रविवार, 19 जुलाई 2020

भाग-8 "मेरी किन्नर कैलाश यात्रा" (Kinner Kailash Yatra)

भाग-8 "मेरी किन्नर कैलाश यात्रा"

इस यात्रा को आरंभ से पढ़ने का यंत्र http://vikasnarda.blogspot.com/2020/05/blog-post.html?m=1स्पर्श करें।

                       "जिसे रखे.....भोलेनाथ!"


       22 अगस्त 2017......तड़के साढे तीन बजे मेरा "गधा मोबाइल सेट" कुकड़ू-कड़ू करने लगा, मैंने झट से जाग नंदू को भी हिला दिया....चल उठ तैयार हो जा जल्दी से!
                 और, नंदू को यह भी बोलता हूँ कि अपनी बोतल में अभी थोड़ा सा ही पानी भरे, क्योंकि ढाबा मालिक सीताराम जी को बहुत गहराई से यहाँ पानी लाना पड़ता है, तो हम आगे जाकर गुफा से पहले आते एकमात्र झरने से अपनी बोतलों को भर लेंगे।
                 खैर अपने फीते-नाले-बेल्टें बांधते-कसते हमें आधा-पौना घंटा बीत ही गया। आखिर सवा चार बजे हमने किन्नर कैलाश की ओर पहला कदम बढ़ा ही दिया।
                चारों ओर अंधेरा था, आसमान का रंग अभी काला ही था....तारे टिमटिमा रहे थे। नंदू के हाथ में बैटरी थी, जबकि मैंने अपनी गर्म टोपी पर "माथा बैटरी" बांध ली...क्योंकि मैंने अपने दोनों हाथों में ट्रेकिंग स्टिकस् जो थाम रखी थी। रात की खामोशी में हमारे बूटों की आवाज़ फैल रही थी। पगडंडी पर रौशनी फैलाते हुए हम कुछ मिनट चलते रहे कि पगडंडी हमें फॉरेस्ट शेड के पास ले आती है, कांटेदार तारों की बाड़ को पार कर हम अंदर दाखिल होते हैं। दूर से बैटरी की रौशनी मार कर देखते हैं कि फॉरेस्ट शेड में अभी कोई भी हलचल नहीं है, मतलब घर से भागे हुए उन तीन बच्चों के साथ बाकी रुके सब जन अभी सो रहे हैं। नंदू पगडंडी की दूसरी तरफ बैटरी की रौशनी करता है तो एक छोटी सी झोपड़ीनुमा छत पर लाल झंडा नज़र आता है, निश्चित है यह मंदिर ही होगा। पास पहुँच देखते हैं कि आशा के अनुरूप ही उस छोटे से मंदिर में भोलेनाथ विराजमान है, हमारे हाथ खुद-ब-खुद जुड़ जाते हैं। फ़ॉरेस्ट शेड के बाड़े को पार करवा, हमें पगडंडी ऊपर की ओर चढ़ाती ले जा रही थी।
                  "हवा बिल्कुल ही बंद है, यदि चल पड़े तो इतनी ऊँचाई पर चलने वाली हिमानी हवा इस वक्त हमें चीर ही देगी!" मैं नंदू से बोलता हूँ।
                  "हां, कितना अजीब सा सन्नाटा पसरा हुआ है विक्की!" नंदू बोला।
                  "हां नंदू ऐसा प्रतीत हो रहा कि हमें छोड़कर यहाँ सब कुछ ठहरा हुआ है जैसे वो इस अंधेरे के बीतने का इंतजार कर रहे हो, और एक हम हैं जिन्हें इस अंधेरे में भी चैन नहीं...!!"  कह कर मैं हंस देता हूँ।
                  पगडंडी हमें कदम-दर-कदम "बाटूसकार  पर्वत" शिखर की तरफ चढ़ाती ले जा रही थी। आसमान पर पड़ी रात की कालिख अब फीकी पड़ने लगी थी। पांच बजे के करीब हम पर्वत की उस ऊँचाई पर जा पहुँचते हैं, जहाँ से उस पार का नज़ारा दिखाई पड़ने लगता है। पहली ही नज़र में, मैं उस पार दिख रहे नज़ारे को पहचान लेता हूँ। उस हल्के से अंधेरे में सामने दिख रहे पर्वत की बनावट देख खुशी से चहकता हुआ बच्चों सा उत्साहित को बोलता हूँ- "नंदू, वो देख सामने किन्नर कैलाश शिला" और मेरे हाथ जुड़ जाते हैं। हम दोनों किन्नर कैलाश शिला के दूरदर्शन पा वहीं नतमस्तक हो जाते हैं।
                "नंदू यहीं से ही उन दोनों मध्य प्रदेश वाले मित्रों ने किन्नर कैलाश को माथा टेक वापसी कर ली होगी, जो हमें कल ऊपर चढ़ते वक्त रास्ते में मिले थे। हर आठ-दस कदम चलने के बाद मेरी आँखें खुद-ब-खुद किन्नर कैलाश शिला को देखने चली जाती।
                शिला की पृष्ठभूमि में आसमान का रंग नीला होना आरंभ हो चला था। यह देख नंदू को एकाएक कहता हूँ- "याद आया, जब मैंने पिछली बार कल्पा से किन्नर कैलाश को देखा था....तो वहाँ एक बुजुर्ग से हुई बातचीत में उन्होंने मुझे बताया था कि किन्नर कैलाश शिला दिन में कई रंग बदलती है।"
                पांच-सात मिनट बाद वह नीलिमा सारे आसमान में फैल गई, पर पर्वत अभी भी अंधेरे में ही थे। साढे पांच बजे इतना प्रकाश आ फैला कि हमारी बैटरियाँ नकारा साबित हो गई। पर्वतों पर पड़ा अंधेरे का काला रंग अब हरा दिखाई पड़ने लगा, जिनके शिखर बर्फ की वजह से सदा के लिए झुलस चुके हैं। पीछे मुड़ देखता हूँ तो मलिंगखट्टा उग रहे दिन की प्रथम रौशनी में नहा रहा है, हम उससे काफी ऊपर चढ़ आए हैं....फॉरेस्ट शेड और सीताराम जी का ढाबा अब स्पष्ट दिखाई पड़ने लगा। "बाटूसकार पर्वत" के बगल से दिख रहे "रंगकूम्मो पर्वत" शिखर की धौली-धार भी उग रहे दिन का प्रकाश पा चमकने लगी।
                   पौने छह बज रहे थे और हम चलते-चलते उस जगह पर पहुँचते हैं, जहाँ पगडंडी किनारे छोटी-बड़ी चट्टानों को चिनकर स्तम्भ नुमा कुछ बनाया गया है...यह रास्ते का दिशा चिन्ह ही हो सकता है। वहाँ पहुँच तुंगमापी घड़ी पर नज़र डालता हूँ....तो हम 3795मीटर की ऊँचाई को प्राप्त हो चले थे, मतलब पहले डेढ़ घंटे में ही हम मलिंगखट्टा गणेश पार्क से 275मीटर की ऊँचाई तक आ पहुँचे हैं। कल सुबह जब से हमने तंगलिंग से किन्नर कैलाश ट्रैक को आरंभ किया है, कहीं भी हमें उतराई नहीं मिली....बढ़ता चला जा रहा प्रत्येक कदम चढ़ाई पर ही पड़ता जा रहा था।
                 सूर्यादय होने से पहले ही उसकी दीप्ति तमाम अंधेरी घाटियों में पहुँच उन्हें उज्जवलित करती जा रही है। बादलों का आवारापन फिर से अब दिखाई पड़ने लगा, कभी वो इस शिखर तो कभी उस शिखर की ख़बर-सार लेने पहुँच जाते....कभी सामने दिख रही किन्नर कैलाश शिला को मेरी आँखों से ओझल कर देते, तो कभी उन बादलों में केवल किन्नर कैलाश शिला ही नज़र आती। फिर सतलुज घाटी की तरफ नज़र ले जाता हूँ तो उस पर भी बादल मंडरा रहे थे और हम उन बादलों से भी ऊपर चले जा रहे थे। सूर्यादय का स्वर्ण मुकुट हमें सतलुज घाटी के पार दूर दिखाई पड़ रही पर्वत श्रृंखला के सिर चढ़ा नज़र  आने लगता है, क्या खूबसूरत नज़ारा था वो!
                  चलते-चलते अब हमें पगडंडी उस ओर ले जा रही है, जहाँ बैठे कई सारे जन हमें दूर से ही दिखाई देने लग पड़ते हैं। अब उनका ध्यान भी हमारी तरफ हो गया है, यह बाटूसकार पर्वत के शिखर से ज़रा सा नीचे....उसे पार करने का रास्ता जान पड़ता है, ऐसा सोचते हुए मैं वहाँ पहुँचकर ऐसा ही पाता हूँ।
                  वहाँ दस-ग्यारह यात्री बैठे विश्राम कर रहे थे, जो अब वापसी पर हैं.....शिव के ज़ोरदार जयकारे से हम सब एक-दूसरे का स्वागत करते हैं। वहाँ पहुँच सबसे पहले अपनी तुंगमापी घड़ी की शरण में जाता हूँ, 3900मीटर समय साढे छह बजे का.....मतलब पिछले आधे घंटे में हम 100मीटर और ज्यादा चढ़ आए हैं। इस स्थान को स्थानीय लोग "शाखर" नाम से सम्बोधित करते हैं, शाखर शब्द शिखर का ही पर्यायवाची होगा और इस शाखर स्थान के बारे में स्थानीय लोक-गाथा भी है कि भस्मासुर ने इसी जगह पर बैठ भगवान शिव की तपस्या कर उन्हें प्रसन्न कर वरदान प्राप्त किया था और वही वरदान खुद भगवान शिव पर भारी पड़ गया। भस्मासुर भगवान शिव के सिर पर हाथ रख उन्हें ही भस्म करने के षड्यंत्र से उनकी ओर जैसे ही बढ़ा, शिव भांप गए....फिर क्या था पकड़न-पकड़ाई शुरू! शिव आगे-आगे, भस्मासुर अपना वरदानी हाथ उठाकर शिव के पीछे-पीछे। शाखर से भागे शिव बचते-बचते निरमंड कस्बे के पास "देव-ढाक" की गुफा में घुसकर श्रीखंड कैलाश जा निकले। भस्मासुर भी उनके पीछे-पीछे श्रीखंड कैलाश के नीचे आती जगह "भीमद्वारी" तक पहुँच जाता है, तब भगवान विष्णु ने "मोहिनी" रूप धरकर भस्मासुर को अपनी अदाओं के रूप जाल और सुरा के नशे में ऐसा फांसा कि वह मोहित हो मोहिनी के साथ नृत्य करने को विवश हो गया....और मोहिनी ने छल से भस्मासुर से अपने नृत्य की नकल करवा कर, उसी का वरदानी हाथ उठवा कर उसी के सिर पर रखवा दिया और शिव से वरदान प्राप्त अपने हाथ से ही भस्मासुर खुद ही अपने-आप को भस्म कर बैठा...!!!
