बंदे के मुरझाए चेहरे पर एक दम से ताज़गी का भाव उभर आता है।
मेरे पाठक दोस्तों, घुमक्कड़ी के दौरान हम असंख्य नए लोगों से मिलते हैं.....पर यदि हमें कोई ऐसा बंदा मिले, जो आपको सोशल मीडिया पर जानता हो परंतु पहचान ना पाये और आप भी उसे ना पहचान पायें।
तो, मेरे साथ भी इस यात्रा पर यह घटना घटी, हुआ कुछ यूं कि किन्नर कैलाश यात्रा से वापस तंगलिंग आकर अपनी फेसबुक प्रोफाइल पर अपडेट डालता हूँ तो एक कमेंट आता है- "जय भोलेनाथ सर जी, हम ट्रैक पर मिले थे जब आप ऊपर जा रहे थे...!"
यह कमेंट चंडीगढ़ वाले रमन शर्मा जी का था। यह पढ़ एक बार तो मैं चक्कर खा गया, यह कैसे हो गया... रमन जी फेसबुक पर मुझे काफी समय से फॉलो कर रहे हैं और मेरे ब्लॉग के नियमित पाठक हैं। मैं उनसे बातें करता रहा, पर हम दोनों ही एक दूसरे को पहचान ना सके। हम दोनों को ही इस बात पर बहुत अफसोस हुआ।
रमन जी के अनुसार वो मुझे इसलिए नहीं पहचान पाए कि मैंने तब अपनी लुक बदल ली थी, बड़ी- बड़ी मूछें जो रख ली है। रमन जी कहते हैं कि जब आप हमसे बातचीत कर नीचे की तरफ उतरे तो आपकी रक्सैक पर बंधी घंटी देख, एक बार मन में यह ख्याल आया भी कि ऐसी घंटी तो विकास नारदा अपनी रक्सैक पर बांध कर चलता है....और, फिर तंगलिंग वापस आकर जब आपकी एर्टिगा गाड़ी खड़ी देखी तो फिर दिमाग में खटका कि विकास नारदा भी तो अपनी एर्टिगा गाड़ी ले घूमता है....और जब कुछ समय बाद फेसबुक खोली, तो आप प्रकट हो गए।
तो, मेरे साथ भी इस यात्रा पर यह घटना घटी, हुआ कुछ यूं कि किन्नर कैलाश यात्रा से वापस तंगलिंग आकर अपनी फेसबुक प्रोफाइल पर अपडेट डालता हूँ तो एक कमेंट आता है- "जय भोलेनाथ सर जी, हम ट्रैक पर मिले थे जब आप ऊपर जा रहे थे...!"
यह कमेंट चंडीगढ़ वाले रमन शर्मा जी का था। यह पढ़ एक बार तो मैं चक्कर खा गया, यह कैसे हो गया... रमन जी फेसबुक पर मुझे काफी समय से फॉलो कर रहे हैं और मेरे ब्लॉग के नियमित पाठक हैं। मैं उनसे बातें करता रहा, पर हम दोनों ही एक दूसरे को पहचान ना सके। हम दोनों को ही इस बात पर बहुत अफसोस हुआ।
रमन जी के अनुसार वो मुझे इसलिए नहीं पहचान पाए कि मैंने तब अपनी लुक बदल ली थी, बड़ी- बड़ी मूछें जो रख ली है। रमन जी कहते हैं कि जब आप हमसे बातचीत कर नीचे की तरफ उतरे तो आपकी रक्सैक पर बंधी घंटी देख, एक बार मन में यह ख्याल आया भी कि ऐसी घंटी तो विकास नारदा अपनी रक्सैक पर बांध कर चलता है....और, फिर तंगलिंग वापस आकर जब आपकी एर्टिगा गाड़ी खड़ी देखी तो फिर दिमाग में खटका कि विकास नारदा भी तो अपनी एर्टिगा गाड़ी ले घूमता है....और जब कुछ समय बाद फेसबुक खोली, तो आप प्रकट हो गए।
क्या आपके साथ भी कभी ऐसा कुछ घटित हुआ है कि कोई फेसबुक मित्र आपसे इस प्रकार मिला हो, मुझे जरूर बताना दोस्तों।
अच्छा, एक और घटना की आपसे चर्चा करना चाहता हूँ कि "सतिंदर वैद्य" मेरे फेसबुक मित्र व मेरे लेखन के प्रशंसक है.....तो एक दिन में घूमता-घुमाता अपने शहर गढ़शंकर से 35किलोमीटर दूर संतोषगढ़ (हिमाचल प्रदेश) के पास में उनकी आटा चक्की पर पहुँच, शुगल-मेले में उन्हें कहने लगा कि मेरे पास 100बोरी देसी मक्की है, मुझे वह आपको बेचनी है...!
