शुक्रवार, 19 जून 2020

भाग-6 "मेरी किन्नर कैलाश यात्रा" (Kinner Kailash Yatra)

भाग-6   "मेरी किन्नर कैलाश यात्रा"

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          "घर से भागे तीन बच्चे चले किन्नर कैलाश!"


                     पिछली किश्त में.......किन्नर कैलाश की कमरतोड़ चढ़ाई में मेरे साथ-साथ चलता नंदू बार-बार मुझसे बहुत आगे निकल जाता.....तो इस बार मैं ज़ोर से आवाज़ लगा नंदू को रोकता हूँ और उसके पास पहुँचकर गुस्से से कहता हूँ- "यदि इस घने जंगल में तुझे अकेले जान भालू पकड़ ले, तो मैं इतनी दूर से तेरे लिए क्या कर पाऊँगा और यदि मेरा पैर फिसल जाए और मैं किसी चट्टान पर लटक जाऊँ, तो तू मेरे किसी काम का नहीं....!!!"
                  मेरी यह बात सुन नंदू एकदम सुन्न सा हो गया, उसके मुँह से एक शब्द भी नहीं फूटा। परंतु दूसरे ही पल में फिर बोल उठता हूँ- "देख नंदू मैं तुझे अपनी ज़िम्मेदारी पर साथ लेकर आया हूँ, चलते समय तेरे घर पर भाभी जी को बोल कर आया था कि चिंता ना करें जैसे नंदू को ले जा रहा हूँ, वैसे ही उसे वापस लाऊँगा....और तू इस घने-बियाबान जंगल में अकेले ही ऐसे दौड़ लगा रहा है जैसे तेरे भीतर 'पी• टी• उषा' प्रकट हो गई हो....हम दोनों इक्ट्ठे इस कठिन यात्रा पर आए हैं, यहाँ कुछ भी अप्रिय घट सकता है हमारे साथ.....दोनों में किसी एक को कुछ हो गया तो दूसरे के लिए मुसीबत है, देख यार मैंने तुझे साबुत ही वापस ले जाकर भाभी जी को सोंपने का वादा किया है...!"        अब हम दोनों हंसते हुए साथ-साथ चल रहे हैं, मेरी यह तरकीब काम कर गई...नंदू ने अपनी तेज़ चाल को मेरे मुताबिक कम कर लिया।
                   तुंगमापी घड़ी पर नज़र दौड़ाता हूँ- 3060 मीटर,  मतलब हम पिछले एक-सवा घंटे में 250 मीटर की और ऊँचाई प्राप्त कर चुके हैं, देवदार अब कहीं- कहीं ही नज़र आ रहा था। निरंतर नीचे दिख रहा सतलुज घाटी का दिलकश दृश्य इस पदयात्रा का सबसे हसीन पहलू साबित हो रहा था।
                     2बजने को हो रहे थे, पगडंडी हमें एक ऐसी जगह पर ले आती है, जहाँ आधिकारिक यात्रा के दौरान किसी ने ढाबा लगाया होगा कुछ दिन पहले तक.... परंतु अब वहाँ केवल उस ढाबे के अवशेष ही बकाया थे। मुझे बाद में पता चलता है कि इस जगह का नाम "सेरियो" है....मतलब आधिकारिक यात्रा के समय कंगरिंग गाँव से पांच घंटे की चढ़ाई के बाद "सेरियो" नामक इस जगह पर रहने-खाने की व्यवस्था हो सकती है, गणेश पार्क पहुँचने के लिए सेरियो से दो-ढाई घंटे लग जाते हैं।
                    सेरियो के बाद "गिरिराज की सखी पगडंडी" हम पर कुछ समय के लिए रहम कर अपने-आप को सीधा-सपाट कर लेती है। अब नंदू की भूख जाग उठी है, सो पगडंडी पर हम दोनों जजों ने अपनी कचहरी लगा 'बंदी बिस्कुटों' की उम्र कैद को मृत्युदंड में बदल डाला...!  बिस्कुटों के खाली रैपरों को इस बार नंदू की रक्सैक की बाहरी जेब में घुसेड़ता हुआ बोलता हूँ- "क्योंकि नंदू हम पहाड़ पर गंद डालने नहीं आए..!!"
                     कमरतोड़ चढ़ाईयाँ अब फिर हमारे आगे अपनी अकड़ में तनी खड़ी हैं और हम दोनों भी अड़ियल बन उन चढ़ाईयों पर कदम-दर-कदम ऊपर की ओर चढ़ते जा रहे हैं। कंगरिंग गाँव में नाले से भरी पानी बोतल कब भी खत्म हो गई थी, अब तो दो लीटर की रिज़र्व बोतल का पानी भी कम होता जा रहा है।
                     "समझदार को मात्र इशारा"  पाठ का सम्मान नंदू ने रख लिया था, वह अब समझदारी दिखाता हुआ पिछले दो-ढाई घंटों से मेरे अंग-संग ही चला जा रहा था। समय दोपहर के बाद सवा तीन बजे का, तुंगमापी घड़ी पर नज़र- 3350मीटर.....मतलब पिछले डेढ़-पौने दो घंटों में हम 300मीटर और ऊपर चढ़ चुके हैं। पहाड़ पर देवदार अब कहीं-कहीं दिखाई पड़ने लगा, हां "डेज़ी" जाति के पहाड़ी फूलों की झाड़ियाँ यहाँ-वहाँ सजावट के गुलदस्ते बन खड़ी थी। यहाँ इतनी ऊँचाई पर पहुँच कर, हम दोनों कुछ समय के लिए दम लेने घाटी की तरफ मुँह कर बैठ जाते हैं, क्योंकि घाटी में हमें सारे रिकांगपिओ शहर के विहंगम दृश्य के दर्शन जो हो रहे थे।
                       नंदू उस दृश्य को देख मुझे कहता है- "यार विक्की, रात के अंधेरे में जब उस पहाड़ पर रिकांगपिओ शहर जगमगाता होगा तो यहाँ से देखने में कितना खूबसूरत लगता होगा।"
                        "हां, सही कह रहा है तू नंदू.....मुझे लगता है कि मलिंगखट्टा से भी यह नज़ारा दिखता होगा, रात में देखेंगे रिकांगपिओ की टिमटिमाती रौशनियों को यारा...!"
                       कुछ नये दम हो चले ही थे कि ऊपर से कुछ बंदे लदे-फदे नीचे उतर रहे थे, उनकी पीठ पर लदे जरनेटर, गैस के सिलेंडर आदि से ज़ाहिर हो रहा था कि वे ढाबा-टैंट वाले हैं जो मलिंगखट्टा से वापसी कर रहे हैं।  
                       आखिर पौने चार बजे हम चलते-चलते वहाँ तक पहुँचते हैं, जहाँ से सामने ऊपर की तरफ देखते हुए मलिंगखट्टा (गणेश पार्क) के हमें प्रथम दर्शन होते हैं, एक बड़ी सी वृक्ष विहीन भूमि जिस में नीले रंग की तरपाल से बना एक ढाबा और जंगलात की इमारत नज़र आने लगती है.....और मेरी दायी तरफ बर्फ से लबालब वो गिरिराज अब अपनी विशालता मुझे दिखा रहे थे, जिन्हें मैं नीचे से ऊपर चढ़ता हुआ निरंतर देखता आ रहा था। एक देवदार पर लगे फूलों को देख मुझे एकाएक याद आता है तो नंदू से कहता हूँ-"नंदू, रिकांगपिओ-कल्पा अपने 'चिलगोज़ों' के लिए भी बहुत मशहूर है.... चिलगोज़ा मतलब चीड़ या पाइन के पेड़ का फल, जिसे हम पंजाब में 'नेजा' कहते हैं और यहाँ स्थानीय लोग इसे 'न्योजा' पुकारते हैं.....कंगरिंग गाँव से जब हम नाला पार कर ऊपर की ओर चढ़े थे, तब वहाँ पर इन चिलगोज़ा चीड़ों के पेड़ों का जंगल भी तो था......बचपन में जब मेरी दादी जी मुझे कहती कि जा अपने दादा जी की दुकान पर जाकर पैसे ले, फला-फला करियाने का सामान लाला राम प्रकाश की दुकान से ले आ, तो मैं अपने दादा जी  'हकीम साधु राम'  की दुकान पर पहुँच....सबसे पहले उनसे इन नेजों की मांग करता, और दादाजी दो-चार नेजे दराज़ से निकल मुझे दे देते....बहुत स्वाद लगते थे मुझे ये नेजे, हां एक बात और तब मैं दालों के नाम भूल जाता था, तो मेरी मां व दादी मुझे दालों के रंग बता कर भेजते थे बाज़ार....जैसे हरी दाल मतलब साबुत मूंगी और जब मुझे कहा जाता कि मूंगी-मसूर की धुली दाल लेकर आ, तो मैं घर से छड़प्पे लगा भागता और रटता जाता मूंगी-मसूर की धुली दाल, मूंगी-मसूर की धुली दाल........पर जब दादा जी की दुकान पर पहुँचता तो धुली दाल ही याद रहता, मूंगी-मसूर फिर भूल जाता.....नंदू आज समझ आ रहा है कि एक पूरी ज़िन्दगी में बचपन का कितना महत्व है, जब मैं बच्चा था तो मुझे बड़ों का जीवन अच्छा लगता था।"