                    खैर, "शाखर" पर तीन दल बैठे थे...एक तरफ एक चट्टान पर तीन हंसते-मुस्कुराते दोस्त विराजमान थे, मैं भूल चुका हूँ कि वह कहाँ से थे। दूसरी तरफ आठ जन एक एक पंक्ति में बैठे थे, जिनमें से दो को छोड़ तीसरा दल छह नौजवानों का था....जिनमें एक  "चिलम"  घूम रही थी। शिव भोले की यात्रा और चिलम ना मिले, ऐसा कभी नहीं हो सकता...!!!
                  उनसे हुई बातचीत का सार निकलता है कि उन नौजवानों में से दो नौजवान अपनी उपलब्धि गिना रहे थे कि इस वर्ष की श्रीखंड कैलाश यात्रा शुरू होने से एक महीना पहले, वह सबसे पहले हैं जो श्रीखंड शिला तक जा पहुँचे।
                   शाखर से दूसरी तरफ पगडंडी एकदम से नीचे गिरती हुई दिखाई पड़ती है, यह उस कठिन पदयात्रा की पहली और आखिरी उतराई है। उतराई भी ऐसी कि अपने शरीर को इस पर रोकना भी मुश्किल सा हो जाता है, वापसी पर यह उतराई उल्टी हो जबरदस्त चढ़ाई का सबब बन जाती है।
                     तड़के से ही मेरे आगे-आगे चला नंदू यहाँ भी मुझसे पहले उतराई पर उतर जाता है। मैं शाखर पर रुक जाता हूँ, तांकि नीचे उतर रहे नंदू की फोटो खींच सकूँ। फिर शाखर पर बैठे सब यात्रियों को जय भोलेनाथ बोल, उस कुआँ नुमा उतराई में उतरने लग पड़ता हूँ।
                   पांच-सात मिनट बाद, नीचे उतर पीछे मुड़कर देखता हूँ तो शाखर से उतर आए उस रास्ते को देख रोमांच पैदा हो जाता है। सतलुज घाटी के पास खड़े पर्वतों पर कहीं-कहीं पड़ रही मनमौजी बादलों की छाया पर्वतों के रंगों से खेल रही थी.....यह दृश्य देख स्वप्नलोक सा आभास होता है मुझे!
                    रूखे-सूखे पर्वत पर घूमती-घूमाती पगडंडी अब मुझे दूर तक दिखाई पड़ने लगी, जिस पर अकेला नंदू ही भागा जा रहा था। जब कि मैं अपने शरीर को उस उतराई पर भागने से जबरदस्ती रोकता हुआ नीचे उतर रहा था।
                   सात बजने को हो लिये, ऊपर से देखता हूँ कि नंदू पगडंडी किनारे एक ऊँची चट्टान पर बैठ, मेरा इंतजार करते हुए वापसी की राह पर चले तीन जनों को रोक उनसे आगे की जानकारी ले रहा है। मेरे नीचे उतरते-उतरते वो तीन जन ऊपर की ओर चल देतें हैं। उनके पास पहुँच मैं जय भोलेनाथ का सम्बोधन कर पूछता हूँ- "भगतों कहाँ से...?"
                   "चण्डीगढ़।"
"कौन सा सेक्टर..?"
                   "छतबीड़ चिड़ियाघर के पास हमारा गाँव रामपुर है जी"   तीनों में सबसे पहले वाला नौजवान बोला। उन तीनों नौजवानों में दो नौजवानों का चेहरा-मोहरा, कद- काठी एक सी देख मैं बोलता हूँ- "आप दोनों तो भाई जान पड़ते हो।"  मेरी बात सुन उनके चेहरों पर मुस्कुराहट फैल जाती है और सबसे पीछे वाला नौजवान बोलता है- "हां जी, हम दोनों भाई ही हैं....यह अमन शर्मा और मैं रमन शर्मा और यह हमारा मित्र है राजेश।"
              "अच्छा जी, दर्शन हो गए...!" मैं औपचारिक रूप से पूछ लेता हूँ।
              "जी हां, कल हो गए थे।"
"तो, रात आप लोग गुफा में रुके होंगे" मैं पूछता हूँ।
               तभी राजेश जी एकदम से बोलते हैं- "नहीं, हम तो ऊपर ही फंस गए थे!!!"  यह सुन मेरे कान एकदम से खड़े हो जाते हैं, मैं नंदू को रुकने का इशारा करता हूँ।
           "क्या कहा आपने, ऊपर फंस गए...वो कैसे भाई?"
तब रमन जी ने नीचे की तरफ इशारा कर कहा- "वो जो दो महिलाएँ चली आ रही हैं, उनके भी पीछे जो बंदा धीरे-धीरे चला आ रहा है...उसे बचाने के चक्कर में हम तीनों ऊपर ही फंस गए...!"
                     मैं और नंदू एकदम से मुँह घुमा कर उस तरफ देखते हैं तो दूर पगडंडी पर एक बंदा मरता-गिरता सा धीरे-धीरे चला आ रहा था। मुँह पलट कर जैसे ही हमने फिर उन तीनों की तरफ किया तो रमन जी बोले- "दरअसल वह दोनों महिलाएँ तंगलिंग गाँव की हैं, हमें किन्नर कैलाश जाते हुए बीच रास्ते में मिली थी....तो हम इनके साथ-साथ परसो शाम तक गणेश पार्क पहुँच सीताराम के ढाबे पर रुक गए, हमें कल दर्शन कर वापस गणेश पार्क सीताराम के ढाबे पर रुकना था........"
                   रमन जी की बात बीच में काट कर मैं बोलता हूँ- "ओह हो, तभी कल रात सीताराम जी बार-बार अपने नौकर को कह रहे थे कि वो चण्डीगढ़ वाले लड़के वापस नहीं आए अभी तक.......उन्होंने हमारे तम्बू में आपके लिए जगह भी रख छोड़ी थी, अच्छा फिर आगे बताएं रमन जी।"
                   इतने में वो दोनों स्थानीय महिलाएँ भी हमारे पास आ रुकती हैं। रमन जी ने आगे बोलना आरंभ किया कि कल सुबह हम पांचों गणेश पार्क से इकट्ठे ही निकले थे किन्नर कैलाश जाने के लिए, तो रास्ते में हमें यह बंदा मिल गया.....यह अकेला ही किन्नर कैलाश की ओर चला जा रहा था। इसने हमें बताया कि इसके तीन साथी उसे बीच रास्ते में छोड़ कर वापस तंगलिंग की तरफ उतर गए, यह कहते हुए कि हमारे बस का नहीं है...!  तो यह बंदा अकेला ही ऊपर की ओर चढ़ आया, अब हमारा दल 6जनों का हो गया। दोपहर के बाद हम किन्नर कैलाश जा पहुँचे, जहाँ पहुँच इस बंदे को हाई एल्टीट्यूड सिकनेस का अटैक हो गया....इसे बेहोशी सी आनी शुरू हो गई, तो हमने इसे पकड़ कर नीचे उतराना चालू किया। इसकी वजह से हम इन दोनों महिलाओं से बिछुड़ गए, ये बहुत आगे निकल गई....क्योंकि इस बंदे ने हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाते हुए हमें कहा कि मुझे यहाँ अकेला छोड़कर मत जाओ, नहीं तो मेरी यहाँ मौत हो जाएगी! तो हम तीनों ने ठान लिया कि इंसानियत के नाते हमें इसकी मदद करनी है और इसे धीरे-धीरे कर नीचे उतार लेते हैं। इसी चक्कर में पार्वती कुण्ड से आगे पहुँचते ही हमें अंधेरे ने आ घेरा, और हम पगडंडी से भटक गए। बैटरियों की रौशनी में पगडंडी को फिर से खोजते रहे....नीचे गुफा के बाहर खड़े लोग हमें बैटरियों की रौशनी दिखाकर दिशा बताते रहे, परंतु जब भी हम उस ओर बढ़ते तो आगे खाई आ जाती। फिर हमने दो दल बनाकर बैटरियों की रौशनी में अलग-अलग दिशाओं में जाकर भी पगडंडी को ढूँढना चाहा, परंतु निराशा ही हाथ लगी। रात के 10बज गए, तो हमने पगडंडी को खोजना बंद कर....किसी ऐसी जगह को खोजना शुरू किया, जहाँ बैठकर हम रात काट सकें क्योंकि ठंड भी अब बढ़ने लगी थी। आखिर आधे-पौने घंटे की खोज के बाद हमें एक ऐसी चट्टान मिल जाती है जिसके नीचे हम चारों बैठ सकते थे। इस चट्टान के नीचे से हमने छोटे-बड़े पत्थर उठाकर समतल जगह बनाई, इस भागदौड़ में इस बंदे को बुखार चढ़ गया। खैर, हमारे पास दवाई और तीन सेब थे, वो सब कुछ हम चारों ने बांट खाया और उस चट्टान के नीचे हम चारों एक-दूसरे से जुड़ कर बैठ गए। नींद भी कहाँ आनी थी इतनी ठंड में, ऊपर से सारी रात पहाड़ टूट-टूट कर चट्टानें गिरने की डरावनी आवाज़ें कहाँ सोने देती है......गुफा से ऊपर जाते ही आप लोग भी ध्यान रखना वहाँ पहाड़ से चट्टाने टूट-टूट कर नीचे गिरती रहती हैं, यहाँ तक कि कल मैं बच गया नहीं तो यह सब आपको बताने योग्य भी नहीं रहता....!!!!!!
           "है, वो कैसे भाई...?"  मैं हैरानी से पूछता हूँ।
                          दरअसल जब हम किन्नर कैलाश से नीचे उतर रहे थे तो हमारे पीछे एक और दल उतर रहा था.... उनमें से एक लड़के का पैर फिसला और उसके फिसलने से पत्थर खिसक गए। एक पत्थर मेरे चेहरे के इतना करीब से निकला कि मेरे कान में सूँ की आवाज़ और चेहरे पर पत्थर से कटी हवा भी टकराई। मैं वहीं सुन्न खड़ा उस पत्थर रुपी मौत को खाई में गिरने तक देखता रहा और फिर ऊपर की ओर किन्नर कैलाश भगवान को देख हाथ जोड़ दिए कि आज तो तूने रख लिया भोलेनाथ...!!!!!
                