सतिंदर वैद्य जी इतनी ज्यादा मक्की बेचने के लिए मुझे अपने गाँव के लाला का नाम बताने लगे। मैं उनसे घुमा-फिरा कर दस मिनट बातें करता रहा, पर वह मुझे पहचान ना सके। चलते-चलते मैंने पलट कर हंसते हुए कहा- "वैद्य साहब, मैं विकास नारदा हूँ....!"
और, सतिंदर वैद्य जी की खुशी सातवें आसमान पर।
( क्रमश:)
अच्छा, एक और घटना की आपसे चर्चा करना चाहता हूँ कि "सतिंदर वैद्य" मेरे फेसबुक मित्र व मेरे लेखन के प्रशंसक है.....तो एक दिन में घूमता-घुमाता अपने शहर गढ़शंकर से 35किलोमीटर दूर संतोषगढ़ (हिमाचल प्रदेश) के पास में उनकी आटा चक्की पर पहुँच, शुगल-मेले में उन्हें कहने लगा कि मेरे पास 100बोरी देसी मक्की है, मुझे वह आपको बेचनी है...!
सतिंदर वैद्य जी इतनी ज्यादा मक्की बेचने के लिए मुझे अपने गाँव के लाला का नाम बताने लगे। मैं उनसे घुमा-फिरा कर दस मिनट बातें करता रहा, पर वह मुझे पहचान ना सके। चलते-चलते मैंने पलट कर हंसते हुए कहा- "वैद्य साहब, मैं विकास नारदा हूँ....!"
और, सतिंदर वैद्य जी की खुशी सातवें आसमान पर।
( क्रमश:)
अपने फीते-नाले-बेल्टें बांधते-कसते हमें आधा-पौना घंटा बीत ही गया, आखिर सवा चार बजे हमने किन्नर कैलाश की ओर पहला कदम बढ़ा ही दिया....अंधेरा इतना कि हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा था। |
पांच-सात मिनट बाद वह नीलिमा सारे आसमान में फैल गई, पर पर्वत अभी भी अंधेरे में ही थे। |
साढे पांच बजे इतना प्रकाश आ फैला कि हमारी बैटरियाँ नकारा साबित हो गई। |
पर्वतों पर पड़ा अंधेरे का काला रंग अब हरा दिखाई पड़ने लगा। |
आवारा बादल कभी सामने दिख रही किन्नर कैलाश शिला को मेरी आँखों से ओझल कर देते, तो कभी उन बादलों में केवल किन्नर कैलाश शिला ही नज़र आती। |
पीछे मुड़ देखता हूँ तो मलिंगखट्टा उग रहे दिन की प्रथम रौशनी में नहा रहा है, हम उससे काफी ऊपर चढ़ आए हैं....फॉरेस्ट शेड और सीताराम जी का ढाबा अब स्पष्ट दिखाई पड़ने लगा। |
"बाटूसकार पर्वत" के बगल से दिख रहे "रंगकूम्मो पर्वत" शिखर की धौली-धार भी उग रहे दिन का प्रकाश पा चमकने लगी। |
पौने छह बज रहे थे और हम चलते-चलते उस जगह पर पहुँचते हैं, जहाँ पगडंडी किनारे छोटी-बड़ी चट्टानों को चिनकर स्तम्भ नुमा कुछ बनाया गया है...यह रास्ते का दिशा चिन्ह ही हो सकता है। |