                            खैर, उन फूलों वाले पेड़ का नाम "ख़ौग़्" था, यह भी देवदार की एक जाति है.....इसका ज्ञान मुझे बाद में होता है। अब हमें पगडंडी शिखर की उसी दिशा की ओर ले जा रही थी, जहाँ नीली तरपाल वाला ढाबा दिखाई पड़ रहा था। मंजिल सामने देख नंदू मुझे कहता है- "मैं जल्दी-जल्दी ऊपर ढाबे पर जाकर रोटी पानी की व्यवस्था देखता हूँ,  तू अपनी चाल से चला आ!"
                     और, साढ़े चार बजने से दस मिनट पहले मैं भी मलिंगखट्टा, सीताराम के ढाबे "निखिल टैंट हाऊस" के नीचे पहुँचता हूँ...तो नंदू ऊपर से भागा-भागा मेरे पास आकर कहता है कि इस ढाबे वाले ने तो मना कर दिया कि शाम के इस वक्त उसके पास कोई खाना नहीं है, खाना तो अब रात में ही बनेगा।  मैं बुझी सी हंसी हंसता हूँ और नंदू को अपने गर्व में कहता हूँ- देख, अब मैं उसी बंदे से दोबारा पूछता हूँ...!!"
                     ऊपर पहुँचा तो दो-तीन बंदे ढाबे के बाहर एक चट्टान पर बैठे बातें कर रहे थे। मैं उनके पास पहुँचकर पूछता हूँ- "सीताराम जी कौन है..?"
                     तो एक बंदा झट से खड़ा हो मेरी तरफ प्रश्नवाचक निगाहों से देखता है। दूसरे ही क्षण मैं फिर से बोलता हूँ- "सीताराम जी आपकी बहन मुझे रास्ते में मिली थी, उसे मैंने दवाई दी है।"
                     "हां वह बीमार थी, इलाज के लिए वापस गाँव जा रही है"- सीताराम जी बोले।
                     "हां जी, उसी ने ही हमें बोला कि ऊपर मेरे भाई सीताराम का ढाबा अभी चल रहा है, तो हमारे भोजन का कुछ प्रबंध करें क्योंकि हम दोनों ने सुबह की एक मैगी ही खा रखी है। ज़रा सा सोच कर सीताराम जी बोले- "आप टैंट में चलकर आराम करें, मैं आपके लिए दोपहर की बची दाल के साथ चावल बना देता हूँ " और यह कहकर सीताराम जी हमारे आगे-आगे चल देते हैं रसोई की तरफ।
                   वहाँ पहाड़ की ढलान पर उन्होंने छह-सात टैंट लगा रखे थे, सीताराम जी के इशारे पर नंदू तो एक टैंट में चला जाता है.....पर मैं सीताराम जी के पास उनकी रसोई के दरवाज़े पर खड़ा हो जाता हूँ, यह पूछने के लिए उस ओर इशारा करते हुए कहता हूँ कि यह जो बर्फ से लबालब गिरिराज मुझे कंगरिंग के जंगल के बाद से लगातार नज़र आते जा रहे हैं, इनका परिचय क्या है...?
                 "इस पर्वत का नाम  'रंगकूम्मो पर्वत' है" सीताराम जी ने जवाब दिया।
                "बहुत भव्य पर्वत है, सुबह से ही मेरा ध्यान इस पर ही टिका हुआ है, सीताराम जी।"
                       सीताराम जी अपने स्टोव में मिट्टी का तेल डाल हमारे लिए चावल बनाने में जुट गए और मैं चल देता हूँ टैंट की ओर। टैंट में नंदू पसरा पड़ा है, मैं भी उस साथ जाकर चौड़े में पसर जाता हूँ। लेटते ही तुंगमापी घड़ी पर आदतन नज़र दौड़ाता हूँ- मलिंगखट्टा की समुद्र तल से ऊँचाई 3520 मीटर और समय शाम के साढ़े चार बज चुके हैं।
                        लेटे-लेटे नंदू मुझसे कहता है- "हम कितने किलोमीटर आ गए होंगे, विक्की...?"
                       उसका प्रश्न सुन, मैं अपना गणित लगाने लग पड़ता हूँ- "देख नंदू, हम तंगलिंग से सुबह 6बजे चले थे और शाम के 4बजे गणेश पार्क में आ पहुँचें हैं, मतलब कि दस घंटे.....और इन दस घंटों में दो घंटे खाने-पीने व नए दम होने के निकाल कर बचते हैं आठ घंटे, और ऐसी खड़ी चढ़ाई पर एक घंटे में बड़ी मुश्किल से एक किलोमीटर ही चढ़ा जा सकता है.....तो इस हिसाब से हम तंगलिंग से यहाँ तक आठ किलोमीटर चल चुके हैं और इन आठ किलोमीटर में हमने जबरदस्त ऊँचाई ग्रहण कर ली है लगभग 1500मीटर की....यह कमरतोड़ चढ़ाई ही इस यात्रा को शिव से संबंधित यात्राओं में सबसे मुश्किल बनाती है...और अभी आगे का सफ़र भी मुझे बहुत चुनौती भरा लगता है जैसा अतिकुर रहमान ने हमें बताया था, हां एक बात और मैं अपने अनुभव से कहना चाहता हूँ नंदू.....इस यात्रा को जल्दबाज़ी में करना, खुद को मुसीबत में डालना सिद्ध हो सकता है......जल्दबाज़ी ऐसे कह रहा हूँ मान लो दिल्ली जैसे महानगर से कोई शुक्रवार की रात रिकांगपिओ आती बस में बैठ पोवारी या शांगटांग उतर सीधा ही किन्नर कैलाश को चल दे और उसे हर हाल में यहाँ गणेश पार्क तक पहुँचना ही पड़ेगा, क्योंकि रास्ते में तो कुछ भी व्यवस्था नहीं है....तब उसको निश्चित की 'ऊँचाई की बीमारी' यानी हाई एल्टीच्यूट सिकनेस घेर लेगी, सो इस यात्रा पर मैदानों से आए यात्रियों को जल्दबाज़ी नहीं दिखानी चाहिए....अपने शरीर को पहाड़ की भिन्न-भिन्न ऊँचाईयों के अनुरूप ढालते हुए इस दुर्गम यात्रा पथ पर बढ़ना चाहिए।"
                       नंदू की तरफ से कोई भी हुंगारा अब ना आता सुन, मैं ज़रा सा उठकर नंदू को देखता हूँ....वह मेरी बातें सुनता-सुनता गहरी नींद में सो गया है। मुझे क्या पता था कि इसी  "जल्दबाज़ी"  का कीड़ा भी नंदू के दिमाग में घुसा हुआ है और इस संबंध में हुई मेरी बात के बीच में ही नंदू सो गया। अब मेरी आँखें भी भारी होने लगती हैं, कमरतोड़ चढ़ाई की थकावट ने मुझे भी बेसुध कर दिया।
                  