                      नीचे पगडंडी किनारे बैठ चुके उस बंदे की तरफ इशारा कर मैं कहता हूँ- "आपको तो भोलेनाथ ने रखना ही था, क्योंकि आपके द्वारा ही वह अपने इस भगत को रख रहा है जो अकेला ही चला जा रहा था उसकी चौखट पर, रमन जी...!!!"      यह कहकर मैं हर-हर- महादेव का उद्घोष कर नीचे की तरफ चल देता हूँ।
                     पांच-सात मिनट बाद ही हम उस बंदे के पास जा पहुँचतें हैं, उसकी हिम्मत की दाद देते हुए उसका नाम पूछता हूँ जो अब मुझे याद नहीं रहा....हां वह भी चण्डीगढ़ वासी ही निकला। नंदू को कहता हूँ कि इस बंदे को कुछ खाने को दे दो क्योंकि कल से यह भूखा भी है। नंदू अपने रक्सैक उतार उसमें से बिस्कुट का पैकेट निकाल, उसे देता है....तो उस बंदे के मुरझाए चेहरे पर एक दम से ताज़गी का भाव उभर आता है।
                   मेरे पाठक दोस्तों, घुमक्कड़ी के दौरान हम असंख्य नए लोगों से मिलते हैं.....पर यदि हमें कोई ऐसा बंदा मिले, जो आपको सोशल मीडिया पर जानता हो परंतु पहचान ना पाये और आप भी उसे ना पहचान पायें।
                  तो, मेरे साथ भी इस यात्रा पर यह घटना घटी, हुआ कुछ यूं कि किन्नर कैलाश यात्रा से वापस तंगलिंग आकर अपनी फेसबुक प्रोफाइल पर अपडेट डालता हूँ तो एक कमेंट आता है- "जय भोलेनाथ सर जी, हम ट्रैक पर मिले थे जब आप ऊपर जा रहे थे...!"
                  यह कमेंट चंडीगढ़ वाले रमन शर्मा जी का था। यह पढ़ एक बार तो मैं चक्कर खा गया, यह कैसे हो गया... रमन जी फेसबुक पर मुझे काफी समय से फॉलो कर रहे हैं और मेरे ब्लॉग के नियमित पाठक हैं। मैं उनसे बातें करता रहा, पर हम दोनों ही एक दूसरे को पहचान ना सके। हम दोनों को ही इस बात पर बहुत अफसोस हुआ।
                 रमन जी के अनुसार वो मुझे इसलिए नहीं पहचान पाए कि मैंने तब अपनी लुक बदल ली थी, बड़ी- बड़ी मूछें जो रख ली है। रमन जी कहते हैं कि जब आप हमसे बातचीत कर नीचे की तरफ उतरे तो आपकी रक्सैक पर बंधी घंटी देख, एक बार मन में यह ख्याल आया भी कि ऐसी घंटी तो विकास नारदा अपनी रक्सैक पर बांध कर चलता है....और, फिर तंगलिंग वापस आकर जब आपकी एर्टिगा गाड़ी खड़ी देखी तो फिर दिमाग में खटका कि विकास नारदा भी तो अपनी एर्टिगा गाड़ी ले घूमता है....और जब कुछ समय बाद फेसबुक खोली, तो आप प्रकट हो गए।