यहाँ पहुँच तुंगमापी घड़ी पर नज़र डालता हूँ....तो हम 3795मीटर की ऊँचाई को प्राप्त हो चले थे, मतलब पहले डेढ़ घंटे में ही हम मलिंगखट्टा गणेश पार्क से 275मीटर की ऊँचाई तक आ पहुँचे हैं।
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ले, खींच मेरी फोटू.....नंदू! |
कल सुबह जब से हमने तंगलिंग से किन्नर कैलाश ट्रैक को आरंभ किया है, कहीं भी हमें उतराई नहीं मिली....बढ़ता चला जा रहा प्रत्येक कदम चढ़ाई पर ही पड़ता जा रहा था। |
सतलुज घाटी के पार के एक पर्वत शिखर पर पड़ती सूरज की पहली किरण। |
आगे-आगे नंदू.....और मैं हमेशा की तरह पीछे-पीछे! |
सूर्यादय का स्वर्ण मुकुट हमें सतलुज घाटी के पार दूर दिखाई पड़ रही पर्वत श्रृंखला के सिर चढ़ा नज़र आने लगता है, क्या खूबसूरत नज़ारा था वो! |
"शाखर" पर तीन दल बैठे थे...एक तरफ एक चट्टान पर तीन हंसते-मुस्कुराते दोस्त विराजमान थे, मैं भूल चुका हूँ कि वह कहाँ से थे। |
दूसरी तरफ आठ जन एक एक पंक्ति में बैठे थे, जिनमें से दो को छोड़ तीसरा दल छह नौजवानों का था....जिनमें एक "चिलम" घूम रही थी। शिव भोले की यात्रा और चिलम ना मिले, ऐसा कभी नहीं हो सकता...!!! |
यहाँ पहुँच सबसे पहले अपनी तुंगमापी घड़ी की शरण में जाता हूँ, 3900मीटर समय साढे छह बजे का.....मतलब पिछले आधे घंटे में हम 100मीटर और ज्यादा चढ़ आए हैं।
|
शाखर से दूसरी तरफ पगडंडी एकदम से नीचे गिरती हुई दिखाई पड़ती है, यह उस कठिन पदयात्रा की पहली और आखिरी उतराई है। |
पांच-सात मिनट बाद, नीचे उतर पीछे मुड़कर देखता हूँ तो शाखर से उतर आए उस रास्ते को देख रोमांच पैदा हो जाता है। इस चित्र में शाखर पर खड़े यात्रियों को देखें। |
सतलुज घाटी के पास खड़े पर्वतों पर कहीं-कहीं पड़ रही मनमौजी बादलों की छाया पर्वतों के रंगों से खेल रही थी.....यह दृश्य देख स्वप्नलोक सा आभास होता है मुझे! |
एक और नज़र डालो दोस्तों, स्वप्नलोक पर! |
रूखे-सूखे पर्वत पर घूमती-घूमाती पगडंडी अब मुझे दूर तक दिखाई पड़ने लगी, जिस पर अकेला नंदू ही भागा जा रहा था। जब कि मैं अपने शरीर को उस उतराई पर भागने से जबरदस्ती रोकता हुआ नीचे उतर रहा था। |
पीछे मुड़कर देखता हूँ। |
सात बजने को हो लिये, ऊपर से देखता हूँ कि नंदू पगडंडी किनारे एक ऊँची चट्टान पर बैठ, मेरा इंतजार करते हुए वापसी की राह पर चले तीन जनों को रोक उनसे आगे की जानकारी ले रहा है। |
इनके दल में तंगलिंग गाँव की महिलाएँ। |
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