                   
              मेरे पाठक दोस्तों, यहाँ मैं आपसे एक दुखद घटना की भी चर्चा करना चाहता हूँ। यह दुखद घटना पिछले साल मतलब जून2019 की है, यानि कि मेरी किन्नर कैलाश यात्रा के दो वर्ष बाद की।
              1 अगस्त 2019 को अधिकारिक रूप से यात्रा शुरू होने से पहले जून महीने में पांच दोस्त चल पड़ते हैं मुँह उठाकर किन्नर कैलाश! चार नौजवान 'बड़ागाँव, कुमारसेन शिमला'  के और उनका एक रिश्तेदार झज्जर हरियाणा से। पांचों में से दो ढीले निकले, पीछे रह गए.... ऊपर से मौसम खराब हो गया, धुंध की वजह से दिशा ज्ञान भी जाता रहा...रात का अंधेरा आ घिरा, पगडंडी से भी नाता टूट गया...बगैर रास्ते के चलने लगे, नतीजा झज्जर वाले वरुण सिंह का संतुलन बिगड़ा और वह खाई में जा गिरा...सिर पर चोट, पंख-पखेरू उड़ गए....दूसरा कुमारसेन का पीयूष वर्मा अंधेरे में ग्लेशियर से फिसल नीचे गिर, वहीं पड़ा ठंड से मर गया।  दोनों की लाशें गुफा के क्षेत्र में मिली, बाकी बचे उन तीनों युवकों को भी पुलिस प्रशासन द्वारा बचा कर नीचे लाया गया, यहाँ तक कि उनको बचाने गई पुलिस के एक कर्मी के साथ भी हादसा घट गया....गनीमत है कि उसे चोटें ही आई, जान बच गई। मतलब कि आजकल की युवापीढ़ि बस सोशल मीडिया पर लाइक पाने या स्टार बनने हेतु अपनी जान की कीमत भी नहीं जान पाती, एक सनक कि इस वर्ष की फलानी-फलानी यात्रा पर मैं सबसे पहले पहुँच कर वहाँ की फोटो शेयर करूँ......ठीक ऐसे ही कुछ लड़के मुझे इसी किन्नर कैलाश यात्रा पर वापसी करते मिलते हैं गुफा से पहले, जो इस घमण्ड में थे कि पिछले साल की श्रीखंड यात्रा के शुरू होने से एक महीना पहले, वह दोनों सबसे पहले थे जो श्रीखंड पहुँचें।
         "परन्तु घमण्डी तो तू खुद भी बहुत है विकास नारदा, कभी अपने पलंग के नीचे भी लाठी फेर पर देख ले!!!!"
                       खैर, अब यदि आप कोई अनुभवी पर्वतारोही हो तो अलग बात है मेरे पाठक दोस्तों, वरना ऐसी दुर्गम यात्राओं का अंजाम "शव यात्रा" भी हो सकता है....इसलिए मैं हमेशा से कहता आ रहा हूँ- "हे गिरिराज, तुम बाहर से जितने सुंदर हो...भीतर से उतने ही निर्मम हो..!"  सो इन यात्राओं पर पूरी तैयारी, सावधानी और समय सिर ही आना है प्रिय पाठको, मेरी बात याद रखना।
                     
                       आधे घंटे बाद सीताराम जी हमारे लिए दो थालियाँ लाते हैं, जिनमें मल्लिका मसूर की दाल व चावल थे। पहला चम्मच मुँह में रखते ही तृप्ति की अनुभूति होती है। दाल-चावल खाने के बाद हम पर और ज्यादा नींद का नशा चढ़ जाता है, दोनों ही फिर से सो जाते हैं.....परंतु आधे-पौने घंटे बाद मैं अकेला ही उठकर टैंट से बाहर आ जाता हूँ क्योंकि मुझे सूर्यास्त देखने का लालच है। शाम की सुनहरी धूप में "रंगकूम्मो" पर्वत और ज्यादा आकर्षक नज़र आने लगता है। मौसम में ठंडक आ चली थी तो मैं भी धूप में बैठ सीताराम जी के पास जा बैठता हूँ।
                      सामने का दृश्य.....आमने-सामने पर्वतों की श्रृंखला के बीचो-बीच लकीर सी बहती सतलुज और उन पर्वतों पर बसे गाँव-कस्बे-शहर। मेरी जिज्ञासाएँ ही मुझे सीताराम जी के पास दरअसल खींच लाई थी। सो उन के पास बैठते ही अपनी मानसिक प्रश्नावली के प्रथम प्रश्न के उत्तर की चेष्टा लिए सीताराम जी से पूछता हूँ- "सीताराम जी मलिंगखट्टा तो प्राचीन नाम जान सकता है, और गणेश पार्क नवीन...तो इस जगह का नाम गणेश पार्क कैसे पड़ गया..?"
                     सीताराम जी पीछे मुड़कर मुझे इसी पहाड़ का शिखर दिखाते हैं, जो उनके ढाबे के बिल्कुल पीछे ही है- "यह देखिए इस पर्वत शिखर की बनावट में भगवान गणेश की शक्ल नज़र आती है, इसीलिए इस जगह का नाम गणेश पार्क पड़ गया।"
                     पहले प्रश्न का उत्तर प्राप्त होते ही, मैं दूसरा प्रश्न सीताराम जी से पूछता हूँ कि मैंने सुना था इस जगह का नाम "आशिकी पार्क" भी है....यह कैसा नाम है, इसके पीछे भी कोई किस्सा-कहानी है क्या...?
                     मेरे इस प्रश्न पर सीताराम जी के चेहरे पर एकाएक ही उग्र भाव उभर आया और वे थोड़ा तैश में बोले- "बकवास है यह सब, यहाँ भगवान शिव का निवास स्थान है कैलाश.....वहाँ आशिकी का क्या काम!!" तभी हमारे पास ही बैठा सीताराम जी का नेपाली नौकर हमारे बीच में एकदम से बोलता है- "अरे, वह देखो...ये छोटे-छोटे बच्चे कहां चले आ रहे हैं..!!!"
                      "छोटे बच्चे" शब्द सुन हमारा ध्यान और नज़र उन तीनों बच्चों पर जा ठहरती है.....जो अभी हम से दूर हैं और हमारी ओर चढ़े आ रहे हैं। सीताराम जी उन्हें देख बोलते हैं- "ये बच्चे घर से भाग कर कैलाश जाने के लिए आए हैं!!"
                      सबसे आगे चला आ रहा लड़का उनका लीडर जान पड़ रहा था, जो बार-बार पीछे मुड़ कर उन्हें देख रहा था। उसका कद तीनों बच्चों में सबसे लम्बा था और उसके हाथ में पानी की एक खाली बोतल और बगल में एक हल्का सा कम्बल था, 10-11साल का लग रहा था। उसके पीछे आ रहा दूसरा बालक उन तीनों में से सबसे छोटा है मुश्किल से 7-8साल का, उसने भी अपनी बगल में एक पतला का कम्बल दबा रखा था। सबसे पीछे वाला बालक 9-10साल का, जिसने अपनी पीठ पर स्कूल बैग टांग रखा था।
                      बच्चे, और वो भी अकेले, निश्चित ही घर से से भागे हुए.....कोई मां-बाप नहीं भेज सकता ऐसे अपने जिगर के टुकड़ों को मौत के मुँह में, किन्नर कैलाश के खतरनाक रास्ते पर....जहाँ हमारे जैसे को भी घर वालों के आगे कई पापड़ बेल कर आना पड़ता है.....यह सोचते ही मेरे मन में चिंताजनक विचारों की उथल-पुथल आरंभ हो जाती है!
                                              