                 क्या आपके साथ भी कभी ऐसा कुछ घटित हुआ है कि कोई फेसबुक मित्र आपसे इस प्रकार मिला हो, मुझे जरूर बताना दोस्तों।
                 अच्छा, एक और घटना की आपसे चर्चा करना चाहता हूँ कि "सतिंदर वैद्य"  मेरे फेसबुक मित्र व मेरे लेखन के प्रशंसक है.....तो एक दिन में घूमता-घुमाता अपने शहर गढ़शंकर से 35किलोमीटर दूर संतोषगढ़ (हिमाचल प्रदेश) के पास में उनकी आटा चक्की पर पहुँच, शुगल-मेले में उन्हें कहने लगा कि मेरे पास 100बोरी देसी मक्की है, मुझे वह आपको बेचनी है...!
                 सतिंदर वैद्य जी इतनी ज्यादा मक्की बेचने के लिए मुझे अपने गाँव के लाला का नाम बताने लगे। मैं उनसे घुमा-फिरा कर दस मिनट बातें करता रहा, पर वह मुझे पहचान ना सके। चलते-चलते मैंने पलट कर हंसते हुए कहा- "वैद्य साहब, मैं विकास नारदा हूँ....!"
                और, सतिंदर वैद्य जी की खुशी सातवें आसमान पर।
                                                  ( क्रमश:)
                     


अपने फीते-नाले-बेल्टें बांधते-कसते हमें आधा-पौना घंटा बीत ही गया, आखिर सवा चार बजे हमने किन्नर कैलाश की ओर पहला कदम बढ़ा ही दिया....अंधेरा इतना कि हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा था।

 नंदू पगडंडी की दूसरी तरफ बैटरी की रौशनी करता है तो एक छोटी सी झोपड़ीनुमा छत पर लाल झंडा नज़र आता है, निश्चित है यह मंदिर ही होगा। पास पहुँच देखते हैं कि आशा के अनुरूप ही उस छोटे से मंदिर में भोलेनाथ विराजमान है, हमारे हाथ खुद-ब-खुद जुड़ जाते हैं।

पहली ही नज़र में, मैं उस पार दिख रहे नज़ारे को पहचान लेता हूँ। उस हल्के से अंधेरे में सामने दिख रहे पर्वत की बनावट देख खुशी से चहकता हुआ बच्चों सा उत्साहित को बोलता हूँ- "नंदू, वो देख सामने किन्नर कैलाश शिला" और मेरे हाथ जुड़ जाते हैं। 

शिला की पृष्ठभूमि में आसमान का रंग नीला होना आरंभ हो चला था। यह देख नंदू को एकाएक कहता हूँ- "याद आया, जब मैंने पिछली बार कल्पा से किन्नर कैलाश को देखा था....तो वहाँ एक बुजुर्ग से हुई बातचीत में उन्होंने मुझे बताया था कि किन्नर कैलाश शिला दिन में कई रंग बदलती है।" 

पांच-सात मिनट बाद वह नीलिमा सारे आसमान में फैल गई, पर पर्वत अभी भी अंधेरे में ही थे।

साढे पांच बजे इतना प्रकाश आ फैला कि हमारी बैटरियाँ नकारा साबित हो गई।

पर्वतों पर पड़ा अंधेरे का काला रंग अब हरा दिखाई पड़ने लगा।
                                       
 सूर्यादय होने से पहले ही उसकी दीप्ति तमाम अंधेरी घाटियों में पहुँच उन्हें उज्जवलित करती जा रही है। बादलों का आवारापन फिर से अब दिखाई पड़ने लगा, कभी वो इस शिखर तो कभी उस शिखर की ख़बर-सार लेने पहुँच जाते।

आवारा बादल कभी सामने दिख रही किन्नर कैलाश शिला को मेरी आँखों से ओझल कर देते, तो कभी उन बादलों में केवल किन्नर कैलाश शिला ही नज़र आती।


पीछे मुड़ देखता हूँ तो मलिंगखट्टा उग रहे दिन की प्रथम रौशनी में नहा रहा है, हम उससे काफी ऊपर चढ़ आए हैं....फॉरेस्ट शेड और सीताराम जी का ढाबा अब स्पष्ट दिखाई पड़ने लगा।

"बाटूसकार पर्वत" के बगल से दिख रहे "रंगकूम्मो पर्वत" शिखर की धौली-धार भी उग रहे दिन का प्रकाश पा चमकने लगी।
                                       
 पौने छह बज रहे थे और हम चलते-चलते उस जगह पर पहुँचते हैं, जहाँ पगडंडी किनारे छोटी-बड़ी चट्टानों को चिनकर स्तम्भ नुमा कुछ बनाया गया है...यह रास्ते का दिशा चिन्ह ही हो सकता है।

 यहाँ पहुँच तुंगमापी घड़ी पर नज़र डालता हूँ....तो हम 3795मीटर की ऊँचाई को प्राप्त हो चले थे, मतलब पहले डेढ़ घंटे में ही हम मलिंगखट्टा गणेश पार्क से 275मीटर की ऊँचाई तक आ पहुँचे हैं। 

ले, खींच मेरी फोटू.....नंदू!

कल सुबह जब से हमने तंगलिंग से किन्नर कैलाश ट्रैक को आरंभ किया है, कहीं भी हमें उतराई नहीं मिली....बढ़ता चला जा रहा प्रत्येक कदम चढ़ाई पर ही पड़ता जा रहा था।

सतलुज घाटी के पार के एक पर्वत शिखर पर पड़ती सूरज की पहली किरण।

आगे-आगे नंदू.....और मैं हमेशा की तरह पीछे-पीछे!

सूर्यादय का स्वर्ण मुकुट हमें सतलुज घाटी के पार दूर दिखाई पड़ रही पर्वत श्रृंखला के सिर चढ़ा नज़र आने लगता है, क्या खूबसूरत नज़ारा था वो!

"शाखर" पर तीन दल बैठे थे...एक तरफ एक चट्टान पर तीन हंसते-मुस्कुराते दोस्त विराजमान थे, मैं भूल चुका हूँ कि वह कहाँ से थे।

दूसरी तरफ आठ जन एक एक पंक्ति में बैठे थे, जिनमें से दो को छोड़ तीसरा दल छह नौजवानों का था....जिनमें एक  "चिलम"  घूम रही थी। शिव भोले की यात्रा और चिलम ना मिले, ऐसा कभी नहीं हो सकता...!!!

यहाँ पहुँच सबसे पहले अपनी तुंगमापी घड़ी की शरण में जाता हूँ, 3900मीटर समय साढे छह बजे का.....मतलब पिछले आधे घंटे में हम 100मीटर और ज्यादा चढ़ आए हैं। 

   इनसे हुई बातचीत का सार निकलता है कि इन नौजवानों में से ये दो नौजवान अपनी उपलब्धि गिना रहे थे कि इस वर्ष की श्रीखंड कैलाश यात्रा शुरू होने से एक महीना पहले, वह सबसे पहले हैं जो श्रीखंड शिला तक जा पहुँचे। 

शाखर से दूसरी तरफ पगडंडी एकदम से नीचे गिरती हुई दिखाई पड़ती है, यह उस कठिन पदयात्रा की पहली और आखिरी उतराई है। 

पांच-सात मिनट बाद, नीचे उतर पीछे मुड़कर देखता हूँ तो शाखर से उतर आए उस रास्ते को देख रोमांच पैदा हो जाता है। इस चित्र में शाखर पर खड़े यात्रियों को देखें।

सतलुज घाटी के पास खड़े पर्वतों पर कहीं-कहीं पड़ रही मनमौजी बादलों की छाया पर्वतों के रंगों से खेल रही थी.....यह दृश्य देख स्वप्नलोक सा आभास होता है मुझे!

एक और नज़र डालो दोस्तों, स्वप्नलोक पर!

रूखे-सूखे पर्वत पर घूमती-घूमाती पगडंडी अब मुझे दूर तक दिखाई पड़ने लगी, जिस पर अकेला नंदू ही भागा जा रहा था। जब कि मैं अपने शरीर को उस उतराई पर भागने से जबरदस्ती रोकता हुआ नीचे उतर रहा था।

पीछे मुड़कर देखता हूँ।

सात बजने को हो लिये, ऊपर से देखता हूँ कि नंदू पगडंडी किनारे एक ऊँची चट्टान पर बैठ, मेरा इंतजार करते हुए वापसी की राह पर चले तीन जनों को रोक उनसे आगे की जानकारी ले रहा है। 

उन तीनों नौजवानों में दो नौजवानों का चेहरा-मोहरा, कद- काठी एक सी देख मैं बोलता हूँ- "आप दोनों तो भाई जान पड़ते हो।"  मेरी बात सुन उनके चेहरों पर मुस्कुराहट फैल जाती है और सबसे पीछे वाला नौजवान बोलता है- "हां जी, हम दोनों भाई ही हैं....यह अमन शर्मा और मैं रमन शर्मा और यह हमारा मित्र है राजेश।"  (गले में "केसरिया परने" वाले रमन जी हैं)

इनके दल में तंगलिंग गाँव की महिलाएँ।

  पांच-सात मिनट बाद ही हम उस बंदे के पास जा पहुँचतें हैं, उसकी हिम्मत की दाद देते हुए उसका नाम पूछता हूँ जो अब मुझे याद नहीं रहा....हां वह भी चण्डीगढ़ वासी ही निकला। नंदू को कहता हूँ कि इस बंदे को कुछ खाने को दे दो क्योंकि कल से यह भूखा भी है। नंदू अपने रक्सैक उतार उसमें से बिस्कुट का पैकेट निकाल, उसे देता है....तो उस बंदे के मुरझाए चेहरे पर एक दम से ताज़गी का भाव उभर आता है।

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रविवार, 5 जुलाई 2020

भाग-7 "मेरी किन्नर कैलाश यात्रा" (Kinner Kailash Yatra)

भाग-7 "मेरी किन्नर कैलाश यात्रा"

इस यात्रा को आरंभ से पढ़ने का http://vikasnarda.blogspot.com/2020/05/blog-post.html?m=1यंत्र स्पर्श करें।

                        "परेशानियों का गठ्ठर"