                                                 (क्रमश:)

               



देवदार अब कहीं-कहीं ही नज़र आ रहा था, निरंतर नीचे दिख रहा सतलुज घाटी का दिलकश दृश्य इस पदयात्रा का सबसे हसीन पहलू साबित हो रहा था।

मानसरोवर झील से बह कर आ रही सतलुज पर बना शांगटांग पुल।

आधिकारिक यात्रा के समय कंगरिंग गाँव से पांच घंटे की चढ़ाई के बाद "सेरियो" नामक इस जगह पर रहने-खाने की व्यवस्था हो सकती है, परन्तु उस वक्त उस ढाबे के केवल अवशेष ही बकाया थे।

सेरियो के बाद "गिरिराज की सखी पगडंडी" हम पर कुछ समय के लिए रहम कर अपने-आप को सीधा-सपाट कर लेती है। 

 अब नंदू की भूख जाग उठी है, सो पगडंडी पर हम दोनों जजों ने अपनी कचहरी लगा 'बंदी बिस्कुटों' की उम्र कैद को मृत्युदंड में बदल डाला...! 

  नंदू इस दृश्य को देख मुझे कहता है- "यार विक्की, रात के अंधेरे में जब उस पहाड़ पर रिकांगपिओ शहर जगमगाता होगा तो यहाँ से देखने में कितना खूबसूरत लगता होगा।"

रिकांगपिओ शहर का विहंगम दृश्य।

इनकी पीठ पर लदे जरनेटर, गैस के सिलेंडर आदि से ज़ाहिर हो रहा था कि वे ढाबा-टैंट वाले हैं जो मलिंगखट्टा से वापसी कर रहे हैं।   

"डेज़ी" जाति के पहाड़ी फूलों की झाड़ियाँ यहाँ-वहाँ सजावट के गुलदस्ते बन खड़ी थी।

और, मैं अपनी तुंगमापी घड़ी पर देखता हूँ कि ये फूल पहाड़ की कितनी ऊँचाई पर आने शुरू हुए हैं।

आखिर पौने चार बजे हम चलते-चलते वहाँ तक पहुँचते हैं, जहाँ से सामने ऊपर की तरफ देखते हुए मलिंगखट्टा (गणेश पार्क) के हमें प्रथम दर्शन होते हैं।

मलिंगखट्टा, एक बड़ी सी वृक्ष विहीन भूमि जिस में नीले रंग की तरपाल से बना एक ढाबा और जंगलात की इमारत नज़र आने लगती है।

मलिंगखट्टा से ज़रा सा नीचे लगे इन फूलों वाले पेड़ का नाम "ख़ौग़्" है, यह भी देवदार की एक जाति है।

और, मेरी दायी तरफ बर्फ से लबालब वो गिरिराज अब अपनी विशालता मुझे दिखा रहे थे, जिन्हें मैं नीचे से ऊपर चढ़ता हुआ निरंतर देखता आ रहा था।

अब हमें पगडंडी शिखर की उसी दिशा की ओर ले जा रही थी, जहाँ नीली तरपाल वाला ढाबा दिखाई पड़ रहा था। 

मलिंगखट्टा के पीछे, बादलों से घिरा पर्वत शिखर...इसी पर्वत पर हम सुबह से चढ़ते आ रहे थे।

मंजिल सामने देख नंदू मुझे कहता है- "मैं जल्दी-जल्दी ऊपर ढाबे पर जाकर रोटी पानी की व्यवस्था देखता हूँ,  तू अपनी चाल से चला आ!"   पगडंडी पर चला जा रहा नंदू।

  और, साढ़े चार बजने से दस मिनट पहले मैं भी मलिंगखट्टा, सीताराम के ढाबे "निखिल टैंट हाऊस" के नीचे पहुँचता हूँ...तो नंदू ऊपर से भागा-भागा मेरे पास आकर कहता है कि इस ढाबे वाले ने तो मना कर दिया कि शाम के इस वक्त उसके पास कोई खाना नहीं है।

ज़रा सा सोच कर सीताराम जी बोले- "आप टैंट में चलकर आराम करें, मैं आपके लिए दोपहर की बची दाल के साथ चावल बना देता हूँ " और यह कहकर सीताराम जी हमारे आगे-आगे चल देते हैं रसोई की तरफ।

   वहाँ पहाड़ की ढलान पर उन्होंने छह-सात टैंट लगा रखे थे, सीताराम जी के इशारे पर नंदू तो एक टैंट में चला जाता है।

 सीताराम जी अपने स्टोव में मिट्टी का तेल डाल हमारे लिए चावल बनाने में जुट गए और मैं चल देता हूँ टैंट की ओर। 

टैंट में नंदू पसरा पड़ा है, मैं भी उस साथ जाकर चौड़े में पसर जाता हूँ।

लेटते ही तुंगमापी घड़ी पर आदतन नज़र दौड़ाता हूँ- मलिंगखट्टा की समुद्र तल से ऊँचाई 3520 मीटर।

 नंदू की तरफ से कोई भी हुंगारा अब ना आता सुन, मैं ज़रा सा उठकर नंदू को देखता हूँ....वह मेरी बातें सुनता-सुनता गहरी नींद में सो गया है।

"मल्लिका मसूर की दाल व चावल"

 पहला चम्मच मुँह में रखते ही तृप्ति की अनुभूति होती है। 

आधे-पौने घंटे बाद मैं अकेला ही उठकर टैंट से बाहर आ जाता हूँ क्योंकि मुझे सूर्यास्त देखने का लालच है।

टैंट से बाहर निकल चारों ओर नज़र दौड़ता हूँ।

शाम की सुनहरी धूप में "रंगकूम्मो" पर्वत और ज्यादा आकर्षक नज़र आने लगता है।

मेरी जिज्ञासाएँ ही मुझे सीताराम जी के पास दरअसल खींच लाती हैं।

सीताराम जी पीछे मुड़कर मुझे इसी पहाड़ का शिखर दिखाते हैं, जो उनके ढाबे के बिल्कुल पीछे ही है- "यह देखिए इस पर्वत शिखर की बनावट में भगवान गणेश की शक्ल नज़र आती है, इसीलिए इस जगह का नाम गणेश पार्क पड़ गया।"

तभी हमारे पास ही बैठा सीताराम जी का नेपाली नौकर हमारे बीच में एकदम से बोलता है- "अरे, वह देखो...ये छोटे-छोटे बच्चे कहां चले आ रहे हैं..!!!"