           तीन बच्चे, वो भी अकेले....मतलब घर से भागकर किन्नर कैलाश के खतरनाक रास्ते पर अग्रसर,  जब हमारे पास से गुज़रने लगे तो सीताराम जी उनसे पूछते हैं- "कहाँ जा रहे हो...?"
                     तो उन तीनों बच्चों में सबसे आगे चलने वाला उनका साँवला सा लीडर....जो शक्लोसूरत से ही प्रवासी जान पड़ता था, बड़े आत्मविश्वास से बोला- "शिवलिंग"  और उसके पीछे वाले दोनों लड़कों का चेहरा- मोहरा नेपाली था।
       "घर से भाग कर चले हो किन्नर कैलाश..!!" सीताराम जी गरजे।
                    "नहीं अंकल" कहते हुए वो लड़का अपने दोनों साथियों को चलते रहने का इशारा करता हुआ आगे बढ़ता रहा। सीताराम जी फिर ऊँची आवाज़ में बोले-"क्यों झूठ बोल रहे हो तुम लोग, घर वालों को बगैर बताए आए हो...!!"  वो तीनों "नहीं-नहीं" करते हुए हम से पीछा छुड़ाने के लिए अपने कदम आगे ही आगे बढ़ाते जा रहे थे।
                       तभी मैं पत्थर से उठ खड़ा हो, रोब से अपनी मूँछों को ताव देता झूठ-मूठ बोलता हूँ- "ओए, मैं पुलिस में हूँ....सब सच निकलवा लूँगा, रुक जाओ वहीं पर.....आगे नहीं बढ़ना, नहीं तो!!!"
                      और, वे बच्चे एकदम से वहीं ठिठक गए, दोनों नेपाली बच्चों के चेहरे पर भय की लकीरें उभर चुकी थी.....परंतु उनका लीडर मुझे भाव-शून्य चेहरे से लगातार देखता रहा। मैं उनके पास पहुँच फिर वही बात दोहराता हूँ तो वह लड़का भी वही 'ना' का उत्तर दोहरा देता है। मैं उन्हें पकड़ कर थाने ले जाने की धमकी देता हूँ, परंतु उन पर मेरी धमकी का कोई भी असर नहीं पड़ता....वे अपनी बात पर अडिग हैं, जैसे कोई शक्ति उनमें से बोल रही हो...! दूसरे पल मैं अपनी जुबान को मीठा बना, उनके नाम पूछता हूँ जिनमें से दो के नाम तो मैं भूल चुका हूँ.... हां एक नेपाली लड़के का नाम याद आ रहा है  "अभिषेक"
                      मैं विषय बदल उनसे पूछता हूँ- "आज तो तुम लोग नहीं पहुँच पाओगे शिवलिंग तक, तो यहीं मेरे पास रुक जाओ....मैं भी किन्नर कैलाश जा रहा हूँ, कल सुबह मेरे साथ चल देना।"
                      परंतु उनका लीडर लड़का मेरी तरफ अविश्वास से देखता रहा और उन्हें कुहनी मार-मार कर चलते रहने का इशारा करता रहा। मैं उनके साथ पांच-दस कदम चला भी,  परंतु उनकी बेरुखी देख मेरे कदम खुद-ब-खुद रुक जाते हैं। मैं बेबसी भरी परेशान नज़रों से कभी सीताराम जी की तरफ देखता हूँ तो कभी मुझसे दूर जा रहे उन तीन बच्चों की पीठों को।
                     एक बार दिमाग में आया कि भाग कर इन तीनों को जा पकड़ूँ....ना जाने दूँ इनको "मौत के जबाड़े" में,  पर दूसरे क्षण ही मन ने मुझे ढांढस बंधाया कि तू कौन है उन्हें जबरदस्ती रोकने वाला, मत भूल जहाँ शिव का वास है "कैलाश"......वहाँ कुछ भी असाधारण व असंभव हो सकता है।
                      तभी सीताराम जी पीछे से बोले- "ये अब  जाकर गुफा में रुकेंगे।"  मैं ठंडी आह भर कर सीताराम जी के पास आ बैठता हूँ। पर मेरा ध्यान उन तीनों बच्चों में ही फंसा हुआ है। कुछ मिनट बाद वे मेरी आँखों से ओझल तो हो जाते हैं, पर दिमाग में उनकी छवि घर कर चुकी है..... खासकर उस भोले-भाले से दिखने वाले नेपाली लड़के "अभिषेक" की, जिसने अपनी पीठ पर स्कूल बैग टांग रखा था और दो-तीन मिनट की हमारी मुलाकात में उसने एक शब्द भी नहीं बोला था और वो सावले रंग का उनका लीडर प्रवासी लड़का व्यवहार और शक्लोसूरत से ही तेज़-तरार शैतानी दिमाग जान पड़ता था, वह ही अपने से छोटे उन दोनों नेपाली लड़कों को बरगला कर अपने साथ लाया होगा.....हो सकता है कि इनके मां-बाप मजदूर हो और किसी जगह इकट्ठा काम करते हो।
                    अपने-आप को थामने के लिए मैं उठकर फिर से चारों दिशाओं के चित्र खींचने में मगन हो जाता हूँ। शाम के 6बज चुके हैं, सूर्यदेव अपनी सुनहरी किरणों को समेटने लग पड़े हैं। खैर फिर से मुख्यधारा में लौट आता हूँ और सीताराम जी के समक्ष अपनी मानसिक प्रश्नावली के अगले प्रश्न को खोलता हूँ- "तो, आपका यह ढाबा कब से है यहाँ पर..?"
                  सीताराम जी हल्का सा मुस्कुराते हुए बोलते हैं- "बस इसी साल ही शुरू किया है मैंने, मेरा बेटा 'जीत सिंह' भी साथ होता है....वो अभी गाँव गया है, उसका ऊपर-नीचे आना-जाना लगा रहता है राशन सामग्री आदि लाने-ले जाने में।"
                "कौन सा गाँव है आपका...?"
         "यहीं नीचे की तरफ कंगरिंग से ऊपर कुछ घरों का मेरा गाँव है, तालंगपी"
                "तो फिर गणेश पार्क में कब से ढाबे लग रहे हैं, यात्रा के दौरान...?" मेरा सवाल।
        "यह कोई दो-तीन साल पहले से जब 2013 में फॉरेस्ट वालों ने कंगरिंग गाँव से ऊपर इस रास्ते को चौड़ा किया और यहाँ गणेश पार्क में फॉरेस्ट शेड बनाई।"
                 "तो उससे पहले इस यात्रा में क्या प्रबंध होता था..?"
          "पहली बात तो यह कि उस समय इस यात्रा पर केवल स्थानीय लोग ही जाया करते थे और यहाँ पहाड़ पर भेड़ बकरी चराने वाले 'पुआल' (गडरिये) उनके चाय-नाश्ते का प्रबंध कर, उन दिनों में कुछ कमाई कर लेते थे।"
                            फ़ॉरेस्ट वालों की बात आते ही मैंने सीताराम जी से पूछा- "यहाँ ढाबे लगाने पर फ़ॉरेस्ट वाले आप को रोकते नहीं क्या...?"
            "वो हमें क्यों रोकेंगे, क्योंकि यह हमारी अपनी निजी जमीन है.....जितने भी ढाबे लगते हैं सबकी अपनी- अपनी पुश्तैनी जायदाद है यहाँ पर....और हमने फ़ॉरेस्ट वालों से लाइसेंस बना कर ही यहाँ अपनी जमीनों पर ढाबे बनाए हैं....उस समय जब यह किन्नौर क्षेत्र एक बंद दुनिया हुआ करती थी, तब हमारे पूर्वज अप्रैल महीने में इस जगह पर अपनी भेड़-बकरी ले आते और यहाँ खेती करते आलू, शलगम, फाफड़ा-औखला की फसलें उगाते और अक्तूबर महीने में फिर से नीचे उतर जाते।"
                        जमीन-जायदाद सुन, मैं सीताराम जी से पूछता हूँ कि क्या आप राजपूत हो...?
                       सीताराम जी बोले- "दरअसल प्राचीन काल से ही किन्नौर में कोई राजपूत-ब्राह्मण जाति नहीं है, यहाँ सिर्फ तीन वर्ण ही हैं...मंगोलिया से आई खश जनजाति, दूसरे कारीगर और तीसरे हरिजन...हम कारीगर वर्ण के सोई खानदान से हैं, हमारे बुजुर्ग कपड़े सिलने का काम करते थे और वह यहाँ के मूल निवासी भी नहीं थे, हम मैदानी इलाकों से यहाँ आ बसे है।"
                      सीताराम जी की बात सुन मैं कहता हूँ- "हां जी, पुराने समय में ऐसे ही होता था हर गाँव में कारीगर बाहर से लाकर बसाये जाते थे और यह भी हो सकता है कि औरंगजेब की कट्टर खूनी तलवार से अपने धर्म की रक्षा करते हुए बहुत सारे मैदानी लोग पलायन कर इन पहाड़ों में आ छिप गए और यहीं बस गए।"
                   अपनी प्रश्नावली के अगले उस प्रश्न को मैं ज़रा संकोच रख सीताराम जी से पूछ ही लेता हूँ कि क्या अब भी यहाँ "बहुपति प्रथा" है यानी पांडव विवाह या द्रोपदीवाद...?
                  "नहीं अब तो समय बहुत बदल गया है...ऐसा बहुत कम ही होता है, युवा पीढ़ि पढ़ लिखकर बड़े-बड़े शहरों में जाकर काम-धंधे करने लगी है।"
                 "फिर भी क्या आपने अपनी आँखों से इस पांडव विवाह प्रथा को देखा है...?"