 "छोटे बच्चे" शब्द सुन हमारा ध्यान और नज़र उन तीनों बच्चों पर जा ठहरती है.....जो अभी हम से  दूर हैं और हमारी ओर चढ़े आ रहे हैं। सीताराम जी उन्हें देख बोलते हैं- "ये बच्चे घर से भाग कर कैलाश जाने के लिए आए हैं!!"

और, ये रहे वो तीनों बच्चे....मेरे पाठक दोस्तों।
                ( अगला भाग पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें )

रविवार, 7 जून 2020

भाग-5 "मेरी किन्नर कैलाश यात्रा " (Kinner Kailash Yatra)

भाग- 5 "मेरी किन्नर कैलाश यात्रा" 

इस यात्रा को आरंभ से पढ़ने का यंत्र http://vikasnarda.blogspot.com/2020/05/blog-post.html?m=1

               " कमरतोड़ चढ़ाईयाँ, तेरीयाँ भोलेनाथ "

              पिछली किश्त में आपने पढ़ा कि किन्नर कैलाश के रास्ते में, हमें साढे़ चार घंटे चलते रहने के बाद सबसे पहले मिला वो "क्यूट" सा नागालैंड दीमापुर वासी नौजवान जिसका नाम  "अतिकुर रहमान"  सुनकर, मैं सोच में पड़ गया कि यह मुसलमान भाई किन्नर कैलाश की यात्रा पर कैसे....?
                         मेरे मन में उछल रहा यह सवाल मैंने बेबाकी से अतिकुर रहमान की तरफ उछाल दिया तो अतिकुर बोले- "नहीं-नहीं, मेरे पिताजी आसामी मुस्लिम थे और मेरी मां नागालैंडी इसाई....तो, दोनों का प्रेम विवाह हुआ और मैं पैदा हुआ.....पर जब मैं छोटा सा था तो पिताजी गुज़र गए, सब रिश्ते-नाते टूटने के बाद मेरे साथ बस पिताजी का नाम ही जुड़ा रह गया...!"
                         यह सुनकर मेरे दिमाग में अब एक और सवाल एकदम से उछल कूद करने लगा- "तो, फिर आप किस धर्म का अनुसरण कर रहे हो...?"
                        "इसाई धर्म का"
यह सुन फिर मेरा दिमाग घनचक्कर बनने लगा कि इसाई होने के बावजूद भी यह बंदा किन्नर कैलाश क्यों जा आया, क्योंकि किन्नर कैलाश की अत्यंत कठिन यात्रा हम हिंदुओं की धार्मिक यात्रा है। शायद उस वक्त मेरे दिमाग पर अनजाने में ही सही मेरा हिन्दूपन हावी सा होने लगा था.... तो एकदम से अतिकुर की तरफ अपना सवाल उछाल देता हूँ- " तो आप किन्नर कैलाश कैसे जा पहुँचे भाई...?"
                      मैं दिल्ली यूनिवर्सिटी का विद्यार्थी हूँ और अभी शिक्षा पूर्ण होने के बाद हिमाचल भ्रमण के लिए निकला हूँ....तो जब मैं दिल्ली से बस में बैठ रिकांगपिओ आ रहा था, तो बस में ही मेरे साथ बैठे एक रिकांगपिओ के स्थानीय निवासी से हुई बातचीत में पता चला कि रिकांगपिओ में भी नागालैंड से एक सज्जन रहते हैं। तब मैं घूमते-घुमाते उनके घर भी जा पहुँचा, उन्होंने ही मुझे अपने घर की छत से पहली बार किन्नर कैलाश शिला दिखाकर कहा कि यह किन्नर कैलाश है, यहाँ भी लोग जाते हैं। मेरी दिलचस्पी बढ़ गई कि वहाँ कैसे पहुँचा जा सकता है, तो उन्होंने मुझे वहाँ जाने का रास्ता बताया। अगले दिन रिकांगपिओ से सुबह-सुबह मैं चल पड़ा बिना किसी तैयारी के, ना मुझे इस बात का ज्ञान था कि यह ट्रैकिंग इतनी मुश्किल होगी....ना किसी से बात हो पाएगी इस ट्रैक पर क्या करना है, क्या नहीं....और पहले ही दिन बहुत बारिश हुई, जैसे-तैसे कर मैं रात होने तक गणेशपार्क(मलिंगखट्टा) पहुँच कर, वहीं एक ढाबे वाले के पास रुक गया। तो उसी ढाबे वाले ने मुझे सलाह दी कि आपको कल ढाई-तीन बजे तक अंधेरे में ही किन्नर कैलाश के लिए आगे चलना होगा, तांकि समय पर ही आप किन्नर कैलाश पहुँचकर वापस उतर सको, क्योंकि दोपहर के बाद वहाँ पर मौसम का कोई भरोसा नहीं। पर मैं सोया ही लेट था तो आधी रात के ढाई बजे कहाँ उठ सकता था, तो आगे जाने के लिए तड़के लेट ही उठ पाया, पांच बजे.....और, हड़बड़ाहट में बिना कुछ खाए-पिए आगे बढ़ लिया। मेरे दिमाग में यह भी नहीं था कि पीने वाले पानी का एकमात्र स्रोत रास्ते में आने वाला झरना है, बाकी पार्वती कुंड का पानी मुझे पीने लायक नहीं लगा। दोपहर के बाद 3बजे किन्नर कैलाश पहुँचा, तो मौसम खराब होने लगा। वापसी करते हुए मैं पार्वती कुंड पर रास्ता भटक गया, क्योंकि मैंने कुछ खाया भी नहीं था.... सो मेरी हालत बहुत खराब हो चुकी थी, लेकिन मेरे दिमाग में यह बात घर कर गई कि यदि तुझे यहाँ से  "जिंदा"  निकलना है, तुझे हर हालत में आज गणेश पार्क वापस पहुँचना ही पड़ेगा.... क्योंकि खाना तो वहीं मिल सकता है, सो मैं अकेला ही चलता रहा, चलता रहा भूखा-प्यासा....आखिर रात के साढे़ नौ बजे गणेश पार्क पहुँच ही गया, वहाँ खाना मिला... जान में जान आई। मेरी कुछ भी प्लानिंग नहीं थी किन्नर कैलाश आने की, बस ऐसे ही मुँह उठाकर चल दिया और अब वापसी कर रहा हूँ।
                