                  "मेरे गाँव में कोई आठ-दस साल पहले दो भाईयों के साथ एक लड़की ब्याही आई थी!" सीताराम जी बोले।
                   "अच्छा एक बात मुझे और बताएँ सीताराम जी, कि क्या मणिमहेश की तरह यहाँ किन्नर कैलाश में भी बलि चढ़ती है और क्या तंगलिंग गाँव का देवता भी किन्नर कैलाश माथा टेकने आता है यात्रा के दौरान..?"
                   सीताराम का जवाब- "पहली बात तो यह है कि तंगलिंग का देवता 'परका शंकरस' और किन्नर कैलाश एक ही देव हैं.......और यह देव बलि नहीं लेता, चाहे मंदिर में या किन्नर कैलाश पर....बस वहाँ नारियल चढ़ता है।"
                  "तो 'परका शंकरस' भगवान शिव ही हैं परंतु यह कैसा नाम परका शंकरस...?" मेरा सवाल।
              "यह नाम तो सदियों से चला आ रहा है, जब यह सारा इलाका आदिवासी था....उनकी अपनी बोली हुआ करती होगी और उनको क्या पता होगा कि यह शंकर भगवान है, यह तो बाद में पता चला होगा कि परका शंकरस और भगवान शंकर एक ही हैं.....और जो किन्नर कैलाश ना जा पाए, वो परका शंकरस के मंदिर में माथा टेक ले, उसे यात्रा का पुण्य प्राप्त हो जाता है।"
               "मैंने एक और बात सुनी थी कि यात्रा के दौरान यात्रियों को अनिवार्य कर दिया जाता है कि वे तंगलिंग गाँव में परका शंकरस के मंदिर में अपनी हाज़िरी लगवा कर ही किन्नर कैलाश जाएँ.....हाज़िरी से मेरा मतलब है चंदा, सीताराम जी...!!"
              मेरी यह बात सुन सीताराम जी ज़रा सा आवेश में बोले- "आप जिसे यात्रा कह रहे हैं हम उसे भंडारा कहतें हैं और मैं तंगलिंग मंदिर विकास कमेटी का सेक्रेटरी भी हूँ.... भंडारे के समय जब श्रद्धालु किन्नर कैलाश माथा टेकने जाते हैं, तो पार्वती कुंड में पैसे फैंक देते हैं....या किन्नर कैलाश शिला पर चढ़ा देते हैं, जो तेज़ हवाओं और चोरों के हत्थे चढ़ जाता है....पानी में फैंका पैसा भी व्यर्थ जाता है, भौगोलिक कारणों से पार्वती कुंड या किन्नर कैलाश पर कोई भी निर्माण नहीं हो सकता तो हमारी कमेटी ने मंदिर में एक गोलक लगा रखी है कि यात्री वही पैसा उसमें डालें, तांकि मंदिर के विकास में काम आ सके।"
                      सीताराम जी की बात का मैं समर्थन करता हुआ कहता हूँ- "यह भी ठीक है, वैसे परका शंकरस का सालाना मेला भी तो होता होगा, वह कब मनाते हैं...?"
           "हर साल 12 व 13 जून और मेले को हम लोग 'डखरेन' बोलते हैं यहाँ पर।" सीताराम जी बोले।
                     सीताराम जी से बतियाते-बतियाते पौना घंटा बीत चला था.....गणेश पार्क पर पानी की उपलब्धता के विषय में पूछता हूँ तो वह कहते हैं कि इस पर्वत के शिखर पर पूरी बर्फ पिघल जाने के कारण अब हमें काफी गहराई में नीचे उतर कर एक छोटे से जल स्रोत से पानी भर, ऊपर ढों कर लाना पड़ता है।
                      "वैसे गणेश पार्क वाले इस पर्वत का क्या नाम है सीताराम जी...?"
               "बाटूसकार पर्वत "
और लगे हाथ मैने उनसे पूछा- "तो, जिस पर्वत पर किन्नर कैलाश शिला है उसका भी नाम बताए सीताराम जी..?"
               "इंद्रकील पर्वत"
सीताराम जी से अपने मन मुताबिक जानकारियाँ पा कर मेरा मन तृप्त हो चला था, मैं बैठा-बैठा अपनी बायीं तरफ खड़े रंगकूम्मो पर्वत पर फिर नज़र दौड़ाता हूँ....सूर्यास्त की जाती किरणें अब शिखरों तक खिंच चुकी हैं, पर्वतों के शरीरों की हरियाली स्याह रंग में रंगती जा रही है। धूप में हसीन नज़र आने वाले पहाड़ों पर अब क्षण-दर-क्षण अंधेरे की रहस्यमय परत चढ़ती जा रही थी।
                    सीताराम जी मुझसे पूछते हैं कि क्या मैं रात के खाने में आपके लिए सोयाबीन बड़ियों की सब्जी बना दूँ.....तो मैं चहक कर कहता हूँ सोयाबीन की बड़ियाँ तो मैं हर रोज़ खा सकता हूँ जी...!
                     सीताराम जी अपने नेपाली नौकर को साथ ले रसोई की तरफ चल देते हैं, पर मैं अभी भी एकांत में उसी पत्थर पर बैठा सामने दिख रहे रिकांगपिओ को एकटक देख रहा था, जहाँ अब बत्तियाँ जगनी शुरू हो चली थी। दिमाग में फिर से उन तीन बच्चों की चिंता जाग उठी है, बदहवासी में एकदम उठ कर उस दिशा की ओर देखता हूँ जिस ओर वह तीनों बच्चे किन्नर कैलाश की ओर गए थे। उस ओर पूरा अंधेरा हो चुका है, मन में अजीब-अजीब से ख़्याल आने लग पड़े कि वो तीनों बच्चे इस अंधेरे में चले जा रहे होंगे, कहाँ तक पहुँचे होंगे, क्या वह तीनों ठीक-ठाक भी हैं, मुझे हर कीमत पर उन तीनों को अकेले आगे नहीं जाने देना चाहिए था। बार-बार मुड़ कर उस ओर देखता हूँ कि कोई यात्री किन्नर कैलाश से वापस आता दिखाई पड़े तो उससे उन तीनों बच्चों का हाल जानूँ....फिर एकदम से विचार उत्पन्न हुआ कि क्या तू अपने बेटे को ऐसे आगे भेज सकता है क्या, मुझे खुद पर ही गुस्सा आने लगता है....पछतावा होने लगता है कि यदि कुछ अनहोनी हो गई तो शायद मैं भावुक आदमी अपने-आप को ही दोषी मानने लगूँ.....यह सोचते-सोचते मैं वापस तम्बू(टैंट) में पहुँच जाता हूँ।
                       नंदू अभी भी बाहर की दीन-दुनिया से बेख़बर लेटा हुआ ही है, उसे उठाकर घर से भागकर किन्नर कैलाश आए उन तीनों बच्चों की ख़बर सुनाता हूँ। नंदू भी यह ख़बर सुन हैरान है, अब मैं भी नंदू के साथ लेट जाता हूँ।
                      तम्बू में सोलर लाइट जल चुकी है, मैं लेटे-लेटे उस मध्यम सफेद रोशनी वाली टयूब की तरफ देख रहा हूँ जिस पर नन्हें-नन्हें कीट अपने पंख रगड़ रहे थे....मन को फिर से वही अजीब परेशानी परेशान करने लगी कि जाने उन बच्चों के साथ क्या घट रहा होगा। सोचते-सोचते मेरी आँखें बंद हो जाती हैं, कम्बलों की गर्माहट मेरे थके शरीर को आराम पहुँचा रही थी और कुछ समय बाद दिमाग भी सोचना बंद कर देता है....मुझे नींद आ जाती है।
                       सीताराम जी के नेपाली नौकर की पुकार पर नींद टूटती है, वह हमारे लिए गर्मागर्म भोजन परोस जाता है। लेटे-लेटे ही मैं अपनी घड़ी पर नज़र दौड़ाता हूँ, समय 9बज चुके थे और टैंट के अंदर का तापमान 10डिग्री।
                       मैं और नंदू कम्बल ओढ़े ही भोजन की वंदना में जुट जाते हैं, आलू-सोयाबीन बड़ियों की तरीदार सब्जी और कनक के फुलके....मज़ा आ गया!
                      खाना खाकर हाथ धोने के लिए बाहर क्या आता हूँ कि फिर से अकेला टहलता हुआ उसी पत्थर पर जा बैठ,  नीचे दिख रही रिकांगपिओ-कल्पा की बत्तियों को निहारने लग पड़ता हूँ। हवा में ठंड की गंध आ रही थी, नाक ठंडा होकर कुछ-कुछ बहने लग पड़ा था...पर फिर भी मुझे वह ठंड बहुत भा रही थी। अपना "गधा मोबाइल सेट" निकाल घरवालों को फोन कर अपनी सलामती का पैगाम भी देता हूँ।
                   एकांत अब मुझे पुन: उन तीनों बच्चों की याद दिला देता है, फिर से ना जाने क्या-क्या सोचने लग पड़ता पड़ता हूँ। 10बजने को हो रहे थे कि मुझे किन्नर कैलाश की ओर से आ रही पगडंडी पर से कुछ आवाज़ें मेरी तरफ आती हुई सुनाई देने लगी। मैं उत्सुकता से उस ओर देखने लग पड़ता हूँ......और कुछ समय बाद ढाबे की रोशनी के घेरे में जब वे आवाजें आ पहुँची,  तो देखता हूँ कि वह तीन नवयुवक हैं। मेरा दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगता है, और बेसब्र हो उनसे उन तीनों बच्चों के विषय में पूछता हूँ............