                       सारी बात सुन, मैने अतिकुर से वो ही सवाल फिर से पूछा कि किन्नर कैलाश आने का मुख्य कारण क्या है आपका, सिर्फ ट्रैकिंग या कुछ और भी...?
                      "जी हां,  मुझे ट्रैकिंग के साथ-साथ फोटोग्राफ़ी का भी बहुत शौंक है इसलिए मैं किन्नर कैलाश आ गया " अतिकुर ने जवाब दिया।
                       चलते-चलते मैंने अतिकुर से आखिरी सवाल पूछा- "यह तो बताइए कि आप तंगलिंग गाँव कैसे पहुँचे थे, झूले में बैठ सतलुज को पार किया था या सड़क द्वारा...?"
                      "जब सुबह-सुबह मैं रिकांगपिओ में बस के इंतजार में था, तो एक बाइक वाले से मुझे लिफ्ट मिल गई....उन्होंने मुझे झूले के आगे उतार कर कहा कि झूले में बैठकर चले जाओ और मैं झूले में बैठकर के पार हो गया..!"
                        मैंने हंसते हुए अतिकुर रहमान से विदा लेते हुए कहा- "फिर तो यार आपने इस यात्रा के सारे रंग ही देख लिये, बहुत खूब...!!"   और जय किन्नर कैलाश बोल कर हम अपने-अपने रास्ते कम करने के लिए आगे बढ़ गए।
                      अतिकुर रहमान के जाने के बाद मेरे दिमाग में यह प्रश्न उठा कि यदि अब कोई तुझे पूछे कि तू किन्नर कैलाश क्यों जा रहा है जबकि तू भी नास्तिक सोच का प्राणी है.......उससे तो बड़ा उछल-उछल कर पूछ रहा था, दे जवाब अब पहले अपने आप को ही...!!!!!
                    अपने-आप से ही किए इस उलझनदार सवाल का जवाब मुझे अपने-आप को ही देते नहीं बन पा रहा था.....खैर, चंद क्षण सोच कर अपने-आप को प्रत्युत्तर देता मन ही मन कहता हूँ- "हां मैं नास्तिक हूँ.....किन्नर कैलाश जाना भी मेरे पर्वत प्रेम का परिणाम है! "   
                     तभी मेरी अंतरात्मा बोली - " यह वो अहम है जिसके वशीभूत हो तू पहाड़ पर चढ़ता है.....याद कर विकास, तेरा यह अहम ही पिछले वर्ष श्रीखंड महादेव पर चकनाचूर हो गया था...!
                     अपने भीतर की आवाज़ सुन, मेरा मन अनहोनी से काँप उठा कि कहीं इस यात्रा पर भी फिर से मुझे मुँह की ना खानी पड़े...!!!   मेरा मन मेरे ही नास्तिक दिमाग को डांट कर चुप करा देता है......और मन ही मुझे एहसास करवाता है कि विधाता चाहता है कि तू किन्नर कैलाश यात्रा संपूर्ण करें, तभी तो तुझे वो रास्ते में ऐसे अजनबियों से मिलवाता जा रहा है जो तेरे पथ प्रदर्शक बनते जा रहे हैं, जैसे पहले भगवान सिंह भंडारी और अब अतिकुर रहमान।
                      पाठक दोस्तों, आप सोच रहे होंगें कि मैं कैसी उलझनदार बातें कर रहा हूँ,  कभी नास्तिक तो कभी आस्तिक......हां मैं दिमाग से तो उच्च दर्जे का नास्तिक ही  हूँ, पर भावनाओं से भरा मेरा मन हमेशा बीच भंवर में ही गोते खाता रहता है...!!
                     चढ़ाई चढ़ते-चढ़ते मेरी खुद से हो रही वार्ता तब टूटती है जब मुझ से आगे निकले नंदू के पास मैं पहुँचता हूँ, जो रास्ते में आई एक छोटी सी गुफा के सामने दम लेने बैठा हुआ मुझे बोलता है- "देख विक्की, यह छोटी सी गुफा।"
                       मैं हांफते हुए अपना सिर हां में हिला देता हूँ। खड़ा-खड़ा ही कुछ दम लेता हूँ क्योंकि मैं ट्रैकिंग के दौरान कम ही बैठता हूँ, लेटने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। नंदू से अपनी रक्सैक की बाहरी जेब से बोतल निकलवा पानी के दो-चार घूंट पीता हूँ। पीछे मुड़कर देखता हूँ कि हम घाटी में बह रही सतलुज से काफी ऊपर पहुँच चुके हैं, इतना ऊँचा कि जिस पहाड़ पर हम सुबह से चढ़ रहे हैं....उसकी आधी ऊँचाई तक तो पहुँच चुके हैं और अपने अनुमान से ही नंदू को कहता हूँ कि इस पहाड़ के शिखर पर ही होगा "मलिंगखट्टा यानि गणेश पार्क" पर यह यात्रा आसान नहीं है, हर कदम चढ़ाई ही चढ़ रहा है... कहीं भी समतल रास्ता नहीं मिला और ना ही कहीं आगे मिलने की उम्मीद है.......और, भाई अभी मंज़िल बहुत दूर लगती है।
                        मैं अपनी तेज़ हृदयगति व साँस के सामान्य होने तक वहीं कुछ समय खड़ा रहता हूँ और फिर अपने मुँह में टॉफी डाल,  फिर से नंदू के साथ ऊपर की ओर चल पड़ता हूँ। कुछ मीटर ऊपर चढ़ने पर ही साँस फूलने लगता, सो हर दस-बीस मिनट बाद ही रुकना पड़ जाता।
                        साढे़ ग्यारह बजे चले थे, लगातार कमरतोड़ चढ़ाई मेरे शरीर से मेरी शक्ति छीन रही थी.....मुझे भूख का एहसास होने लगता है तो पगडंडी पर ही अपनी रक्सैक उतार बैठ जाता हूँ.....और कुछ बिस्कुट खा व पानी पी अपनी शक्ति को फिर से एकत्र करने की कोशिश करता हूँ। जबकि नंदू मस्त है, उसने एक बार भी नहीं बोला कि मैं थक रहा हूँ या मुझ से चढ़ा नहीं जा रहा। नंदू के इस प्रदर्शन को देख मैं मन ही मन खुश व हैरान हूँ क्योंकि ऐसी चढ़ाईयों पर अच्छे-अच्छों की जीभ बाहर निकल आती है, सो नंदू मेरे लिए एक मजबूत पर्वतारोही साथी साबित हो रहा है। बिस्कुट खा कर उसके खाली रैपर अपने कारगो बरमूडे की बाहरी जेब में घुसेड़ नंदू को बोलता हूँ- "क्योंकि.....हम यहाँ पहाड़ पर 'गंद डालने' नहीं आए...!!"
                         फिर से चले हुए अभी 15 मिनट ही हुए थे कि हमें ऊपर से आती हुई एक अधेड़ महिला दिखाई पड़ने लगी। उसकी चाल से प्रतीत हो रहा था कि उसकी सेहत खराब है, वह कुछ कदम चल रास्ते पर बैठ जाती। जब हम उसके पास पहुँचे तो मैंने सबसे पहले उनसे पूछा कि अभी गणेश पार्क कितनी दूर है...?
                        तो जैसे हर पहाड़ी कहता है- "बस थोड़ा और, ऊपर ही है...!"  ऊपर की तरफ उन्होंने इशारा कर कहा।
                    मैंने अपने सवाल को अपने हिसाब से बना फिर पूछा- "जितना हम तंगलिंग से यहाँ तक चढ़ आए हैं, उस हिसाब से अभी कितना बचता है गणेश पार्क...?"
                    "इस हिसाब से तो अभी आप को इतना ही और चलना है, गणेश पार्क पहुँचने के लिए।"
उत्सुकता वश मैं उनसे पूछ लेता हूँ कि आप कौन हो तो वह महिला बोली- "मेरे भाई 'सीताराम' का गणेश पार्क में ढाबा है, उसके पास गई थी हाथ बँटाने....पर मुझे दस्त लग गये सो अब धीरे-धीरे कर नीचे गाँव की तरफ उतर रही हूँ कि जाकर अपना इलाज करवा सकूँ।"
                       तो मैंने अपनी रक्सैक उतार, उसमें से दवाइयाँ निकाल उनको उसी समय खिलाते हुए कहा कि आपके गाँव पहुँचने से पहले ही आपके दस्त रुक जाएंगे और यह बाकी दवाई शाम को खा लेना। उन्होंने मुझे आशीष देते हुए कहा कि गणेश पार्क पहुँचकर मेरे भाई सीताराम के पास रुक जाना, एक ढाबा नीचे है और दूसरा ऊपर "निखिल टैंट हाउस" बाकी सारे ढाबे-टैंट बंद हो चुके हैं।
                        मैं फिर मन ही मन विधाता और अपनी किस्मत का शुक्रिया अदा करता हूँ कि तूने आज रात रुकने का हमारा ठिकाना तय कर दिया, क्योंकि सुबह से ही मन में चल रहा था कि मलिंगखट्टा पहुँचकर क्या होगा.....रहने- खाने की कुछ व्यवस्था होगी कि नहीं।