              मेरे पाठक दोस्तों, चाहता तो इस पंक्ति के साथ ही इस किश्त का अंत कर देता....फिर से एक नया सस्पेंस छोड़ जाता आपके लिए!  परंतु मैं भुगत-भोगी रहा हूँ, मैंने उस वक्त इस परेशानी के गठ्ठर को चंद घंटों के लिए अपने सिर पर उठाया था....तो मेरा क्या हाल हुआ था। सो मैं आप पर इस परेशानी का गठ्ठर नहीं लादना चाहता, ना जाने कितने दिनों तक आपको इस परेशानी का गठ्ठर, अगली किश्त लिखने तक ढोना पड़े...!!!

              ............तो वो तीनों नवयुवक खुश हो एक ही आवाज़ में बोलते हैं- "हम उन्हें वापस ले आए हैं, ऊपर फॉरेस्ट शेड में हैं।"
                      मेरी खुशी की सीमा नहीं रहती जैसे परेशानियों का गठ्ठर मेरे सिर से उतर गया हो। मैं तन-मन- दिमाग से अपने-आप को बहुत हल्का महसूस करता हूँ। वह तीनों नवयुवक सीताराम जी की रसोई की तरफ बढ़ जाते हैं। मैं तापमान नापने के लिए चट्टान पर रखी अपनी घड़ी को देख पहन लेता हूँ, रात 10बजे का तापमान 8डिग्री!
                        वे तीनों नवयुवक सीताराम जी की रसोई में बैठे खाना खा रहे थे तो मैं उनसे पूछता हूँ कि क्या उन बच्चों के पास कुछ खाने-पीने का सामान है कि नहीं, तो वे बोले कि उन बच्चों के पास खाने-पीने का पूरा इंतजाम है.......और वे तीनों नवयुवक खाना खाने के बाद सीताराम जी से कम्बल किराए पर लेकर, वापस फॉरेस्ट शेड पर चले जाते हैं।
                       मैं रसोई के बर्तन संभाल रहे सीताराम जी के पास बैठ जाता हूँ, वह मेरे लिए सूखे दूध की चाय बना रहे हैं। सीताराम जी भी उन तीनों बच्चों की ख़बर जानकर सुख की साँस ले रहे थे। चाय पीने के बाद सीताराम जी का सारा हिसाब उसी वक्त चुकता कर देता हूँ क्योंकि हमें आधी रात के बाद ही किन्नर कैलाश के लिए चल देना था।
                      तम्बू में वापस आ कम्बलों में दुबके पड़े नंदू को उन बच्चों की "सुख-ख़बर" देता हूँ। अपनी रक्सैक से पावर बैंक निकालकर अपना एंड्रॉयड फोन उसके साथ जोड़ देता हूँ। पावर बैंक देख नंदू भी अपना फोन उस पावर बैंक के साथ जुड़ना चाहता है तो उसे कहता हूँ- "देख नंदू मेरा कैमरा खराब होने की वजह से फोटो खींचने का सारा काम मेरा यह एंड्रॉयड मोबाइल ही कर रहा है....और इस पावर बैंक की चार्जिंग को मुझे अपने इस मोबाइल के लिए बचा कर रखना है कि इस यात्रा के अंत तक की भी फोटो खींचता रहूँ।"   फिर मन ही मन बोलता हूँ- "तू अपना फोन इसलिए चार्ज करना चाहता है नंदू कि कल किन्नर कैलाश जाते हुए भी तू अपनी दुकान के सूट बेचता रहे...!"
                    लेटते ही दिन भर के घटनाक्रम के विचारों की रेलगाड़ी दिमाग की पटरी पर भागने लगती है। सब कुछ सोचने के बाद एक विचार पर मेरी सोच केंद्रित हो जाती है, "बहुपति प्रथा" पर।  सोचने लग पड़ता हूँ कि क्या उस समय द्रोपदी चाहती थी कि उसके पांच पति हो, जबकि उसने तो केवल अर्जुन से विवाह किया था....और किन्नरों के इस देश किन्नौर में कोई लड़की मन से चाहती थी या होगी कि सदियों से चली आ रही इस बहुपति प्रथा को वह स्वेच्छा से निभा सके...!!!
                                          (क्रमश:)
              


घर से भाग किन्नर कैलाश जा रहे वो तीनों बच्चे।
                                           
इनमें से दो के नाम तो मैं भूल चुका हूँ.... हां मध्य में खड़े इस नेपाली लड़के का नाम याद आ रहा है  "अभिषेक"

अपने-आप को थामने के लिए मैं उठकर फिर से चारों दिशाओं के चित्र खींचने में मगन हो जाता हूँ। शाम के 6बज चुके हैं, सूर्यदेव अपनी सुनहरी किरणों को समेटने लग पड़े थे। 

रंगकूम्मो पर्वत के साथ का दृश्य।

नीचे दिख रहे नीले व सफेद रंग गणेश पार्क में बने ढाबों की छतें हैं दोस्तों।

उस ढाबे का एक जूम चित्र।

उस ढाबे के साथ भेड़-बकरी रखने वाला बाड़ा भी दिखाई दे रहा था।

सूर्यास्त की जाती किरणें अब शिखरों तक खिंच चुकी हैं, पर्वतों के शरीरों की हरियाली स्याह रंग में रंगती जा रही है। धूप में हसीन नज़र आने वाले पहाड़ों पर अब क्षण-दर-क्षण अंधेरे की रहस्यमय परत चढ़ती जा रही थी।

 मैं और नंदू कम्बल ओढ़े ही भोजन की वंदना में जुट जाते हैं, आलू-सोयाबीन बड़ियों की तरीदार सब्जी और कनक के फुलके....मज़ा आ गया!

रात का दृश्य।

   खाना खाकर हाथ धोने के लिए बाहर क्या आता हूँ कि फिर से अकेला टहलता हुआ उसी पत्थर पर जा बैठता हूँ।

 नीचे दिख रही रिकांगपिओ-कल्पा की बत्तियों को निहारने लग पड़ता हूँ। हवा में ठंड की गंध आ रही थी, नाक ठंडा होकर कुछ-कुछ बहने लग पड़ा था...पर फिर भी मुझे वह ठंड बहुत भा रही थी।

ये तीनों नवयुवक खुश हो एक ही आवाज़ में बोलते हैं- "हम उन बच्चों को वापस ले आए हैं, वे अब ऊपर फॉरेस्ट शेड में हैं।"

रात दस बजे मलिंगखट्टा का तापमान 8डिग्री, और समुद्र तट से ऊँचाई 3520मीटर।

मैं रसोई के बर्तन संभाल रहे सीताराम जी के पास बैठ जाता हूँ, वह मेरे लिए सूखे दूध की चाय बना रहे हैं। सीताराम जी भी उन तीनों बच्चों की ख़बर जानकर सुख की साँस ले रहे थे।
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