                        जैसे-जैसे हम पहाड़ के ऊपर की ओर चढ़ते जा रहे थे, देवदारों के कद छोटे होते जा रहे थे। उन विरले देवदारों के पार रिकांगपिओ-कल्पा के दूरदर्शन मन को सुकून सा दे रहे थे कि चाहे मैं एक वीरान जंगल में चला तो जा रहा हूँ, पर ये "मानव बसो चिन्ह" मुझे हौसला दे रहे थे कि तुम मानव बस्तियों के आसपास ही हो जैसे!!
                        चलते-चलते अपनी "तुंगमापी घड़ी" पर नज़र दौड़ाता हूँ तो हम समुद्र तट से 2810 मीटर की ऊँचाई पर आ चुके हैं।
                       आगे जा रहे नंदू को आवाज़ दे रोक कर उसके पास पहुँच कर बोलता हूँ- " तंगलिंग मतलब करीब 2000मीटर से चलकर 6घंटों में हम 800मीटर की चढ़ाई कर चुके हैं, इन 6घंटों में एक-डेढ़ घंटा यदि खाने-पीने व दम लेने का काट लूँ तो प्रति घंटा लगभग 200मीटर की सीधी चढ़ाई चढ़ना बहुत कठिन कार्य है....अच्छे-अच्छों के छक्के छूट जाए इस राह पर नंदू, इस यात्रा के प्रथम चरण में ही मुझे आभास हो चला है कि यह पदयात्रा 'श्रीखंड कैलाश' की पदयात्रा से कहीं ज्यादा कठिन जान पड़ती है, जबकि श्रीखंड कैलाश की यात्रा को कठिनतम यात्राओं की श्रेणी में रखा जाता है....श्रीखंड कैलाश यात्रा में आती 'डांडे की धार' की चढ़ाई से दुगनी-चौगनी मुश्किल चढ़ाई हम चढ़ रहे हैं नंदू सुबह से...!!"
             चढ़ाई चढ़ते-चढ़ते मैंने पीछे मुड़ कर देखा तो तीन नवयुवक धड़ाधड़ चढ़ाई चढ़ते हुए हमारी ओर बढ़ते चले आ रहे थे। उनकी तेज़ चाल बता रही थी कि वह तीनों स्थानीय ही है। पास आने पर हम में शिव-भोले के जयकारे का आदान-प्रदान होता है। उन तीनों में से एक युवक नंगे पैर यात्रा कर रहा था,  बातचीत शुरू हुई तो उन में से एक नवयुवक बोला- "जी हां, हम तीनों दोस्त किन्नर कैलाश जा रहे हैं.....मैं 'आशीष नेगी' गाँव तंगलिंग से, यह 'आकाश' पडसेरी गाँव से और यह 'सोनू'  तेलिंगी गाँव का।"
            "तो फिर आज आप लोग कहाँ रुकेंगे?" मैं आशीष नेगी से पूछता हूँ।
                          "हम आज आराम-आराम से गुफा तक पहुँच जाएंगे, रात वहीं काटेंगे और कल तड़के ही वहाँ से किन्नर कैलाश चल देंगे।" आशीष बोला।
                          और, वह तीनों हंसते-गाते दोस्त हमारी आँखों से देखते ही देखते ओझल हो गए....जबकि उस 50-60 डिग्री की कमरतोड़ चढ़ाई पर हर कदम, हमें नए दम हो चढ़ना पड़ रहा था। पिछले दो घंटे से मुझे सामने की तरफ बर्फ से लबालब एक गिरिराज के दर्शन होते जा रहे थे, गिरिराज पर  "गिरगिटी बादल"  अपना आधिपत्य जमाने की कोशिश में मगन थे......गिरगिटी बादल इसलिए कह रहा हूँ कि उन बादलों ने गिरिराज की बर्फ के सफेद रंग जैसा ही अपना रंग बना रखा था, कई बार भ्रम हुआ कि यह बादल है या बर्फ...!!
                       दोपहर का एक बजने को हो रहा था, चढ़ाई चढ़ते-चढ़ते हम दोनों आगे दिख रही उस जगह पहुँचने वाले हैं....जहाँ मध्य प्रदेश से आए दो सज्जनों का गाइड उनसे आगे नीचे उतर कर, पत्थर पर बैठा उनका इंतजार कर रहा है। हमारे वहाँ पहुँचते-पहुँचते वे दोनों सज्जन भी वहाँ पहुँच जाते हैं। मैं उत्सुक हो उनसे पूछता हूँ कि दर्शन हो गए भाई...?
                        तो वे बोले- "हमने गणेश पार्क से ही किन्नर कैलाश शिला के दूर से ही दर्शन कर माफी मांगते हुए माथा टेक दिया भाई, बहुत मुश्किल है यह यात्रा....हम कल बड़ी मुश्किल से पहुँचे थे गणेश पार्क तक, उससे आगे का रास्ता तो और भी मुश्किल और खतरनाक है....तो हमने गणेश पार्क से ही वापसी करने में अपनी भलाई समझी, वैसे हम अभी मणिमहेश कैलाश की यात्रा करने के बाद किन्नर कैलाश की यात्रा पर आए हैं, हम तो मणिमहेश की यात्रा को बहुत मुश्किल समझे थे परंतु यह यात्रा तो मणिमहेश की यात्रा से कई गुणा मुश्किल यात्रा है।"
                        उनकी बात सुन मैं कहता हूँ- "वैसे बुरा ना मानना भाई, मैं मणिमहेश यात्रा को  'पिकनिक'  ही कहता हूँ क्योंकि हम सब लोगों ने इस यात्रा को गर्मियों की छुट्टियों में मनाई जाने वाली पिकनिक ही बना लिया है, यात्रा तो यह पहले हुआ करती होगी....जब स्थानीय लोग हर वर्ष के निश्चित दिन पर मणिमहेश डल पर पहुँच उसमें पवित्र स्नान किया करते थे, इसीलिए इस यात्रा को 'न्यौण यात्रा' कहा जाता है......परंतु धीरे-धीरे इस यात्रा का व्यवसायीकरण होता गया, मैदानों से पहुँचे हम जैसों ने अपनी सुख-सुविधाओं के सारे यंत्र-मंत्र भी वहाँ पहुँचा दिए........खैर अच्छा तो है जो अपनी टांगों के दम पर वहाँ नहीं जा सकता, वह पैसे के दम पर वहाँ पहुँच सकता है.... पर हमारे बुजुर्गों ने क्या इसलिए ही ऐसी दुर्गम व दुष्कर यात्राओं का चलन आरंभ किया था, इन कमरतोड़-चुनौतीपूर्ण धार्मिक यात्राओं के चलन के पीछे अपने अहम को तोड़ना, अपनी आस्था की चरम सीमा प्राप्त करना और अपनी शारीरिक समर्था की सीमाएँ जांचना या उन्हें लांघ जाना, मुख्य उद्देश्य रहा होगा.......अभी यह किन्नर कैलाश पदयात्रा अपनी प्राचीनता लिये हुए ही है, पर धीरे-धीरे यह सुलभ होती जाएगी....हर मोड़ पर ठंडे की बोतल मिलने लगेगी, नए आसान रास्ते बनने लगेंगे, लोह-हंस भी उड़ने आ आएंगे यहाँ पर.....आप दोनों मित्र यह मत सोचें कि आप लोग दूर से किन्नर कैलाश भगवान को माथा टेक गणेश पार्क से वापस आ गए, अरे भाई किन्नर कैलाश शिला को तो रिकांगपिओ-कल्पा से भी देख कर माथा टेका जा सकता है....मैं तो आप दोनों की दाद देता हूँ कि मध्य प्रदेश से मणिमहेश आकर यात्रा संपूर्ण कर, आप लोग किन्नर कैलाश यात्रा पर चल दिये......आपने अपनी शारीरिक समर्था की सीमाओं को बखूबी लांघा है, ये यात्राएँ हमें यही तो सीख देती हैं और हम में एक नव ऊर्जा का संचार कर जाती है दोस्तों।"
                          मेरा "सत्संग" सुन वे हमें शुभ यात्रा की शुभकामनाएँ देकर नीचे उतरने लगे और हम ऊपर की ओर चढ़ने लग पड़े। परंतु हर बार की तरह मेरे साथ चला नंदू, हर बार की तरह ही मेरे आगे-आगे चलता हुआ मुझसे बहुत दूर पहुँच गया, क्योंकि एक तो उसका भार 58किलो और मेरा 75 किलो....उस पर नंदू की रक्सैक से दुगना भार मेरी रक्सैक का, वह इसलिए कि मैंने अपनी पीठ पर इस दुर्गम यात्रा में काम आने वाली हर चीज़ को लाद रखा है... यहाँ तक कि आग जलाने के लिए सूखी लकड़ियों के दो बंडल भी मेरी रक्सैक में थे।
                     मैं इस बार ज़ोर से आवाज़ लगा नंदू को रोकता हूँ और उसके पास पहुँचकर गुस्से से कहता हूँ- "यदि इस घने जंगल में तुझे अकेला जान भालू पकड़ ले, तो मैं इतनी दूर से तेरे लिए क्या कर पाऊँगा और यदि मेरा पैर फिसल जाए और मैं किसी चट्टान पर लटक जाऊँ तो तू मेरे किसी काम का नहीं....!!!!!
                                         (क्रमश:)



वो "क्यूट" सा नागालैंड दीमापुर वासी नौजवान  "अतिकुर रहमान"  

 चढ़ाई चढ़ते-चढ़ते मेरी खुद से हो रही वार्ता तब टूटती है जब मुझ से आगे निकले नंदू के पास मैं पहुँचता हूँ, जो रास्ते में आई एक छोटी सी गुफा के सामने दम लेने बैठा हुआ मुझे बोलता है- "देख विक्की, यह छोटी सी गुफा।" 

पीछे मुड़कर देखता हूँ कि हम घाटी में बह रही सतलुज से काफी ऊपर पहुँच चुके हैं, इतना ऊँचा कि जिस पहाड़ पर हम सुबह से चढ़ रहे हैं....उसकी आधी ऊँचाई तक तो पहुँच चुके हैं।
                           
लगातार कमरतोड़ चढ़ाई मेरे शरीर से मेरी शक्ति छीन रही थी.....मुझे भूख का एहसास होने लगता है तो पगडंडी पर ही अपनी रक्सैक उतार बैठ जाता हूँ.....और कुछ बिस्कुट खा व पानी पी अपनी शक्ति को फिर से एकत्र करने की कोशिश करता हूँ। 

बिस्कुट खा कर उसके खाली रैपर अपने कारगो बरमूडे की बाहरी जेब में घुसेड़ नंदू को बोलता हूँ- "क्योंकि.....हम यहाँ पहाड़ पर 'गंद डालने' नहीं आए...!!"

रास्ते में मिली बीमार महिला को दवाई देते हुए।


     जैसे-जैसे हम पहाड़ के ऊपर की ओर चढ़ते जा रहे थे, देवदारों के कद छोटे होते जा रहे थे। 

  चलते-चलते अपनी "तुंगमापी घड़ी" पर नज़र दौड़ाता हूँ तो हम समुद्र तट से 2810 मीटर की ऊँचाई पर आ चुके हैं।

मुझ से बहुत आगे निकल जाते नंदू को आवाज़ दे कर रोकता हूँ।

सतलुज घाटी का विहंगम दृश्य।

उन विरले देवदारों के पार रिकांगपिओ-कल्पा के दूरदर्शन मन को सुकून सा दे रहे थे कि चाहे मैं एक वीरान जंगल में चला तो जा रहा हूँ, पर ये "मानव बसो चिन्ह" मुझे हौसला दे रहे थे कि तुम मानव बस्तियों के आसपास ही हो जैसे!!

 "जी हां, हम तीनों दोस्त किन्नर कैलाश जा रहे हैं.....मैं 'आशीष नेगी' गाँव तंगलिंग से, यह 'आकाश' पडसेरी गाँव से और यह 'सोनू'  तेलिंगी गाँव का।"

कमरतोड़ चढ़ाई।

उस 50-60 डिग्री की कमरतोड़ चढ़ाई पर हर कदम, हमें नए दम हो चढ़ना पड़ रहा था। 

मध्य प्रदेश से आए वो दोनों मित्र, उनका गाइड और हम।

                                     
मध्य प्रदेश के इन दोनों सज्जनों के नाम, मैं भूल चुका हूँ...यात्रा के समय जो पाकेट डायरी मेरे पास थी, जिन पर इनका भी नाम लिखा था...वो डायरी बदकिस्मती से खो चुकी है।


जैसे-जैसे हमारे कदम ऊपर चढ़ते जा रहे थे, नीचे सतलुज घाटी का विहंगम दृश्य और ज्यादा खूबसूरत होता जा रहा था।

नयनसुख देता यह नज़ारा, कितना प्यारा..!

पहाड़ पर बसे रिकांगपिओ का दृश्य।

 चलते-चलते हर बार नंदू मुझ से बहुत दूर निकल जाता, तो मैं ऊँची आवाज़ में शिव भोले का जयकारा लगा....उसके उत्तर की प्रतीक्षा करता।

"कमरतोड़ चढ़ाईयाँ....तेरी भोलेनाथ!"
                                       
 मैं इस बार ज़ोर से आवाज़ लगा नंदू को रोकता हूँ और उसके पास पहुँचकर गुस्से से कहता हूँ- "यदि इस घने जंगल में तुझे अकेला जान भालू पकड़ ले, तो मैं इतनी दूर से तेरे लिए क्या कर पाऊँगा और यदि मेरा पैर फिसल जाए और मैं किसी चट्टान पर लटक जाऊँ तो तू मेरे किसी काम का नहीं....!!!!!

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